आखिरी छलांग

यह उपन्यास सर्वप्रथम ‘नया ज्ञानोदय’ के जनवरी २००८  के अंक में सम्पूर्ण रूप से  प्रकाशित हुआ था।

     भारत के गाँव प्रेमचन्द और फडि़स्वरनाथ ‘रेणु’ की कथाओं में आये गाँवों से बहुत बदल गए हैं। वर्तमान गाँव के जनजीवन पर केन्द्रित मेरे लिखे जा रहे उपन्यास ‘पगडंडियां’ का एक अंश जो युग तेवर साहित्यिक पत्रिका के गाँव पर केन्द्रित विशेषांक (जुलाई 2011) में प्रकाशित है, का अंश पाठकों के लिए यहां प्रस्तुत  :-

माचे पर लेटे-लेटे पहलवान याद करते हैं- आज के सपने में पांडे़ बाबा हंस रहे थे। उनके साथ अलग-अलग रस्सियों में टंगे बीसों घटे भी हंस रहे थे। व्यंग्य की हंसी। किसी के सिर पर माहाराष्ट्रीयन पगड़ी थी, किसी के सिर पर काठियावाड़ी। कोई ओड़िया बोल रहा था, कोई कन्नड़।

-ये लोग कौन हैं बाबा? आप लोग इस तरह मुझे देखकर क्यों हंस रहे हैं?
-हम विभिन्न प्रान्तों के आत्मदाह करने वाले किसान हैं बच्चा! एक घट
बोला- हंस रहे हैं तुम्हारी इन बचकानी सोच पर कि तुम हिन्दुस्तान में रहकर

किसानी जीवन के दु:ख और दरिद्रता से मुक्ति का सपना देख रहे हो। यह सपना कभी पूरा नहीं होने वाला बच्चा। बिना मरे इस बैडंड से मुक्ति नहीं मिल सकती। इसके लिए भवसागर पार करना होगा।

पहलवान अवाक्‌ सुन रहे थे।

पांडे़ बाबा फिर बोले- मृत्युलोक के भ्रमजाल में क्यों पडे़ हो बच्चा! छोड़ो सारा बैडंड। हमारे पास आ जाओ।

कहने के साथ फिर पांड़े बाबा ने अपने दोनों हाथ फैला दिए।

पहलवान डर गये। मुड़कर भागे। लेकिन यह क्या? कितना भी भागते, मुड़कर देखते तो पांड़े बाबा के दोनो हाथ एकदम पीछे लगे दिखते। वह भागते-भागते हाफने लगे। आँख खूली तो सांस बहुत तेज चल रही थी। तो क्या पाडे़ बाबा उन्हे आत्मदाह के लिए उकसा रहे हैं?

आंख बन्द करके लेटे पहलवान के मन में सोक की एक मद्धिम धुन बच रही है। सबेरे जागने के साथ बजनी शुरू हुई है। पहले भी कई बार यह धुन बजी है, जब वे बहुत उदास निराश हुए हैं। बहुत पहले किसी नेता की मृत्यु पर उन्होने रेडि़यो की सहनाई पर ऐसी धुन सुनी थी। इधर इस धुन से उन्हे डर लगने लगा है। डर लगता है कि बुद्धि उनका साथ न छोड़ दे। वे इस धुन के प्रभाव में न आ जाये। एक बार अखबार में उन्होने अंग्रेजी का एक शब्द पढ़ा था- डिप्रेशन। यह शब्द भी उन्हे कभी-कभी डराता है।

ग्रामीणों में आत्मदाह की प्रवृति नई लग सकती है लेकिन पहलवान को लगता है कि यह इतनी नई भी नहीं है। बदले रूप में यह लम्बे समय से मौजूद है। आस-पास के दस-पन्द्रह साल का हिसाब लगाया जाय तो पता चलेगा कि हर गाँव के दस – पाँच लोग घर गृहस्थी की मूसीबतो से हार मानकर साधू बनते रहे हैं। बाबा तुलसी दास भी अपने समय में इसका एक कारण संपत्ति का नष्ट होना बता गये हैं।

लेकिन सारे दुखों और कठिनाइयो के बावजूद वे आत्मदाह के लिए कैसे सोच सकते हैं? अच्छा हुआ की जो हमारी आत्मदाह की जमीन तैयार कर रहे हैं, उनसे दो-दो हाथ किये जाए। पिछले साल जब पांडे बाबा की आत्मदाह का मामला टी.बी. और अखबारों में गरमाया तो किसी बडे़ नेता का बयान आया था। वह हैरान था कि किसानों की बेहतरी के लिए इतनी योजनाए लागू करने के बावजूद वे आत्मदाह क्यों कर रहे हैं? क्या इन्हे कोई दिमागी बिमारी हो गई है? जैसे सियार कुत्ते पागल होकर भागने लगते हैं, जैसे मुर्गियां पटापट मरने लगती हैं। डिप्रेशन की इस लहर के पीछे कोई विदेशी साजिश तो नहीं है? जांच कराना होगा। जरूरत है ऐसे नासमझो को यह समझाने की कि दिमागी बिमारी की जांच किसानों की नहीं,किसानों के लिए योजना बनाने वाले उन योजनाकारों की कराने की जरूरत है जिनमें से खेलावन सिकरेटरी की माने तो बहुतो को यह भी पता नहीं होगा कि चने का पेड़ बड़ा होता है या अरहर का? आलू जमीन के नीचे फलाता है कि ऊपर? जरूरत है ऐसे विशेषज्ञों को हटा कर जमीनी आदमी बैठाने के लिए आवज उठाने की। यही तो खेलावन भाई बहुत दिनों से कह रहे हैं। इसमें जो संतोष मिलेगा, वह जान देने में कैसे मिल सकता है?

इसी उपन्यास का एक अन्य अंश-

कार्तिक एकादशी।
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यानी दलिद्‌दर भगाने की रात।

और सूर्यास्त से पहले गन्ना पूजन।

पहलवान पीतल की थाली में आग, अगियार, हसुली, तेल और सिन्दूर लेकर गन्ना पूजने के लिए खेत जा रहे हैं। पीछे-पीछे आधी बाल्टी पानी, लोटा और गँड़ासा लेकर पप्पू।

घर में हजारों साल से जड़ जमाकर बैठे दलिद्‌दर को भगाने के लिए यों तो किसान का पूरा परिवार साल भर बैल की तरह खेत खलिहान में जुझता है लेकिन कार्तिक की एकादशी को हर परिवार इसे भागाने और ऐश्वर्य का अपनी जिन्दगी में प्रविष्ट कराने के लिए आनुष्ठानिक उधम करता है। सावन-भादों की मुफलिसी को पूरा परिवार सिकुड़कर, धीरज से काटता हैं। यह वह समय है जिसमें सुग्गे भी उपवास करते हैं जबकि उनके पंख हैं औरवे दूर-दूर तक उड़ सकते हैं। न कोई फल न फूल न फसल।

क्वार-कार्तिक में धान तैयार हो गया। ज्वार, बाजरा, साँवा, कोदो, मक्का भी। अब कुछ समय के लिए दुर्दिन खत्म। रोटी पक्की। लेकिन नगदी तो गन्ने से ही हासिल होगी। और दलिद्‌दर दूर होगा नगदी से। इसलिए ऐ गन्ने में वास करने वाली लक्ष्मी, इतनी नगदी दीजिए कि इस साल गृहलक्ष्मी को नयी हँसुली गढ़ायी जा सके।

इस कामना के साथ पहलवान गन्ने के एक मोटे थान को पहलवानिन की हँसुली पहनाकर सिन्दूर तेल का टीका करके कण्डे की आग पर गुड़ और अच्छत की अगियार करके माथा झुकाते हैं। यह और बात है कि पिछले सालों का गन्ने का बकाया चीनी मिलों द्वारा भुगतान न किये जाने के कारण गन्ना पूजन में पहले जैसा उत्साह नहीं रह गया है। खुद पहलवान ने गन्ने की खेती बहुत कम कर दी है। अपनी जरूरत भर का गुड़ तैयार हो जाये, इतनी ही।

पूजन के बाद पहलवान ने गन्ने के चार-पाँच थान काटे। पप्पू ने उनकी सुखी पत्तियाँ छीलकर अलग किया। इस बीच अगियार सुलग कर खत्म हो गयी तो आग को पानी से अच्छी तरह बुझाकर गन्ने का बोझ लेकर बाप-पूत वापस लौटे।

आज के दिन से ही गन्ना चूसने या पेरने की पारम्परिक शुरूआत होती है। दलिद्‌दर को भी गन्ने से पीटकर भागाते हैं। इसलिए हर गृहणी को आज के दिन गन्ने की जरूरत पड़ती है। जरूरी नहीं कि हर किसान हर साल गन्ना बोय। बहुत से भूमिहीन परिवार भी हैं गाँव में। दलिद्‌दर सभी को भगाना है। मुँह सभी का मीटा होना है। इसलिए हर गन्ना किसान अपने ऐसे पड़ोसियों के घर गन्ना भेजना अपना धरम समझता है जिन्होनें गन्ना नहीं बोया है। सहाई सिंह जब तक जिन्दा थे, पूरे गाँव के गन्ना विहीन परिवारों के घर-परिवार के सदयों की संख्या के बराबर गन्ना भिजवाते थे।

पहलवान ने अपने अड़ोस-पड़ोस के गन्ना विहीन परिवारों की गिनती करके पप्पू से उन लोगों के घर दो-दो गन्ने पहुँचाने के लिए कहा। पहलवान चाहते हैं कि उनके जीवन काल तक तो यह परम्परा चलती रहे। आगे की राम जाने!
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कार्तिक एकादशी की शाम पहलवानिन चना-दाल की पूड़ी और सूरन की सब्जी बनाती हैं। साथ में रसियाव यानी मीठा चावल। उनकी सास के जमाने से चली आ रही है यह परम्परा।

पहलवान ने दाल की पूड़ी भरपेट खायी। खासकर इसमें पड़ा जीरा उनको बहुत प्रिय है। मँड़हे में सोये तो भोर में चारों तरफ से आती ढप्प-ढप्प की आवाज से ही उनकी नींद टूटी। वे उठकर बैठ गये। हुक्का मिलना इतने सबेरे सम्भव नहीं था। उन्होंने सिरहाने से चुनौटी निकालकर थोड़ी-सी सुर्ती गदोरी पर रखी और चूना मिलाकर रगड़ने लगे।

उनके घर का दरवाजा खुला और पहलवानिन गन्ने की अगोढ़ी से दलिद्‌दर के प्रतीक सूप को पीटती हुई बाहर निकली। ढप्प-ढप्प के साथ आवाहन का स्वर- इस्सर (ऐश्वर्य) आवै, दलिद्‌दर जावै। एक-एक कोठरी, रसोई, भण्डार घर, कोठे, जानवारों की सरिया के कोन-अँतरे से पीट पीटकर दलिद्‌दर को बाहर भगाती हुईं।

सूप पर पड़ती गन्ने की चोट से सारा इलाका गूँज रहा है। हर गाँव से, गाँव के हर घर से निकलती ढप्प-ढप्प की आवाज और साथ में गृहलfक्ष्मयों का आवाहन- इस्सर आवे दलिद्‌दर जावै।

दलिददर के प्रतीक पुराने सूप का हाथ-पैर तोड़कर उसे ऐसे गहरे गढ्‌ढे में फेंकना है जहाँ से वह वापस न लौट सके।

पहलवान सोचने लगे कि जाने कितने युग बीत गये किसानों को अपने घर से दलिद्‌दर भगाने का जतन करते हुए। लेकिन दलिद्‌दर है कि जाने का नाम नहीं ले रहा। ऐश्वर्य के आने की बात तो दूर रही। हथेली से पीटते हुए उन्होंने भी सूपों की ढप्प-ढप्प में अपना सुर मिलाया और उदास हो गये। पिछले कई वर्षों में दरिद्रता से छुटकारा पाने के लिए किये गये अपने निष्फल प्रयासों को याद करते हुए उन्होंने सोचा कि किसान और दरिद्रता का जन्म-जन्म का यह साथ क्या कभी छूट सकेगा? यह गठबन्धन कभी टूट सकेगा?
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सचमुच, क्या है किसान की जिन्दगी? एक कोना ढाँकिए तो दूसरा उघार हो जाता है। बचपन में, स्कूल के दिनों में कहाँ पता था कि कितने गाढे़ में जिन्दगी कटने वाली है!
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उन्हें अपने स्कूली दिन याद आने लगे। उस समय ‘जय जवान जय किसान’ का नारा बहुत लोकप्रिय था। पहलवान का मन ललकता था कि वे भी फौज में भर्ती होते। सन 62 की लड़ाई हो चुकी थी। सन 65 की लड़ाई हो चुकी थी। गाँव देहात में फौज, सरहद, चीन-पाकिस्तान, पैटन टैंक आदि की बड़ी चर्चा थी। 71 की लड़ाई शुरू हुई तब पहलवान दर्जा सात में थे। मिडिल स्कूल में आनेवाली पत्रिकाओं में तब ‘धर्मयुग’ का महत्व बहुत बढ़ गया था। उसमें बांग्लादेश की लड़ाई के फोटो और रिपोर्ट छप रहे थे। पत्रिकाएँ घर ले जाने की अनुमति नहीं थी। वे इन्टरवल और खाली घण्टों में बड़ी उत्सुकता से उसे आद्‌योपान्त पढ़ते थे। उन्हें पता था कि परिवार के अकेले पुत्र होने के कारण उन्हें गाँव में भी रहना होगा और खेतीबारी साँभालनी होगी। तब ऐसा ही सोचने का चलन था। पिताजी का देहान्त हो जाने के बाद तो इस भविष्य पर मुहर ही लग गयी। लेकिन अच्छा किसान बनने की ललक हमेशा बनी रही। अपने जिम्मे खेतीबारी का काम लेने के बाद उन्होंने शुरू-शुरू में गाँव में सबसे अच्छी फसल पैदा करके दिखायी। जिस साल गाँव के किसान रामसुख को सबसे बडे़ आकार की गोभी पैदा करने के लिए पुरस्कृत किया गया था, उसके अगले साल वे सबसे बड़ा आलू पैदाकरके पुरस्कृत हुए थे। चार-पाँच साल तक वे अपने गाँव के प्रति एकड़ सबसे ज्यादा गन्ना पैदा करने वाले किसान रहे लेकिन गन्ने का भुगतान सालों साल लटक जाने के कारण गन्ने की खेती से उनका मन उखड़ गया। अगैती आलू बोने से उन्हें तीन साल ठीक-ठाक कमाई हुई थी, लेकिन चौथे साल पता नहीं इलाके में ज्यादा आलू पैदा हो जाने के कारण या बिचौलियों की साजिश के कारण आलू का भाव गिर कर चालीस-पचास पैस किलो हो गया। उसकी खुदाई करने में जो मजदूरी देनी पड़ती, उतनी भी कीमत मिलने की उम्मीद नहीं थी। कोई अधिया पर भी खोदने को तैयार नहीं था। लिहाजा पश्चिम के जिलों में पता नहीं कितनों का आलू खोदा ही नहीं गया। खेतों में ही पड़ा रह गया। गाँव के भुमिहीन मजदूर चैत-बैसाख तक खोद-खोदकर खाते रहे।

अभी तीन साल पहले संकर धान 6444 की 130 कुण्टल प्रति हेक्टेयर की पैदावार करके राज्य सरकार से कृषि रत्न का पुरस्कार प्राप्त किए, लेकिन जब पहलवान इस पैदावार का खर्च और मेहनत की तुलना में पैदावार की कीमत जोड़ते हैं तो वही ढाक के तीन पात वाली दशा प्राप्त होती है। मेहनत करके, जतन करके जोर-जुगाड़ करके थक गये पहलवान, लेकिन दलिद्‌दर ससुरा ऐसा गोड़ तोड़कर घर में घुसा है कि निकलने का नाम नहीं लेता। उन्हें लगता है कि शायद गोसाईं जी ने उन्हीं के लिए लिखा है-सकल करम करि थकेउँ गोसाईं…।
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कभी-कभी पहलवान को बहुत तेज गुस्सा आता है, मन करता है कि लाठी उठा कर सब को पीट डालें। गाँव के हिस्से की बिजली शहर के पार्कों और सड़कों पर रात-रातभर जलाकर खत्म कर देने वालों को पीटें। गाँव के विकास का पैसा बीच में हड़प जाने वालों को पीटें। मिलावटी खाद और नकली कीटनाशक बेचने वालों को पीटें। फर्जी मुकदमे में फँसाने वालों को पीटें। लाठी लेकर दौड़ते हुए जाएँ और पार्कों और सड़कों के किनारे लगे हजारों वाट के बल्ब और ट्‌यूब तोड़-फोड़ डालें। यही बल्ब तो उनके गाँच के हिये की सारी बिजली सोखे ले रहे हैं। 15-16 रूपये की लागत से पैदा होने वाले गेहूँ का समर्थन मूल्य 8-10 रूपये तय करने वालों को पीटें। फिर उन्हें लगता है कि इन सब कामों के लिए उनकी लाठी बहुत छोटी है।

कभी-कभी पहलवान साचते हैं कि काश उन्हें सही समय पर किसी ने आगाह कर दिया होता कि खेतीबारी से पेट भरने का आसरा छोड़कर पढ़ाई-लिखाई का भरोसा करें। मामूली चपरासी की जिन्दगी भी औसत किसान की जिन्दगी से बेहतर होती है-यह तब पता चल गया होता तो मिडिल, हाई स्कूल और इंटरमीडियट तीनों प्रथम श्रेणी में पास करने के बावजूद वे इस खानदानी दलदल में क्यों फँसते? पिण्ड छुड़ाकर वे भी किसी दिशा में भाग खड़े होते।

दस-पन्द्रह साल पहले तक बूढे़ बुजुर्गों की बात में निराशा और उदासी का पुट मिलने पर पहलवान को बड़ी कोफ्त होती थी। पर इतने दिनों के अनुभव और नतीजों को देखते-देखते अब उन पर भी निराशा छाने लगी है। वे भी मानने लगे हैं कि किसानी के पेशे में बरकत नहीं होने वाली। अपनी लेई पूँजी लगाकर जो फसल वह घर लाता है उसे अज्ञानवश लाभ समझकर थोड़ी देर के लिए खुश हो जाता है। इसलिए कि उसे लागत और लाभ की परिभाषा का पता नहीं है। हाईस्कूल में पाइथागोरस की एक प्रमेय थी- कर्ण पर बना वर्ग…। उसे सिद्ध करने में बड़ा दिमाग लगाना पड़ता था। पहलवान को लगता है कि किसान की गृहस्थी की प्रमेय पाइथागोरस की उस प्रमेय से भी कठिन है। कौन जाने इसका हल कब निकलेगा!..

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