शिवमूर्ति उत्पादकता के कहानीकार नहीं हैं। वह रचनात्मक अर्थ में विरल कहानीकार हैं तथा लेखन और प्रतिष्ठा के अनुपातिक संदर्भ में गुलेरी का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेप में तर्पण को औपन्यासिक कृति कहा गया है। आकार-प्रकार से यह सही लग सकता है लेकिन पफार्मेट के मामले में यह एक लम्बी कहानी है। इस दृष्टि से तर्पण और शिवमूर्ति अकेले उदाहरण नहीं हैं। विधागत लोच और व्यावसायिक कारणों से यह प्रायः होता है जिससे उपन्यास की रचनात्मक विश्वसनीयता और विधागत साख दोनों ही प्रभावित हुए हैं। कथा के मूल में एक छोटी सी द्घटना गाँव में द्घटती है। धरमू पंडित का बेटा चंदर अपने खेतों के पास से गुजरती दलित बस्ती के पियारे की बेटी रजपतिया को बुरी नीयत से पकड़ लेता है। रजपतिया शोर मचा देती है और आसपास के खेतों में काम कर रही अन्य स्त्रिायाँ आवा८ा की दिशा में बढ़कर वहाँ पहुँच जाती हैं और दोनों को छुड़ा देती हैं। चंदर रजपतिया पर चोरी का इल्जाम लगाता है और रजपतिया उसकी बुरी नीयत का हवाला देती है और दोनों अपने द्घर चले जाते हैं। यह द्घटना कथा के मूल में बीज का काम करती है और गाँव अपने वजूद में उभरने लगता है। दरअसल यह कहानीकार का लक्ष्य भी है कि हमारे समय के गाँव में ऐसे कौन से बदलाव हो रहे हैं जिन्हें पूर्ववर्ती समय से अलगाते हुए वर्तमान समय-संदर्भ में गाँवों की सही पड़ताल हो सके। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि शिवमूर्ति अपनी कहानियों के संदर्भ में ग्रामीण चेतना के प्रबल वाहक हैं। उनके पास भाषा, अनुभव और शिल्प की बेजोड़ अनगढ़ता है और तर्पण जैसी रचना उसी गर्भ से जन्म लेती है।
इस कथा रचना के कालखंड के संदर्भ में एक ही बात उभर कर आती है कि दलित स्त्राी सूबे की मुख्यमंत्राी है। गाँव की छोटी सी द्घटना अतीत की जातिगत उत्पीड़न के संदर्भों में समकालीन जातिगत सजगता और स्वार्थी वैचारिक एकजुटता जहाँ एक तरपफ धरमू पंडित और पियारे के परिवारों की शांति छीन लेती है वहीं दोनों ही आर्थिक रूप से नुकसान सहते हैं। थाना-कचहरी मजबूरी के हल के रूप में नहीं बल्कि स्वार्थलिप्तता, धूर्तता और लोगों की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को पूरा करते न८ार आते हैं। राजनीति और उसके रहनुमा कठपुतली की तरह इस्तेमाल होते हैं। प्रेम और यु( में सब-कुछ जाय८ा है, की तर्ज पर पियारे और उसके साथ के लोगों की ओर से चंदर के खिलापफ़ रजपतिया के बलात्कार की झूठी रिपोर्ट लिखायी जाती है तो धरमू पंडित जातिगत दंभ और पैसों की खनक में मगरूर है। दोनों ही पक्ष एक दूसरे को नीचा दिखाने को उद्यत न८ार आते हैं। कोई पुराने दिनों की एश्वर्यमयी वापिसी चाहता है तो कोई अतीत की कड़वी यादों के संदर्भ में वर्तमान की दुश्वारियों से पूरी तरह आँखें मूंदें न८ार आता है। इस द्घटना में धरमू पंडित की ओर से ठाकुर लोग हस्तक्षेप करते हैं और पियारे की ओर से मुन्ना, विक्रम, भाई जी और विधायक का सहयोग रहता है। तथ्यों और सत्य से दूर दोनों ही पक्ष एक दूसरे से किस तरह गुत्थमगुत्था हैं एक बानगी निम्न संवाद से देखी जा सकती है।
भाई जी उंगली से पियारे की ठोड़ी उठाते हैं, ‘इधर देखिए। इतने पस्त हिम्मत तो तुम कभी नहीं थे। मजदूरी आंदोलन में कंधों से कंधा मिलाकर टक्कर दिया था।’
‘मैं पस्त हिम्मत आज भी नहीं हूँ भाई जी। हर वक्त जान लेने या देने का सौदा करने को तैयार हूँ। बस अधरम से डरता हूँ। वह धर्म की लड़ाई थी। पेट के लिए। उसमें किसी झूठ पफरेब की मिलावट नहीं थी।’
‘वह वर्ग संद्घर्ष था। रोटी के लिए। यह वर्ण संद्घर्ष है। इज्जत के लिए। इज्जत की लड़ाई रोटी की लड़ाई से ज्यादा जरूरी है। इसीलिए इस लड़ाई के लिए सरकार ने हमें अलग से कानून दिया है। हरिजन एक्ट। हम इस कानून से इस नाग को नाथेंगे।’
एतिहासिक परंपरा में हर संद्घर्ष में दोनों पक्षों में कुछ लोग जरूर मिल जायेंगे जो धर्म-अधर्म का खयाल रखते हैं। पियारे ऐसे ही उदाहरण के रूप में शिवमूर्ति की सर्जना है। शिवमूर्ति अरसे से कहानियाँ लिख रहे हैं और ग्रामीण चित्राण और चेतना के संदर्भ में वह लगातार स्त्राी और दलित और दलित की बात अपनी कहानियों में उठा रहे हैं। लेकिन इसके बावजूद न तो स्त्राी और दलित विमर्शों के पैरोकार उनसे खुद को जोड़ पा रहे हैं और न शिवमूर्ति ही खुद को उनसे किसी स्तर पर जुड़ा पाते हैं। दरअसल पियारे का धर्म-अधर्म का द्वंद्व सिपर्फ चरित्रा का ही द्वंद्व नहीं है, कहानीकार का द्वंद्व है। पियारे उनकी दलित चेतना का वाहक है, भाई जी नहीं। जबकि दलित विमर्श का दारोमदार संद्घर्ष पर टिका है और संद्घर्ष भाई जी की मापर्फत ही हो सकता है। भाई जी शिवमूर्ति का पक्ष नहीं है। न्याय-धर्म का पक्ष शिवमूर्ति का पक्ष है। वह चित्राण दोनों पक्षों के संद्घर्ष का करते हैं लेकिन वह एक साथ दो संद्घर्षों से जूझते हैं। एक बाहरी संद्घर्ष जो प्रतिपक्ष का संद्घर्ष है दूसरा आंतरिक संद्घर्ष जो एक ही पक्ष में न्याय-अन्याय के बीच चलता है। उनका लेखकीय सरोकार पियारे जैसे चरित्राों की सर्जना से जुड़ा है। इसीलिए एक पक्ष में होते हुए भी भाई जी वैचारिक स्तर पर लगभग प्रतिपक्ष की तरह न८ार आते हैं। क्योंकि उनकी सोच में खोट है, किसी को न्याय दिलाने से ज्यादा पिफक्र उन्हें अपना कद बढ़ाने की है। वह स्वार्थ और महत्वाकांक्षा के लिए कोई कोर कसर नहीं उठा रखेंगे, इसलिए शिवमूर्ति पियारे के माध्यम से धर्म की बात उठाते हैं वह वंचित और पीड़ित के साथ हमेशा खड़े मिलते हैं लेकिन वह संद्घर्ष को सत्य और न्याय के मार्ग से गुजरता देखना चाहते हैं। यही कारण है कि जो चरित्रा सही मार्ग पर नहीं है वह खलनायक सा न८ार आता है। चाहे पंडिताइन हो या लवंगी। भाई जी हों या विधायक अथवा ठाकुर लोग। दरअसल इस परिप्रेक्ष्य में वह चरित्राों की कलई खोल कर रख देते हैं। इसीलिए उनके चरित्रा स्वतंत्रा न८ार आते हैं और चित्राण के स्तर पर लेखकीय कठपुतली बनने से बचे रहते हैं। उनकी कहानियों में द्वंद्वात्मक अंतर्विरोध एकदम सापफ उभर कर आते हैं जो किसी भी कहानीकार के लिए धड़कन की तरह होते हैं। चरित्राों से ज्यादा सोच मायने रखती है और इस ईमानदारी के लिए शिवमूर्ति जाने जाते हैं।
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