अक्टूबर 2011 में लिखी गई मेरी यह कहानी तद्भव पत्रिका के अंक 24 में प्रकाशित हुई है। पाठकों के लिए यहाँ प्रस्तुत है-
चलो सुध तो आयी, वरना छ:-सात किमी0 लम्बी इस पट्टी पर आबादी कहाँ है। एक भी गांव अगर होता रास्ते में। विधायक को हजार दो हजार वोट का भी लालच होता। दो जिलों की सीमा होने के चलते भी यह हिस्सा उपेक्षित रह गया। मामा के घर से निकलते ही मामी के जिले की शुरूआत हो जाती है। मामा का घर एक जिले में और सामने के खेतों में से आधे दूसरे जिले में। लेकिन पक्की सड़क के लिए चिह्नित यह रास्ता पहले भी कभी राहगीरों से खाली नहीं रहा। टेढ़ी मेढ़ी पगडंडी के रूप में, नाले जंगल और ऊसर के बीच से गुजरते इस रास्ते पर चलते पीढ़ियां गुजर गयीं। बड़ी-बड़ी ऐतिहासिक घटनाएँ इस रास्ते पर घटित हुईं। कभी गौना कराकर ले जायी जा रही दुल्हन जबरन छीन ली गयी कभी कोईं सजीला घुड़सवार जंगल में ऐसा गायब हुआ कि हवा तक नहीं लगी। घंटी टुनटुनाते जा रहे सवार की नयी साइकिल नशे का बताशा खिला कर ठगों ने लूट लिया। बचपन में सुने गये जाने कितने किस्से। अपने इलाके के बाहर की वारदात बता कर दोनों ही थानों की पुलिस रिपोर्ट लिखाने गये भुक्तभोगियों को भगाती रही।
मैं भी कईं बार गया हूँ इस रास्ते पर। मामा के गाँव माधोपुर से मामी के गाँव शिवगढ़ तक। इस राह को भी धूप लगती थी शायद। इसलिए यह ऊसर और जंगल की संधि पर होते हुए भी जंगल में सौ कदम घुस कर चलती थी। नाले के किनारे किनारे झरबेरियों का जंगल और उत्तर तरफ साधू की कुटी की ओर बढ़ने पर पीपल, पाकड़, बरगद और महुए के जहाजी पेड़ों का घटाटोप। कुटी के ठीक सामने का तालाब जिसका पानी अषाढ़-सावन को छोड़ कर सालों साल नीला रहता था। मछलियाँ मारने की मनाही के चलते डेढ़-डेढ़ हाथ की मछलियाँ मूछें फरकाती किनारे तक तैरती थीं। जाड़ा शुरू होने के पहले तक लाल कमल और उसके गाढे़ हरे पत्ते आधे से ज्यादा ताल को घेरे रहते थे।महुए के एक विशालकाय पेड़ की मोटी डाल के नीचे मधुमक्खियों के कई छत्ते लटकते थे। हवा में एक मीठी महक तैरती रहती थी।
मुझे इस सड़क के निर्माण का सुपरविजन मिला तो अतिरिक्त खुशी हुई। अब मामा-मामी दोनों से मिलने का मौका मिलेगा। जमाना गुजर गया दोनों से मिले हुए। मेरा वश चलता तो मैं इस सड़क का लोकार्पण मामी से करवाता। आखिर मामी से ज्यादा इस रास्ते पर कौन चला होगा। वह भी रात-बिरात, आँधी, तूफान तक में।
नाना पांच भाई थे और मामा सात। सारे नाना, मामा की संततियों से पूरा एक टोला बस गया था। यह टोला मुख्य गाँव से हट कर पूरबी किनारे पर था। इसके आगे परती जमीन पर कुछ पेड़ थे जिनके नीचे खलिहान लगता था। उसके आगे खेत। फिर बांयी तरफ जंगल और दाहिनी तरफ ऊसर का विस्तार जो पूरब में कई कि.मी. तक चला गया था। मेरी गर्मी की छुटि्टयाँ मामा के घर गुजरती थीं। बीच में भी कई बार स्कूल से भाग कर पहुँच जाता था। तब यही मन करता था कि ज्यादा से ज्यादा नानी के पास रहें। नानी की आँखों से, उनकी आवाज और स्पर्श से मानो अमृत बरसता था। शाम को आठ नौ साल तक के बच्चे किस्सा सुनने के लिए नानी के गिर्द बैठ जाते। दालान के एक किनारे जमीन पर बिछे पुआल पर तीन चार कथरियाँ बिछी रहतीं। बच्चे एक-एक करके आते और कथरी पर लेट कर नानी का इंतजार करते। किस्सा चलता रहता और बच्चे एक-एक करके सोते जाते। किस्से का अंत सुनने के लिए शायद ही कोई बच्चा जगा रहता। दूसरी शाम अक्सर वही किस्सा फिर शुरू से चलता।
सबेरे नानी मट्ठा मारने बैठती तो धीरे-धीरे सारे बच्चे कटोरा-कटोरी लेकर कमोरी के चारों तरफ इक्ट्ठा होने लगते। छोटे बच्चे, जिन्हें अंदाजा नही रहता कि मट्ठा मारने में कितना समय लगता है, उठते ही, एक हाथ से आँख मीजते या नीचे सरकती कच्छी ऊपर सरकाते दूसरे हाथ में कटोरी पकड़े चल पड़ते। नानी झक सफेद बरफ के गोले जैसा नरम नैनू (मक्खन) निकाल कर बच्चों की कटोरी में डालतीं। नैनू के साथ – साथ आँखों से ढेर सारा स्नेह बरसातीं। इतना कि हर बच्चे का अंतरतम भीग जाता।
नानी बहुत सुन्दर थीं। रंग गोरा और कद काठी लम्बी। बलिष्ठ। आँखे नीली। जब की मुझे याद है, विधवा होने के कारण वे मारकीन की सफेद धोती पहनती थीं लेकिन उस धोती में भी उनकी सुन्दरता और मधुरता अद्भुत दिखती थी। अब यूनानी लोगों की कदकाठी और नाक नक्श से परिचित होने पर लगता है कि नानी यूनान से ही आयी थीं। बड़के मामा का कद नानी के बराबर था। आँखें छोटी थीं लेकिन उनका नीलापन नानी जैसा ही था। आवाज इतनी भारी कि फुसफुसाकर बोलना उनके लिए संभव नहीं था। एक बार गर्मी की छुटटी में मैं नानी के घर आया था। शाम को खा पीकर पियारे मामा के साथ खलिहान में सोने पहुँचा। तब रबी की मँड़ाई बैलों से होती थी। गेहूँ की अधसीझी पयार पर हम लोग कथरी बिछाकर लेटे थे। टहटह चाँदनी रात थी। पेड़ की पत्तियों से छन कर हम लोगों के ऊपर चाँदनी के घेरे हिलडुल रहे थे।पियारे मामा भाइयों में सबसे छोटे थे। ननिहाल आने पर मैं ज्यादातर उन्हीं के साथ-साथ रहता था। अचानक मामा बोले- मै ‘मैदान’ होकर आता हूँ। तुम लेटो। अकेले डरोगे तो नही?
तब मैं यह समझने के लिए बहुत छोटा था कि पियारे मामा अपनी नवव्याहता उतराहा मामी से मिलने उनकी कोठरी में जा रहे हैं।
मैं चित लेटा चाँदनी का जादू देखता रहा। पुरवा बह रही थी। थोड़ी देर में पुरवा पर उड़ कर टूट-टूट कर आती पुरूष कंठ की ध्वनि कानों में पड़ी। बीच-बीच में पतला नारी स्वर। कुछ डर कर और कुछ तात्कालिक प्रतिक्रियावश मैं चिल्लाया- कौ • ∙ न?
पता नहीं पुरवा के बिपरीत चल कर मेरी आवाज का कितना हिस्सा वहाँ पहुँचा-लेकिन आवाज पहले बंद हुई फिर धीमी होकर आने लगी।
बेटी पानी-पानी हो गयी।