‘त्रिशूल’ : (वीरेन्द्र मोहन)

पाठकों के लिए शिवमूर्ति के उपन्यास ‘त्रिशूल’ पर वरिष्ठ आलोचक वीरेन्द्र मोहन के आलेख के कुछ अंश :-

त्रिशूल की कहानी एक ओर हिन्दु-मूस्लिम साम्प्रदायिकता के अनेक पक्षों का उद्‌घाटन करती है तो दूसरी ओर हिन्दू समाज के जातिवादी ओर बिरादरीवादी मुखौटे का उद्‌घाटन करती है। जातिवाद की अनेक पर्तें यहाँ एक-एक कर खुलती जाती हैं। ऊँची और नीच कही जाने वाली जातियों के बीच घुस जाने वाली साम्प्रदायिक शक्तियाँ कैसे पूरे समाज का अमन-चैन छीन लेती हैं और कैसे साम्प्रदायिक शक्तियाँ हिंसा और रक्तपात का ताण्डव रचती हैं, इसको लेखक ने भीतर से पहचाना है। ऐसी हिंसक शक्तियाँ वस्तुत: व्यक्तिवादी होती हैं और अपनी सनक में कहीं तक भी जा सकती हैं। जातिवादी का जहर गुण्डों और अपराधियों का गिरोह बनाकर समाज को ही तहस-नहस करता है।

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       त्रिशूल की कहानी महमूद और लोक गायक पाले की कहानी मात्र नहीं है और न ही शास्त्रीजी जैसे रामवादी पार्टी के एक व्यक्ति की कहानी है। पाल साहब जैसे साम्प्रदायिक सद्‌भाव और भाईचारे की भावना को विकसित करने वाले लोग अभी भी समाज में हैं जो धर्म को व्यक्तिगत आस्था का प्रश्न मानते हैं और इसीलिए वे महमूद को पारिवारिक सदस्य की तरह अपने साथ रखते हैं। उनके लिए महमूद न तो नौकर है और न ही कट्‌टरवादी मुसलमान। महमूद तो वस्तुत: इन बातों से परिचित भी नहीं है। हिन्दू और मुसलमान इस देश में सदियों से जिस भाईचारे के साथ रहते आये हैं और खुद पाल साहब जिस तरह से सम्प्रदाय निरपेक्ष सम्बन्धों का निर्वाह करते आये हैं, वे खुद नहीं सोच पाते हैं कि महमूद का मुसलमान होना ही हिन्दू सम्प्रदायवादियों के लिए सब से बड़ा अपराध है। शास्त्रीजी जैसे लोग हिन्दू साम्प्रदायिकता का झण्डा लेकर चलते हैं। पाल साहब से पहली मुलाकात में वे कहते हैं- ‘गाय पाल कर आप सच्चे हिन्दू धर्म निबाह रहे हैं। गो ब्राम्हण की सेवा। आप को देखकर ही लगता है कि आप आस्थावान व्यक्ति हैं। और जीवन का मूल है आस्था।’
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         शास्त्रीजी साम्प्रदायिकता का जहर फैलाने के लिए तरह-तरह के विधान रचते हैं। राम मंदिर के निर्माण के लिए चन्दा इकट्‌ठा करना, राम भक्तों को अयोध्या भेजना, अस्थि  कलशों का आयोजन, मुसलमानों की सम्पत्ति पर कब्जा और महमूद के खिलाफ अपने पोते के अपहरण की फर्जी रिपोर्ट तक वे करते हैं। उत्तेजक नारे और भाषणों के कैसेट समाज के वातावरण को जहरीला बनाते हैं। जब तक महमूद के धर्म को वे नहीं जानते तब तक वह उनका प्रिय चेला और तमाम कार्य करने वाला महत्वपूर्ण लड़का है। उसके हाथ की चाय पीने या प्रसाद के लड्‌डू घर-घर पहुंचाने से शास्त्रीजी तथा अन्य हिन्दूवादियों का धर्म नष्ट नहीं होता, पर जैसे ही उसके मुसलमान होने का पता चलता है तमान गुनाह उन्हें दिखाई  देने लगते हैं। महमूद हिन्दू साम्प्रदायिकता का शिकार होकर पुलिस के जुल्म सहता है और प्रतिक्रिया स्वरूप वह खुद मुसलमान बिरादरी को अपना रक्षक समझ पाल साहब का घर छोड़ कर चला जाता है।
        मण्डल आयोग की रिपोर्ट लागू होने की घोषणा होने के साथ शास्त्रीजी का पचासी प्रतिशत हिन्दू समाज आरक्षण समर्थक और आरक्षण विरोधियों के बीच, ऊँची और नीची जातियों के बीच शत्रुतापूर्ण ढंग से विभाजित हो जाता है। जो शास्त्रीजी पूरे हिन्दू समाज का दावा करते हैं, उन्ही से पाल साहब कहते हैं ‘जब से मण्डल आयोग की सिफारिशें लागू किये जाने की घोषणा हुई  है, उसके समर्थक और विरोधियों के रूप में पूरा हिन्दू समाज दो फांकों में बँटता चला जा रहा है। रामवादी शास्त्रीजी की फितरत से ही हरिजन लोकगायक पाले की हत्या की जाती है। यह जातिवादी राजनीति का हिंसक रूप है। क्योंकि पाले ऊँची जाति के हिन्दुओं की वास्तविकता को, उनके द्वारा नीची जातियों पर किए जाने वाले अत्याचारों को बिना भय के सार्वजनिक रूप से व्यक्त करता है।
       सम्प्रदायवाद और जातिवाद किसी भी समाज की उन्नति को रोकता है। हिन्दू साम्प्रदायिकता की प्रतिक्रिया स्वरूप मुस्लिम साम्प्रदायिकता भी उतने ही विकराल और हिंसक रूप में जन्म लेती है। अचानक धर्म-सम्प्रदाय प्रदर्शन की कला हो जाते हैं। काला पहाड़ जैसे मुस्लिम कट्‌टरवादी अपराधी पैदा होते हैं। जिसके विषय में कहा जाता है कि ‘मलियाना हत्याकाण्ड का बदला चुकाने के लिए सन 87 वाले दंगे में इसने अकेले ही सत्रह लोगों को काटा था। एक दिन में। बल्कि कुछ घण्टों में। इसके शागिर्दो की संख्या सैकड़ों में है। ऐसे शागिर्द जो एक इशारे पर कटने-काटने को तैयार रहते हैं।’ हिन्दू समाज जातिगत आधार पर बुरी तरह से विभाजित है। यह विभाजन खान-पान और शादी-विवाह तथा चूल्हे चौके तक प्रवेश कर गया है। जातीय दर्प और ऊँच-नीच की विकसित होती भावना के कारण लोग अपनी जातियां बदल रहे हैं। ऊँची जाति के गौरव का पाखण्ड कर रहे हैं। रामवादी पार्टी के शास्त्रीजी खुद ही अपनी जाति बदल कर बी.सी.यानी पिछड़ी जाति से राजपूत बन गये हैं। क्लब का बूढ़ा चौकीदार जो पिछड़ी जाति का है, शास्त्रीजी के विषय में बहुत सी बातें पाल साहब को बताता है।
        त्रिशूल में लेखक ने मानवेतर प्राणियों को उपस्थित कर उनकी संवेदना को पकड़ने का काम किया है। गाय, बछड़ा और कुत्ता पाल साहब के पालतू जानवर हैं और महमूद उनकी सेवा करता है। लेखक ने इन पशुओं का ऐसा चित्र प्रस्तुत किया है जो पाठकीय संवेदना को प्रभावित करता है। शास्त्रीजी के प्रति उनका व्यवहार और महमूद के प्रति गाय बछडे़ का व्यवहार हमारी संवेदना को ओर सघन करता है। वे त्रिशूल के कथा के महत्वपूर्ण चरित्रों की तरह हैं। गाय, बछड़ा और कुत्ता झबुआ महमूद के दुख को समझते हैं।
        शिवमूर्ति की रचनाशीलता वस्तु स्थितियों को पहचान कर उनका सटीक विश्लेषण भी करती है। वे ग्रामीण परिवेश के गहरे जानकार तो हैं ही, प्रस्तुतिकरण में उतने ही बेबाक भी। ऐसे कहानीकारों से ही आशा की जा सकती है कि कहानी को उसकी धुरी से हटने नहीं देंगे और सामाजिक बदलावों को भी अलक्षित नहीं करेंगे।

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