देसवा होई गवा सुखारी हम भिखारी रहि गये : (ओमप्रकाश तिवारी)

कथाकार शिवमूर्ति का उपन्यास  “आखिरी छलांग”  पढने के बाद मन में उठे कुछ विचार –

हिंदी के कहानीकारों और कवियों का यदि सर्वे किया जाए तो पाया जाएगा कि अधिकतर रचनाकार गांव की पृष्ठ भूमिसे हैं या थे। लेकिन इसी के साथ शायद यह तथ्य भी सामने आ जाए कि किसी भी लेखक (अपवाद मुंशी प्रेमचंद) ने ग्रामीण समस्या, किसान समस्या, खेतिहर मजदूरों पर प्रमाणिक, तार्किक और वस्तुपरक रचना शायद ही की है। मुंशी प्रेमचंद ने अपना अधिकतर लेखन इन्हीं विषयों या इनके ईद-गिर्द किया। गोदान और रंगभूमि मुंशी प्रेमचंद के ऐसे उपन्यास हैं जो न केवल किसान, दलित, खेतिहर श्रमिकों की समस्याआें पर केंद्रित हैं, बल्कि यह विश्वस्तरीय रचनाएं हैं। इसके बाद व्यापक फलक पर (मेरी समझ से) जगदीश चंद्र ने इस ओर ध्यान दिया है। लेखक और आलोचक तरसेम गुजराल लिखते हैं कि प्रेमचंद ने गोदान में होरी को छोटे किसान से भूमिहीन मजदूर के रूप में स्थगित होते दिखाया है। इसी तरह जगदीश चंद्र के उपन्यास ‘धरती धन न अपना` उपन्यास में भूमिहीन दलित सामने आया है।` इसके अलावा जगदीश चंद्र के दो उपन्यास ‘नरककुंड में बास` और जमीन अपनी तो थी` उपन्यासों की चर्चा की जाती है। मेरे मित्र अमरीक, जोकि हिंदी साहित्य के खूंखार और प्रोफेशनल पाठक हैं, कहते हैं कि किसानों, दलितों, भूमिहीन श्रमिकों पर जगदीश चंद्र का लेखन सराहनीय है। वैसा लेखन प्रेमचंद के बाद अन्यत्र कहीं दिखाई नहीं देता।

हो सकता है और भी किसी लेखक ने किसानों पर लिखा हो। जो अनदेखा रह गया। अचर्चित रह गया। यह भी हो सकता है कि मैं ही उस बारे में अज्ञान हूं, लेकिन इतना तो सच है कि गांव की पृष्ठ भूमि और किसान पृष्ठ भूमि से आने वाले अधिकतर लेखक इस समस्या की अनदेखी करते रहे हैं। अब लंबे अंतराल के बाद कथाकार शिवमूर्ति का उपन्यास ‘आखिरी छलांग` किसान समस्या पर आया है। ‘नया ज्ञानोदय` के जनवरी 2008 के अंक में प्रकाशित यह रचना अंधेरी सुरंग में किसी रोशनी से कम नहीं है। इस उपन्यास में एक लोकगीत की चर्चा है।
‘देसवा होई गवा सुखारी हम भिखारी रहि गये`

मेरे ख्याल से यही लाइन इस उपान्यासकी जान है। यही इसकी विषयवस्तु भी है। कंटेंट भी। किसानों की दुर्दशा और हालात पर यह लाइन बिल्कुल सटीक बैठती है। इस पंि त को जब मैं पढ़ रहा था तब भारतीय शेयर बाजार हिरण की तरह कुलाचे भर रहा था। अनिल अंबानी धीरूभाई गु्रप की कंपनी रिलायंस पावर का आईपीओ शेयर बाजार में उतारा गया था। दूसरे ही दिन इस कंपनी के प्रारंभिक इश्यू के लिए १४ गुना सब्सक्रिप्शन मिल चुका था। कंपनी द्वारा जारी किये गये 22.80 करोड शेयरों के मुकाबले 315.87 कराे़ड शेयरों के लिए आवेदन प्राप्त हो चुके थे। छोटे-छोटे शहरों के टर्मिनलों में रिलायंस पावर के शेयर खरीदने वालों की भीड उमड़ पड़ी थी। कंपनियों के दफ्तरों में कर्मचारी इसी आईपीओ की बात करते नजर आते रहे। भारतीय शेयर बाजार में ऐसा कमाल पहली बार हुआ। इससे यह समझा जा सकता है कि नौकरीपेशा वर्ग की आय बढ़ी है। देश का एक वर्ग है जो अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के बाद इतना कमा पा रहा है कि वह शेयर बाजार में निवेश कर सके। लेकिन यह वर्ग कितना बड़ा है। यह सोचने की बात है। दूसरी ओर किसान आत्महत्या करने के लिए मजबूर हैं। आज देश में दो तिहाई किसानों हैं, जिनकी रोजी-रोटी का साधन कृषि है, लेकिन अर्थव्यवस्था के विकास में कृषि का योगदान दिनप्रतिदिन घटता ही जा रहा है।
जिस समय रिलायंस पावर के शेयरों को खरीदने के लिए देश का एक वर्ग बेताब दिख रहा था उसी समय भारत में हरित क्रांति के जनक रहे एस.एस.स्वामीनायन किसानों की आर्थिक दशा पर चिंता व्य त रहे थे। उनका कहना था कि भारतीय उप महाद्वीप में मैन्यूफै चरिंग ग्रोथ इस बात का प्रमाण है कि भारतीय कृषि ही एक ऐसा क्षेत्र है जो सबसे अधिक रोजगार मुहैया कराता है। देश में दो तिहाई (लगभग 1.1 बिलियन)लोग अब भी कृषि पर निर्भर हैं। उनकी रोजी-रोटी का एक मात्र साधन कृषि ही है, लेकिन ये सभी सरकार की गलत नीतियों के कारण पूरी तरह से उपेक्षा के शिकार हैं।

कहने का तात्पर्य यह है कि एक तरफ छोटे-छोटे शहरों में एक वर्ग शेयर बाजार की उछाल पर उछल रहा है। तो दूसरी तरफ ग्रामीण भारत प्रतिपल एक ऐसी सुरंग में फंसता जा रहा है कि जिसका कोई ओर-छोर ही नहीं है। किसान आज किसानी नहीं करना चाहता। उसके पास समस्याआें की भरमार है। उसका जीना मुश्किल हो गया। उसकी भावनाआें को यह लोकगीत अच्छी तरह से अभिव्य त करता है। …..’देसवा होई गवा सुखारी हम भिखारी रहि गये।`

किसान भिखारी हो गया है। वह भीख भी नहीं मांग सकता। वह मौत भी मांगता है तो नहीं मिलती। उसे तो सल्फास खाकर जान देनी पड़ती है। फांसी का फंदा लगाना पड़ता है। ऐसे में शिवमूर्ति का उपन्यास बहुत ही मौजू है। लेकिन यह उपन्यास अपेक्षाआें पर खरा नहीं उतरता। शिवमूर्ति जैसे समर्थ कथाकार से ऐसी रचना की उम्मीद मैं तो या शायद कोई भी नहीं करता। सभी जानते हैं कि शिवमूर्ति बहुत कम लिखते हैं, लेकिन जो लिखते हैं वह मील का पत्थर साबित होता है। अफसोस की ‘आखिरी छलांग` उनकी अब तक की शायद सबसे कमजोर रचना है।

हालांकि नया ज्ञानोदय के संपादक रवींद्र कालिया अपने संपादकीय में लिखते हैं कि ‘हिंदी में फैशन के तौर पर ग्राम्य जीवन पर बहुत कुछ लिखा गया है परंतु यह उपन्यास प्रेमचंद के बाद पहली बार भारतीय किसान के जीवन संघर्षों, कठिनाइयों, अंतरविरोधों तथा विडंबनाआें को प्रमाणिक और वस्तुपरक रूप से प्रस्तुत करता है।` संपादक के इस दावे पर यह उपान्यास खरा नहीं उतरता। यही नहीं अपने संपादकीय में किसानों की समस्याआें की जो तस्वीर कालिया जी ने प्रस्तुत की है उसके एक अंश को भी यह उपन्यास नहीं छू पाता।

आज की किसान समस्या बहुत व्यापक है। कोई भी लेखक यदि जल्दबाजी में इस विषय पर लिखेगा तो शायद ऐसा ही लिखेगा। शिवमूर्ति जी ने इसकी रचना प्रक्रिया का उल्लेख किया है। वह यह भी कहते हैं कि इसे मात्र १७ दिनों में लिखा है। यह भी बताते हैं कि जो लिखना चाहा था नहीं लिख पाया। इतनी जल्दबाजी में शायद लिखा भी नहीं जा सकता है। जल्दबाजी की वजह समझ में नहीं आई। लेकिन संतोष की बात यह है कि जल्दबाजी में भी उन्होंने जो लिखा वह संपादक के दावे पर बेशक खरा न उतरा हो, परंतु पाठकों की भावनाआें पर खरा उतरने में जरूर कामयाब होगा। हालांकि रचनाकार किसान समस्या पर लिखने चला था, पर वह बीच में शायद बहक गया और दहेज समस्या में अधिक उलझ गया। कहा जा सकता है कि यह भी किसान की ही समस्या का एक अंश है। जोकि ठीक भी है। लेकिन यदि किसी समस्या का अंश ही कहानी का मुख्य अंश बन जाए तो शायद यह ठीक नहीं कहा जाएगा।

यह भी सच है कि आज की किसान समस्या इतनी व्यापक है कि आप केवल दो-चार पात्रों के माध्यम से उसे अच्छी तरह से नहीं उकेर सकते। ‘आखिरी छलांग` में यही कमी खलती है। इसमें केवल एक मुख्य पात्र है पहलवान। शेष चरित्र इस पात्र की सहायता में आते हैं और चले जाते हैं। उनका विकास नहीं हो पाता। यही कारण है कि पूरी कहानी में पहलवान के बाद ऐसा कोई चरित्र जीवंत नहीं हो पाता।
एक और बात। संपादक रवींद्र कालिया ने इसे उपान्यास कहकर छापा है। संपादकीय में लघु उपान्यास लिखा है जबकि यह एक लंबी कहानी ही हो सकती है। यदि हम इसे उपान्यास मानें और कालिया जी के दावे को खारिज करते हुए एक कहानी के तौर पर पढ़ें तो शायद यह उचित होगा। इससे लाभ यह होगा कि फिर हम रचना में उन दावों को नहीं खोजेंगे, जोकि किया गया है। हम रचना को पढ़ेंगे और जो उसमें है उसके अनुसार उसे सझेंगे। ऐसा करने पर पाठक शायद रचना को बेहतर समझ पाएगा। मुझे लगता है रचना में खराबी नहीं है, बल्कि दावे करके पाठकों की अपेक्षाआें को जो हाइप दी गई है, यह उस पर खरा नहीं उतरता। रचना पर यदि कोई दावा नहीं किया जाता तो तो इसका एक स्वतंत्र फ्रेम बनता, जोकि ज्यादा सार्थक होता।

देखा जाए तो रचना में या नहीं है। रचना की शुरूआत होती है-‘पहलवान ने चरी का बोझ चारा मशीन के पास पटका तो पास में सोया पड़ा कुत्ता चौंककर भौंकते हुए भागा।` इस एक वा य से ही अनुमान लगाया जा सकता है कि किस शैली में और कितने सरल व सहज भाषा में रचना की शुरुआत होती है। यह वा य पूरा होते-होते पाठकों के दिमाग में गांव की तस्वीर उभर जाती है। (जिसने गांव देखा है उसके) पाठक सीधा गांव पहंुच जाता है, और एक किसान की छवि उसके दिमाग में बनती है। कहानी में ऐसे दृश्यों की भरमार है। इसके अलावा देशज और स्थानीय शब्दों का प्रयोग भी सहज-सरल और पात्रानुकूल किया गया, जिससे रचना ग्रामीण जीवन से आसानी से जु़ड जाती है।

हालांकि रचना की पृष्ठभूमि जिस क्षेत्र की है उससे बाहर के पाठकों को इसे समझने में दि कत आ सकती है। मसलन जिन शब्दों को पढ़कर मैं गदगद हो रहा था उन्हीं शब्दों को मेरे मित्र अमरीक अपनी डायरी में नोट कर रहे थे मुझसे पूछने के लिए। रचना की भाषा-शैली बेजाे़ड है। प्रवाह भी देखते-पढ़ते ही बनता है। हां, कहीं-कहीं पर किसी-किसी पात्र से ऐसी बौद्धिक बातें कहलवाई गईं हैं जो गले की नीचे नहीं उतरतीं और खटकती हैं। विश्वास भी नहीं होता। साफ लगता है कि लेखक अपना ज्ञान उड़ेल रहा है।

पत्रिका के संपादक के दावे को दरकिनार करके यदि इसे पढ़ा जाए तो यह एक अच्छी कहानी है। मैं इसे किसान समस्या से अधिक दहेज समस्या पर आधारित कहानी मानता हंू। हालांकि यह मेरी अपनी समझ हो सकती है। समझने की मेरी अपनी सीमाएं हैं। लेकिन इसे पढ़ने के बाद जो महसूस किया वह यहां व्य त कर दिया। इतना जरूर कह सकता हंू कि किसानों की समस्या पर यह रचाना एक शुरुआत भर है, जो बंद नहीं होनी चाहिए। उम्मीद है कि शिवमूर्ति जी किसान समस्या पर एक बेहतर रचना के साथ सामने आएंगे। उन जैसे लेखक से ऐसी उम्मीद की जा सकती है।

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