लेखकों, आलोचकों ने मिलकर भगाया पाठकों को : (शिवमूर्ति)

किस्सागोई  वाच्य-श्रवण विधा से निकलकर कथा-कहानी लेखन और पाठन परंपरा में प्रवेशित एवं संस्कारित हुई। व्यापकता और स्थिरता में वृद्धि हुई। राजा-रानी और हाथी-घोड़े के पटल को त्याग कथा-साहित्य ने एक ठोस और मुकम्मल जमीन तलाश किया। परी कथाओं के कल्पना-लोक से उतरकर इसने जमीन से अपना संबंध स्थापित किया, अपनों को स्पर्श किया। व्यापकता, स्थिरता के साथ-साथ गहराई भी बढ़ी। नई दिशा, एक नये सोच का विकास हुआ। कथा साहित्य एक ऐसी डगर पर चल पड़ा, जिसे लगा कि यह उच्च भूमि प्राप्त कर सकेगा। पर दूर जाती हुई सड़क जैसे दृष्टिपथ में क्षीण होती जाती है, वही अवस्था इस साहित्य-सड़क की हो गई। भूत और वर्तमान की साहित्यावस्था पर एक सापेक्ष दृष्टि डालने से ऐसा लगता है कि गुजरते समय के साथ जाता हुआ साहित्य क्षीण होता जा रहा, कुछ खोता जा रहा है। पूर्व कालिक साहित्य में ऐसा कुछ अवश्य था जो हमें अब नही मिल पा रहा है। दिन प्रतिदिन कुछ अवश्य छूटता जा रहा है। साहित्य का वह लोकप्रिय रूप अब क्यों नहीं रहा या बन पा रहा, यह विचारणीय प्रश्न है। होना तो यह चाहिए था कि जैसे-जैसे साक्षरता बढ़ी, मानव ने तथाकथित सभ्यता की सीढ़ियां चढ़ीं, संचार एवं प्रसार के माध्यम बढ़े, साहित्य के प्रति लोगों का रुझान बढ़ता पर पूर्वकालिक और तात्कालिक स्थिति को देखते हुए हम कह सकते हैं कि आज साहित्य के भविष्य पर प्रश्नचिह्न लगता दिखाई दे रहा है। जब साक्षरता और लोगों की माली हालत वर्तमान की अपेक्षा निम्न थी, प्रत्येक गांव में दस-पंद्रह सुधी पाठक अवश्य थे, व्यक्तिगत पुस्तकालय थे जो बिना किसी सरकारी सहायता के सीमित आर्थिक स्रोतों के बल पर चलते थे। मैंने अपने बचपन में उन पुस्तकालयों से पुस्तकें लेकर पढ़ी हैं। आज वैसे पुस्तकालय कहां और कितने मिलेंगे?
आज हिंदी साहित्य पर पाठकीय समस्या के संकट का जो बादल मंडरा रहा है, वह क्यों है? ऐसा भी नहीं है कि हिंदी कथा के पाठकों की संख्या घटी है (जैसा कि साहित्यकार बंधु रोना रोते हैं)। बाजारू उपन्यासों, सत्यकथाओं की संख्या का लगातार बढ़ना यह स्पष्ट करता है कि कथा विधा के प्रति पाठकों का रुझान कम नहीं हुआ है। माया, इंडिया टुडे आदि द्वारा प्रायोजित राजनैतिक कथाएं लोकप्रिय होने के पीछे भी यही कारण है। फिर क्या कारण है कि हमारा पुराना संस्कारी कथा-पाठक ही लुप्त हुआ अथवा उसका असंस्कारी बाजारू पठक के रूप में कायांतर हो गया।
इस समय पर विचार करने के लिए हमें कथा साहित्य के दोनों स्तंभों की भूमिका पर अलग-अलग विचार करना पड़ेगा।
कहानीकारः साहित्य स्वतःस्फूर्त और प्रेरित अंतरात्मा की आवाज है। साहित्यकार अपने साहित्य सृजन से पाठक को तभी आह्लादित कर सकता है, जब साहित्यकार ने स्वंय उस आह्लाद-स्रोत का पूर्णरूपेण रस पान किया हो। उससे एकाकार हुआ हो। आज जिन समस्याओं को लेकर कहानीकार अपनी कलम मांजता है, उस समस्या को भोगने-झेलने की कौन कहे, आत्मसात भी नहीं किए होता। समस्या या कथावस्तु का उसे प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता। अधिकांश लेखक ऐसे मिलेंगे जो सुनी-सुनाई और पढ़ी हुई समस्या को अपनी कथावस्तु के रूप में चुनते हैं। एअर कंडीशन रूम में डनलप के गद्दे पर स्कॉच और पैकेटों के बीच धंसकर कोई खेत-खलिहान, गांव की मचलती पुरुवा-पछुवा का सजीव चित्रण कैसे कर सकता है? यथार्थ की बात छोड़िये, कल्पना का भी कोई न कोई आधार होता है। आज अधिकांश साहित्य जो लिखा जा रहा, उसका आधार अनुवहीनता पर टिका है। शायद इसलिए आज के साहित्य में वह मौलिकता वह ‘चामिंग पावर’ नहीं आ पा रही है, जो पूर्व समय के साहित्य में विद्यमान रहती थी। हम पाते हैं कि ज्यादातर कहानीकारों की कहानियां रक्ताल्पता या हठवादी सिद्धांतवादिता की शिकार हैं। ये सिद्धांत और व्यवहार में सामंजस्य स्थापित करने की चेष्टा नहीं करते। इसमें जीवन रस नहीं दिखता, जीवन अनुभव नहीं दिखता। इन्हें पढ़ने से लगता है कि हमारे आज के लेखकों में अनुभव का दायरा अत्यंत संकीर्ण हो चुका है। जिस समाज में हमारे लेखक रहते हैं, उसकी समस्याओं, उन स्रोतों में अंतर्निहित जीवन रस को खींच सकने और उसे सशक्त ढंग से अभिव्यक्त करने की क्षमता में कमी आई है। आज हालत यह है कि पाठक अपने लेखकों से दुखी हो गया है। लेखक कहता है कि उसका दुख आलोचकों से है (इसके विपरीत भी कहा जा सकता है)। इसलिए एक बड़ा लेखक वर्ग अपने आकाओं (?) की अच्छी धारणाओं के लिए पाठक और उसकी प्रतिक्रिया को नजरअंदाज कर जाता है।
पुराने लेखक कथा-तत्व के महत्व को, शिल्प के महत्व को कथा की प्रासंगिकता के महत्व को और जिंदगी से जुड़ाव को जो महत्व देते थे, आज वैसा नहीं हो पा रहा है। अगर लुप्त प्राय संस्कारी पाठक पुनः पैदा करना है, असंस्कारी तथा मीडिया के चंगुल में फंसे पाठकों को मुक्त कराकर साहित्यिक क्षेत्र में लाना है तो लेखकों में उतनी ही निष्ठा जरूरी है, जितनी कछ कट्टर संगठनों के सदस्यों में देखी जा रही है। तभी तिल-तिल करके नामालूम ढंग से डूब रहा यह साहित्य का जहाज बचाया जा सकता है। आज कहानी में सिद्धांत रूपी ‘कुनैन’ इतनी ज्यादा कर दी गई है कि आम पाठक भड़क गया है। इन सिद्धांतवादी कथाकारों ने अपनी सिद्धांतवादी टिकिया को शुगर कोटेड करने की जरूरत भी नहीं महसूस की। इसी का परिणाम पाठकों के अभाव के रूप में हम भुगत रहे हैं।
यह तो रही आम पाठक की बात। हम लेखक लोग कितने सजग हैं पढ़ने के प्रति, यह भी विचारणीय है। हिंदी में नये-पुराने मिलाकर दस हजार लेखक तो होंगे ही (इनमें लेखक, कवि, आलोचक तथा सैकड़ों विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों के हिंदी की रोटी खाने वाले प्राध्यापकों को शामिल माना जा रहा है)। हिंदी की पत्रिकाओं, कथा संकलनों और उपन्यासों के किफायती संस्करणों (हार्ड बाउंड की जाने दीजिए) की कितनी प्रतियां इनके द्वारा खरीदी जा रही हैं/पढ़ी जा रही हैं? यदि केवल लेखकगण ही पत्रिकाएं खरीदने लगें तो भी पत्रिकाओं के समक्ष उपस्थित संकट समाप्त हो जाय। किंतु इतना भी आज हमसे नहीं हो पा रहा है।
आलोचकः आज के कुछ आलोचकों के क्रिया-कलाप और सोचने के तौर-तरीके देखकर यह संदेह शेष नहीं रह जाता कि आलोचक अपने को सुपर साहित्यकार मानने लगा है। ज्यादातर आलोचकों को यह मुगालता है कि वे लेखक निर्माता हैं। उनके गाड फादर हैं। जबकि हकीकत इसके विपरीत है। आज के आलोचकों का पढ़ने-लिखने से छत्तीस का रिश्ता बनता जा रहा है। व्यक्तिगत बातचीत में यह बात खुलकर सामने आयी है कि जब उन्हें किसी कहानी के बारे में कोई बताता है तो उसे देखते हैं और कभी-कभी तो बिना देखे (पढ़ने की कौन कहे) वह उसका नामोल्लेख सुनी-सुनाई प्रतिक्रिया अथवा अपने आग्रह के अनुरूप कर देते हैं। क्या आलोचक की यही जम्मेदार है?
कोढ़ में खाज की भूमिका निभा रही स्वजनवादी आलोचना की प्रवृत्ति। यह प्रवृत्ति बीते युग के चारणों की याद दिलाती है- बीसवीं सदी के चारण। इन आलोचकों ने स्वजनों की एक सूची बना रखी है। ये केवल उन्हें और उनकी रचनाओं पर अपनी जुबान खोलते हैं। अन्य लोग क्या लिख-पढ़ रहे हैं, इसको पढ़ने-जानने की उन्हें जरूरत नहीं महसूस होती। अन्य रचनाओं और रचनाकारों को तो बिना देखे कूड़ा-कबाड़ करार देते हैं।
क्या लिखना चाहिए- अधिकांश आलोचकों का इस पर ज्यादा जोर है बजाय इसके कि जो लिखा गया है, उसके गुण-दोष का विवेचन करें। चने के बेसन से सत्तू भी बनता है और लड्डू भी। दोनों ही लोकप्रिय हैं. लेकिन प्रायः आलोचक लड्ड खाते हुए सत्तू के फायदे बताते हैं और यदि लेखक ने सत्तू परोसा है तो लड्डू न खा सकने का विलाप करते हैं। यदि आलोचकों ने अपनी सही भूमिका निभाई होती तो पाठकों का संकट हल करने में कथा साहित्य काफी हद तक सफल हुआ होता।
आगे हमारे कथा साहित्य का भविष्य क्या होगा, यह बहुत हद तक हमारे लेखकों और कुछ हद तक हमारे आलोचकों की भूमिका पर निर्भर करता है। प्रकाशकों की जड़ में मट्ठा डालने वाली कुप्रवृत्ति पर अलग से आलेख आवश्यक है।

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