यह आलेख सर्वप्रथम साहित्यिक पत्रिका बया के दिसम्बर ०६ के अंक में प्रकाशित हुआ था। पाठकों के लिए यहां प्रस्तुत –
एक लेखक के रूप में हमारी चिंता क्या होनी चाहिए? उससे भी पहले एक नागरिक के रूप में हमारी चिंता क्या होनी चहिए?
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हमारा समाज बहुत पहले से दो हिस्सों में बँटा रहा है। बहुत छोटा हिस्सा सब तरह की सुख-सुविधा और विशेषाधिकारों का भोग करता तथा एक बड़े़ समूह के हिस्से का सुख-चैन हड़पता हैं बड़ा हिस्सा यदा-कदा इसके विरूद्ध उठाते हुए हर तरह का अन्याय और दु:ख झेलता-भोगता सहता आया है। राजाओं-महाराजाओं और उससे भी पहले कबीलाई सत्ता से लेकर आज के इस आधुनिक कहे जाने वाले दौर तक यह उसी तरह जारी है। सिर्फ उसका रूप बदलता रहा है।
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व्यक्ति जिस वर्ग या वर्ण में पैदा होता है उसी की सोच, आदर्श व आकाँक्षाओं को क्रमश: अंगीकार कर लेता है। समाज से उसे जो मान-सम्मान, तिरस्कार-घृणा-प्यार, हिंसा या भय मिलता है, वही उसके अवचेतन का हिस्सा बनता चलता है। प्राय: बदले में वह इन्हीं संवेगों को समाज के लिए वापस करता है। लेकिन विवेकवान होने के चलते वह यदाकदा इसके औचित्य-अनौचित्य पर भी चिंतन करता है। तब राजा के आँगन में पलनेवाले की नियति बुद्ध बनने में हो जाती है। हिरण्य कश्यप के घर प्रहलाद फलता-फूलता है। नगर सेठ के घर में भारतेन्दू का विकास हो जाता है। लेखक के हिस्से में आमजन की अपेक्षा जो भाव अधिक प्रबल माना जाता है, वह है संवेदना। इसी के चलते वह समाज में व्याप्त दु:ख-दर्द, अन्याय व शोषण को ज्यादा गहरायी से महसूस करता और प्रतिक्रिया करता हे। इसी के चलते वह अपने वर्ग के मूल्यों का अतिक्रमण करते हुए भी शोषित-पीड़ित आमजन की चिंता और सरोकार से खुद को जोड़ लेता है।सत्ता पक्ष के हितों के विरूद्ध खड़ा होना एक लेखक के लिए सदैव ही मँहगा पड़ता रहा है। अपने लेखन की सुरक्षा कर पाना उसके लिए कठिन होता रहा है। इसलिए वर्गांतरण करके आमजन के पक्ष में खड़े होने वाले लेखकों के उदाहरण कम ही मिलते हैं। इसके विपरीत आमजन के बीच से निकले बहुत से ऐसे लेखक मिल जाएँगें जिनके लिए सत्ता की सुरक्षा और सम्मान ही काम्य हो गए। वे सत्ता के प्रवक्ता और उनको रिझाने वाले बन गए। जनता से कट कर दरबारी हो गए। शाल-दुशालों और मोहर-असर्फियों की चकाचौंध में पड़ गए। संस्कृत साहित्य से लेकर रीतिकाल तक के कवियों पर नजर डालें, तो पाते हैं कि उस समय के उन्हीं लेखकों-कवियों का लेखन सुरक्षित रह सका तथा सम्मान पाता रहा जो या तो राज-सत्ता की गोद में बैठ गए या धर्म-सत्ता की। वे चाहे कालीदास हों, केशव, बिहारी हों या तुलसी। इसके विपरीत आमजन के प्रवक्ता के रूप में मध्यकाल के जो नाम बच-बचाकर हम तक पहुँचते हैं उनमें मुख्य हैं कबीर। एक दो और भी। इन्हें गहरे द़फन करने का कम प्रयास नहीं हुआ। लेकिन इनका अपना संगठन तंत्र इतना मजबूत था और वे जन मानस में इतनी गहरायी तक गड़ गए थे कि उखाडे़ नहीं उखडे़। इतने लंबे कालखंड में क्या गिनती के यही दो-चार नाम रहें होंगे? बा़की की रचनाएँ कहाँ हैं? क्या संस्कृत साहित्य में ऐसे जन पक्षधर कवि न रहे होंगे? आज उनका साहित्य कहाँ है? सत्ता पक्ष से न जुड़नेवाले एक संस्कृत कवि ने एक श्लोक में अपनी दुर्दशा, टूटी झोंपड़ी, चूती-छाजन, पैबंद लगी लुगरी पहने अपनी गृहणी और अन्न के अभाव मं ठंडे पडे़ चूल्हे के आस-पास दाँत किटकिटाते दौड़ लगाते चूहों का वर्णन करते हुए लिखा है कि हे राजन! मेरा घर ठीक वैसा ही है जैसा कि राजा के विरोधी कवि का होना चाहिए।
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जहाँ राजा की चाटुकारिता करनेवाले दस दरबारी कवि रहे होंगे, वहाँ दो-चार जनकवि भी रहे होंगे। उनकी रचनाएँ कहाँ गईं? राजा, चाटुकार, दरबारियों आदि का उपहास करनेवाले रहे भी होंगे तो राजा के कोप से बचने के लिए वे छद्म नाम का सहारा लेते रहे होंगे। कया शूद्रक किसी विद्वान कवि का वास्तविक नाम हो सकता है? प्रभुवर्ग की प्रशंसा करनेवाली, उनका मनोरंजन करनेवाली रचनाओं को सहारा गया, सुरक्षा दी गई और प्रश्न खड़ा करनेवाली, विद्रोह जगानेवाली रचनाओं को दबाया गया।
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इस लिहाज से लेखक की स्थिति पहले की अपेक्षा आज निश्चय ही बहुत अच्छी है। उसके सामने नष्ट कर दिए जाने, कूड़े में डाल दिए जाने का फतवा झेलने-जलाने या प्रतिबंधित कर दिए जाने के खतरे नगण्य हो गए हैं। एक तरह से देखा जाए, तो प्रचार-प्रसार के साधनों की दृष्टि से, सुरक्षा व सम्मान की दृष्टि से या लेखकों की अस्मिता के अक्षुण्ण रह पाने की दृष्टि से यह अत्यंत सुरक्षित समय है। बाहय परिस्थितियाँ भी इतनी प्रतिकूल नहीं रह गई हैं कि राजाश्रय या सेवाश्रय के बिना वह भूखों मर जाएगा। आज के लेखक का संकट बाहय की अपेक्षा आंतरिक अधिक है। उसे पहले अपने से ही लड़ना है। अपना पक्ष निश्चित करना है।
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क्या होनी चाहिए आज के लेखक की चिंता? क्या उसकी सीमा बंद कमरे में बैठकर केवल कागज काले करने तक ही सीमित होनी चाहिए या आज के समाज के सामने जो चुनौतियाँ हैं उनसे जुझते संघर्षशील लोगों के साथ बाहर निकलकर भी शामिल होना चाहिए? क्या हैं आज की चुनौतियाँ और कौन हैं उनसे जूझने वाले लोग?
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जब किसी व्यवस्था के विकास के दिन होते हैं, तो उसके नागरिकों में निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर सामूहिक हित के लिए कार्य करने की भावना प्रमुख होती है। व्यक्तिगत नैतिकता का हास होने तथा निजी स्वार्थ की भावना प्रबल होने पर इन संस्थाओं में क्षरण शुरू हो जाता है। सामाजिक न्याय पर आधारित समतामूलक समाज बनाने के उदेश्य से गठित प्रजातंत्र के चारों पाये आज निरंतर क्षरण की ओर अग्रसर हैं। इनमें भ्रष्टाचार की, भाई भतीजावाद की दीमक लग चुकी है। कल्याकारी राज्य जनता के लिए अकल्याकारी सिद्ध होने लगी हैं। विधायिका में ऐसे लोग चुनकर आने लगे हैं जिनकी जगह सीखचों के पीछे है। नौकरशाही रीढ़हीन साबित हो रही हे। वह अपने को सहर्ष राजनीतिकों और मल्टीनेशनल के पैरों की जूती बनने के लिए प्रस्तुत करने लगी है। न्यायपालिका बहुत दिनों तक आम आदमी की आशा, आदर और आस्था का केंद्र रही है, लेकिन पिछले कुछ समय से आस्था के इस स्तंभ में दरारें दिखने लगी हैं। न्याय की शक्ति से रहित कानून कितने दिन तक प्रभावी बना रह सकेगा? दृश्य मीडिया जितना प्रभवशाली हुआ, उससे कई गुना गैर-जिम्मेदार और पतनशील हो गया।
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इस प्रकार लोकतंत्र के चारों पाये आज प्रश्न-चिन्ह के घेरे में हैं। यही कारण है कि जिस ग्रामीण किसान, भूमिहीन और मजदूर की बेहतरी का सपना जमींदारी प्रथा के उन्मूलन के साथ देखा गया था, उसमें सेंध लग गई। स्वप्न दिखाया गया था कि धन और धरती बँटेगी। हर भूमिहीन को जमीन का टुकड़ा मिलेगा। इसके लिए सीलिंग कानून लाया गया। लेकिन इसकी हद में वही लोग आ रहे थे जो राजनैतिक रूप से तब प्रबल थे। इसलिए इस एक्ट में इतने छेद किए गए कि इसकी सारी हवा निकल गई। इतनी सरकारें आईं और गईं, किंतु भूमिहीन का भूमि पाने का सपना सपना ही रह गया। जो थोडे़ बहुत पट्टे दिए भी गए, उन पर बीसों-तीसों बरस बीत जाने के बाद भी कब्जा नहीं दिलाया गया। यह जमीन आज भी दबंगों के चक का हिस्सा बनी हुई है। इस पर कब्जे के लिए संघर्ष करनेवालों के घर जलाए जाते हैं, हाथ-पैर तोडे़ जाते हैं। पुलिस ऐसे संघर्ष में सदैव भू-स्वामियों के पक्ष में खड़ी दिखाई देती है। संघर्ष करने, आंदोलन करने वालों को नक्सलाइट, अराजक, आतंकवादी तक का ठप्पा लगाकर जेलों में ठूँसा जाता है। फर्जी इनकाउंटर में मारा जाता है। ऐसे में एक लेखक की क्या भूमिका बनती है?
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स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जो योजनाएँ ग्रामीण जनता के कल्याण के लिए बनाईं गईं वही उनके गले की फाँस साबित हुईं। ट्रैक्टर का लोन लेने वाले बडे़ किसान तो उस कर्ज के अर्थशास्त्र को न समझ पाने के कारण सत्यानाश को प्राप्त हो रहे हैं। उनके खेत नीलाम हो रहे हैं। वे आत्महत्या कर रहे हैं, बडे़-बडे़ योजनाकार इसे क्यों नही समझ पाए? बुद्धू से बुद्धू आदमी भी समझ सकता है कि जिस बाजार में फसल तैयार होन पर आलू, प्याज और टमाटर का भाव गिरकर तीन, दो और एक रूपए किलो हो जाता हो और किसान के घर से निकलते ही तीन-चार महीने के अंदर इनका भाव बढ़कर दस-बारह या सोलह रूपए हो जाए उस अर्थव्यवस्था में किसान फाँसी लगाने पर मजबूर नहीं होगा, तो क्या करेगा? जहाँ गेहूँ और धान की उत्पादन लागत-15-16 रूपए किलो आती हो ओर बेचना 6-7 रूपए किलो में पड़ता हो, उस दुनिया में वह कितने दिन जिएगा? किसानों की प्रजाति के दुनिया से उछिन्न होने में इतनी देर क्यों लग रही है?
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कर्ज और सब्सिडी की योजनाओं ने किसानों के दु:ख को उसी तरह बढ़ाया जैसे कोढ़ में खाज बढ़ाती है। गाँव का गाँव फर्जी लोनिंग के चक्रव्यूह में फँसा हुआ है। चार-छ:-दस साल पहले कभी कोई सरकारी अमला आया। अनुदान देने का लालच देकर फोटो ओर अँगूठा-हस्ताक्षर ले गया। अब वसूली आई है। अमीन कहता है- तुमने भैंस के लिए कर्ज लिया। ट्यूब बेल के लिए कर्ज लिया। अदा क्यों नहीं करते?
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-मैंने कोई कर्ज नहीं लिया सरकार।
-यह फोटो किसकी है? यह अँगूठा निशान?
-मेरे हैं सरकार।
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-तब कैसे इंकार करते हो? ‘रिसीविंग’ पर अँगूठा लगाए बैठे हो और कहते हो….। ले चलो इन्हें हवालात की हवा खिलाने।
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त्राही-त्राही मची हुई है। पता नहीं कब कौन आए और पकड़कर ले जाए… इस फर्जीवाडे़ के खिलाफ कोऔ शिकायत सुनने वाला नहीं। जो समाजसेवी इनकी मदद के लिए आगे आते हैं, उन्हें देखकर सरकारी अमला आँख निकालता है, कहाँ से चले आए खैरख्वाह बनकर?
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इस दुर्दशा के लिए जिम्मेदार लोगों को पहचानने और पहचान कराने पर इनके विरूद्ध लामबंद होने के प्रति वे उदासीन हैं। इसके बजाय वे अपनी मुक्ति भगवती जागरण, अखंड पाठ और तिलक-त्रिशूल में खोजते हैं।
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कहते हैं, प्रजातांत्रिक व्यवस्था में जनता की उदासीनता सैनिक तानाशाह की स्वैच्छाचारिता से ज्यादा नुकसानकारी होती है। ऐसे सोते हुए समाज को जगाने से ज्यादा बड़ी चुनौती एक लेखक के सामने दूसरी क्या हो सकती है?
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हमारी चिंता का विषय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पैर पसारती अमेरिका की दादागिरी भी है और तेजी से फैलता आतंकवाद भी। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सर्वग्रासी नीतियाँ भी परमाणु बम के खतरे भी। किन्तु भौगोलिक दूरी और राजनीतिक सीमाओं के चलते इनके विरूद्ध हम केवल वैचारिक और नैतिक विरोध ही दर्ज कर सकते हैं। किन्तु देश के विभिन्न हिस्सों में सरकारों द्वारा जबरदस्ती कराया जा रहा विस्थापन, मानवाधिकारों का हनन, मूलभूत जरूरतों से आमजन को महरूम किया जाना आदि ऐसे सैंकड़ो मुददे हैं जो हमसे सक्रिय भागीदारी की अपेक्षा करते हैं।
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बहुत सारे लोग, बहुत सारे संगठन देश के अलग-अलग हिस्सों में अपने-अपने ढंग से इन ज्यादतियों और अन्याय के विरूद्ध संघर्ष कर रहे हैं। पर जिनकी बेहतरी के लिए वे जूझ रहे हें उनकी उदासीनता और विरोधी शक्तियां तथा राजसत्ता का दबाव इनके संघर्ष की धार को निरंतर कुंद करने का प्रयास कर रहे हैं। शांतिपूर्ण तरीके से चलाये जा रहे इनके आंदोलनों को लाठी-गोली की ताकत से कुचला जा रहा है। बेहतरी के लिए परिवर्तन की कामना से चलाये जा रहे इन जनांदोलनों में जूझनेवाले लोगों के अंदर जलने वाली प्रतिरोध की यह आग बहुत मूल्यवान है। इसको प्रज्वलित रखने, तेज करने का उपाय ढूँढ़ना ही आज का हमारा सबसे महत्वपूर्ण उदे्श्य होना चाहिए। दूर खड़े होकर ऐसे संघर्षशील लोगों के प्रति सहानुभूति प्रकट कर देना या कागजी सहयोग दिखाना मात्र ही आज के लेखक का दायित्व नहीं हो सकता। उसके सामने बहुत बड़ी चुनौती खड़ी ललकार रही है। जागकरण और प्रतिरोध के इस अभियान में उसे सशरीर शामिल होना होगा ताकि झेलते-भोगते जन की पीड़ा उसके लेखन में जीवंतता के साथ अभिव्यक्त हो सके और इसमे लगे लोगों को अपना अभियान जारी रखने के लिए ऊर्जा प्राप्त हो सके।