कहानी प्रत्रिका कथादेश ने अपने परिवेश और रचना प्रक्रिया पर मैं और मेरा समय शीर्षक से विभिन्न लेखकों की लेखमाला शुरू किया था मेरा आलेख ‘समय ही असली श्रष्टा है’ शीर्षक से अगस्त, सितम्बर तथा अक्टूर २००३ में प्रकाशित हुआ था।
मैं और मेरा समय
समय ही असली स्रष्टा है
गतांक से आगे ………..
……दिमाग के कम्प्यूटर में कोई सेलेक्टर लगा रहता होगा। तभी तो एक ही दृश्य या अनुभव एक के लिए रोजमर्रा की सामान्य घटना होती है और दूसरा जिसे स्मृति में सुरक्षित कर लेता है। स्मृति का भाग बन चुके अनुभव या दृश्य में वक्त गुजरने के साथ मन अपनी इच्छा या कामना के अनुसार परिवर्तन करता रहता है। कालांतर में इस परिवर्तित दृश्य को ही वह खुद भी असली दृश्य मानने लगता है। आपको एक बार स्कूल में दो-तीन लड़कों ने घेर लिया था। आपके मुंह से एक शब्द नहीं निकला था। घिग्घी बंध गयी थी। आप डर कर कांपने लगे थे, लेकिन बाद में आपको लगा कि आपने भी उन्हें ललकारा था। बहुत बाद में कई बार सोचने पर आपको लगने लगा कि आपके तेवर देखकर ही तो वे लड़के डर कर पीछे हटे थे। बहुत सारे संवाद भी याद आते हैं, जो उस वक्त किसी ने नहीं सुने लेकिन अब आप गर्व से उन्हीं लड़कों को सुनाते हैं तो वे असमंजस में हुंकारी भरते हैं क्योंकि वे उस घटना को भूल चुके हैं।
बाद का देखा-सुना बहुत कुछ भूल जाता है लेकिन कोई खास दृश्य, कोई रंग, स्वाद, गंध, वाक्य, बिंब, मुस्कान, कनखी, चितवन, भंगिमा, चाल सुरक्षित रह जाती है। यह बस लेखकीय ‘स्व’ की पूंजी बनते चलते हैं। यह प्रक्रिया कभी-कभी दुर्घटना के रूप में भी सामने आती है। तब, जब किसी अन्य लेखक की पढ़ी हुई किसी रचना का प्रिय दृश्य या सोच कालांतर में अपना सोचा हुआ लगने लगता है। अवचेतन का अंश बन जाता है और बाद में अपनी किसी रचना में उतर आता है।
बचपन और किशोरावस्था में मन की स्लेट एकदम साफ और नयी-निकोरी रहती है। उस समय का देखा-सुना पूरी तरह जीवंत और चमकीले रूप में सुरक्षित रहता है। शायद यही उम्र होती है मन में लेखकीय बीज के पड़ने और अंकुरित होने की।
प्रेम, ममत्व, स्नेह और प्यार प्राप्ति के क्षण लंबी अवधि तक साथ देते हैं। एक मुराइन अइया (दादी) थीं। उनके द्वारा फूल के कटोरे में दी हुई मटर की गाढ़ी दाल (तब रोज-रोज दाल खाने को नहीं मिलती थी।) का रंग, स्वाद और गंध तीनों स्मृति में एकदम टटकी हैं। याद करते ही उनकी महक नासापुटों में महसूस होने लगती है। ‘भूख लगी है? सिर्फ दाल ही तो है, ले।’ कटोरा पकड़ाते हुए उनकी आंखों में उतरा ममत्व और तनिक हंसी के बीच दिखने वाले उनके सोने-मंढ़े दोनों दांत। एक तिवराइन (तिवारी का स्त्रीलिंग) अइया थीं। स्कूल से लौटने पर घर में खाने के लिए कुछ न होता या मां ताला लगाकर कहीं गयी होती तो मैं चारपाई के पाये में बस्ता लटकाकर तिवराइन अइया के घर की ओर सिधारता। बिना कुछ कहे-पूछे वे मेरी भूख देख लेतीं। रज्जू बुआ को आवाज लगातीं- एक मूठी दाना दै द्या बेटौना का। भुखान होये। फिर पूछतीं- बड़की (मेरी मां) नहीं है क्या घर में? अमीर नहीं थीं अइया। गरीबी के चलते ही तेवारी दादा का विवाह नहीं कर सकीं। पर दिल दरिया था। बड़े-से आंगन के कोने में स्थित फूस के ओसारे के नीचे पड़ी चारपाई पर बैठी उनकी बूढ़ी काया। बाहुमूल और कमर की लटकती झुर्रीदार चमड़ी। लंबे लटकते स्तन, जिन्हें ढंकने की उतनी तत्परता अब नहीं थी। जब इनमें दूध भरा रहता रहा होगा, तब ये कितने भारी रहे होंगे। इतना दूध पीने के चलते ही तेवारी दादा इतने भारी भरकम हैं। मेरी मां की छातियां इतनी बड़ी नहीं थीं। शायद तब मुझे इसका अफसोस भी रहा हो। मैंने एक बार उससे पूछा था- एक-एक सेर दूध होता रहा होगा तिवराइन अइया को, क्यों मां? मुझे तो अपनी वह जिज्ञासा भूल ही चुकी थी। अभी पिछले महीने मां आयी थी। मैं एकांत में फुरसत से उसके पास लेटा उसकी स्मृति से कुछ निकालने का प्रयत्न कर रहा था। तभी बातों-बातों में मां ने बताया। इतना तो मुझे याद है कि बचपन में जब भी किसी स्त्री को देखता, मन ही मन उसके स्तनों की तुलना मां के स्तनों से करता था। एकाध वरिष्ठ महिला लेखिकाओं के प्रति मेरे मन में इसलिए और भी ज्यादा आदरभाव है क्योंकि उन्हें देखकर इस संदर्भ में तिवराइन अइया की याद ताजा हो जाती है।
एक गाय थी। रात की रोटी उसे मैं ही देता था रोज। हम लोग एक-दूसरे को बहुत चाहते थे। एक दिन स्कूल से लौटा तो पता चला कि वह तो बिक गयी। गांव में ही बिकी थी। मैं बहुत रोया। शाम को रोटी लेकर उससे मिलने गया। उसने अंधेरे में भी दूर से पहचान लिया। हुं-हुं करने लगी। मैं उसके आगे बैठकर उसकी लिलरी (गले की नरम लटकती चमड़ी) सहलाने लगा। वह मेरे बाल चाटने लगी। सारे बाल गीले हो गये। बहुत दिन बीते। बयालीस साल बीत गये, लेकिन उस गोलेपन की ठंडक आज भी महसूस होती है।
अपमान, खतरा या आसन्न मृत्यु की स्मृतियां तो जीवन भर साथ देती हैं….एक बार हत्या करने के लिए पकड़ कर कोठरी में बंद कर दिया गया था। दोनों हाथ पीछे बंधे थे। पैर बंधे थे। मुंह में कपड़ा ठुंसा हुआ था। अंधेरी कोठरी में एक कोने में डाल दिया गया था कि रात गहरा जाये तो मारा जाय। इस अनुभव से गुजरे होने के कारण ही शायद कथाकार देवेंद्र के उसी उम्र के बेटे की हत्या से संबंधित कहानी ‘क्षमा करो हे वत्स’ पढ़ कर मैं उस दिन अपने कमरे से बाहर नहीं निकला। रोता ही रह गया था दिन भर।
उत्तर प्रदेश में अभी कुछ वर्ष पहले तक खसरा नामक भू-अभिलेख में यह प्रविष्टि करने का प्रावधान था कि किसके खेत पर किसका कब्जा है। लोक मानस में इसे ‘वर्ग नौ’ दर्ज करना कहते थे। जमींदारी उन्मूलन के पहले और बाद में भी खेत के मालिक बड़े किसान और छोटे जमींदार अपना खेत सालाना पोत या लगान लेकर भूमिहीन किसानों को जोतने के लिए दे दिया करते थे। ये भूमिहीन किसान प्रायः पिछड़ी अथवा अनुसूचित जाति के होते थे। यदि किसी खेत पर किसी जोतदार का कब्जा बारह वर्षों तक प्रमाणित हो जाय तो उस खेत पर कब्जेदार को स्वामित्तव प्राप्त हो जाता था। पर पटवारी को मिलाकर बड़े किसान कब्जेदारों का कब्जा खसरे पर दर्ज करने से प्रायः बचा लेते थे। जमींदारी उन्मूलन के बाद पोत-लगान देकर खेत जोतेने वालों का वास्तविक आंकड़ा निकालने तथा उन्हें स्वामित्व प्रदान करने के उद्देश्य से वर्ग-9 दर्ज करने के लिए विशेष अभियान चलाया गया। इसकी भनक लगने पर बड़े किसानों ने जोतदारों को खेतों से बेदखल करना शुरू कर दिया। बड़े किसान व जमींदार ज्यादातर ठाकुर थे। गांव में उनका दबदबा और आतंक था। उनकी तुलना में जोतदार हर प्रकार से कमजोर थे। इसलिए बेदखली का विरोध करने का किसी को साहस नहीं होता था। मेरे पिताजी भी गांव के एक ठाकुर के कुछ खेत पोतऊ (पोत पर) लेकर जोतते आ रहे थे। उस समय गेहूं की फसल बोयी गयी थी और खेत में महीने भर की डाभी हरियाई थी, जब ठाकुर ने इसमें हल चलवाकर खेत उलट दिया और अपना बीज बो दिया। साथ ही बड़े-बड़े थान बनाकर उनमें सिर से भी ऊंचे आम के पड़े लगवा दिये। इतने बड़े पेड़ इसलिए ताकि मुकदमेबाजी की नौबत आने पर इन पेड़ों की उम्र के आधार पर 10-12 साल पुराना कब्जा साबित किया जा सके।
पिता जी पुराने जमाने के सन 28-29 के चहारम पास थे। पहलवान, हैकड़, निडर और जवान थे। खसरे में उनका कब्जा दर्ज था। इसलिए लगातार घुड़की-धमकी मिलने के बावजूद वे इस अन्याय के खिलाफ खड़े हो गये। मुकदमा दायर कर दिया। गांव के ठाकुर के खिलाफ गांव का ही शूद्र, खुद अपना ही रियाया, ‘मनई’, जिसको- जमींदारी काल में अपनी जगह जमीन देकर बसाया गया था, मुकदमा लड़ेगा? अब तक, जमींदारी खत्म होने तक हम इलाके के राजा थे। सरकार ने धोखा किया तो इन कीड़े-मकोड़ों, भुनगों को भी सींग निकल आई है। पूरी ठाकुर बिरादरी की नाक काटने पर उतारू है यह आदमी। इतनी हिम्मत! धमकाया कि गांव छोड़कर भाग जाओ नहीं तो मारकर महामाई के सागर में डाल दिया जायेगा। एक-दो बार मारा-पीटा भी। पिताजी डटे रह गये। मुकदमेबाजी शुरू हो गयी। कुछ दिन बाद सब कुछ सामान्य-सा लगने लगा। एक शाम मैं गांव की दुकान से कोई सौदा लेने जा रहा था। गांव से पक्की सड़क को जोड़ने वाली पगडंडी के दोनों ओर ऊंची खाई थी और उस पर सरपत और उसकी ऊंची झाड़ियां। गोहटे वाली (जिस पर गोहटा या गोह रहती थी, पता नहीं अब रहती है या नहीं! ) ऐतिहासिक जामुन के पेड़ के नीचे फैले गाढ़े अंधेरे में पहुंचकर मन में डर की शुरुआत होने ही वाली थी कि किसी ने पीछे से कसकर दबोच लिया। वे दो थे। मुंह दबाकर दाहिने हाथ बाग की झाड़ी में ले गये और मुंह में कपड़ा ठूंसकर अंगोछे से बांध दिया। धमकाया- आवाज किए तो तुरंत रेत डालूंगा। पकड़ने और बांधने वाला कोई बाहर का बलिष्ठ आदमी था। धमकाने वाले वही थे, जिनसे मुकदमेबाजी चल रही थी। दोनों ने मिलकर एक चादर में मुझे गठरी की तरह बांधा और खांची में रखकर घर ले गये। एक कोठरी में पटका। चादर खोलकर रस्सी से हाथ पीछे करके बांधे। पैर बांधे औक कोठरी की सांकल लगाकर चले गये। निःशब्द आंसू बहाता मैं हाथ-पैर चलाकर बंधनमुक्त होने में जुट गया। आभास हो गया कि रात गहराने पर वे मारेंगे और गांव के पश्चिम से गुजरने वाली इलाहाबाद-फैजाबाद रेलवे लाइन पर डाल देंगे। शायद चैत का महीना था। भय से शरीर पसीने-पसीने हो रहा था। धड़कन तेज थी। सबसे पहले मुंह बंधनमुक्त हुआ। फिर मुंह का कपड़ा निकाला। शायद किसी खूंटी या जांत के हथौड़े की नोक में फंसाकर। फिर पैर छूटे। हाथ पीछे बंधे थे और बंधन इतना कसा था कि उंगलियां सुन्न पड़ रही थीं। कोई जोर नहीं चल रहा था। तभी किवाड़ों की सेंधि से प्रकाश की पतली रेखा अंदर आयी। सांकल खड़की। मैं किवाड़ के बगल की दीवार से चिपक गया। किवाड़ खुले। ठाकुर की पत्नी एक हाथ में ढिबरी और दूसरे में थाली लेकर अंदर आयीं। वह पकाने के लिए राशन निकालने आयी थीं। शायद उन्हें मेरे बारे में सावधान नहीं किया गया होगा। उनके आगे बढ़ते ही मैं दबे पांव आंगन में निकला। इस बखरी के भूगोल से मैं पूर्व परिचित था। कई बार खलिहान से धान ढोकर यहां ला चुका था। औरतों के दिशा-मैदान हेतु बाहर जाने के लिए आंगन के कोने में बनी खिड़की से मैं बाहर भागा। घर कैसे पहुंचा? मां ने हाथ का बंधन खोलते हुए क्या-क्या पूछा? मैंने क्या बताया? यह सब आज कुछ भी याद नहीं। पर वह पकड़, वह बंधन और काल कोठरी में बीते डेढ़-दो घंटे आज भी स्मृति पटल पर एकदम टटके हैं।
मृत्यु के मुख से होने वाली प्रत्येक वापसी आपकी जीवन-दृष्टि को गहराई तक प्रभावित करती है। आप वहीं नहीं रह जाते, जो पहले होते हैं। पिछले दिनों गांव गया। वही ठाकुर अपने नाती की मार्कसीट लेकर आये और उसे कहीं नौकरी दिलाने की चिरौरी करने लगे। मैं उनकी आंखों में आंखें डालकर यह जानने का प्रयास करने लगा कि क्या मुझे सामने पाकर वे अपनी उस दिन की असफलता पर अब भी दुखी होते होंगे। सोचता हूं कि एक दिन पूछ लूं? यह भी कि वह दूसरा कौन था? अब तो यह सब कहा-सुना जा सकता है।
एक और दृश्य भी मानस पटल पर उसी तरह सुरक्षित है। शायद अपहरण वाली घटना के पांच-छह महीने बाद की बात होगी। एक शाम खेतों की ओर से मुद्दई का हलवाहा प्रकट हुआ। पिताजी को एक तरफ ले जाकर कुछ फुसफुसाया और अंधेरे में गुम हो गया। हलवाहा दलित था और पिताजी से सहानुभूति रखता था। उसे खबर मिली तो आगाह करने के लिए आ गया। उसने बताया कि मुद्दई ने बाहर से बदमाश बुलाये हैं। आज रात मेरे घर डकैती पड़ेगी। डकैती तो दिखावे के लिए होगी। असली मकसद है पिताजी की हत्या। उसके जाने के बाद मां और पिताजी चिंतित हो गये। पिताजी सारे बर्तन-भांड़े एक खांची में रखकर कुछ दूर स्थित गन्ने के खेत में छिपा आये। मां ने अपने दो-चार गहनों और मुकदमे के कागजों की पोटली बनायी, साथ ले चलने के लिए। कथरी-गुदरी पिछवाड़े की झाड़ियों में छिपा दी। दो बैल थे। एक गाय और एक बकरी। किसी को न पाकर वे लोग गाय-बैल ही हांक कर बेंच सकते हैं। इसलिए गाय-बैलों का पगहा खोलकर महुआरी में हांक देना था। केवल बूढ़ी अंधी दादी बच रही थीं। वे मंड़हे में बिछी चारपाई पर पड़ी रहती थीं। बकरी उन्हीं की चारपाई के पीछे लकड़ियों की आड़ में बांध दी गयी। साथ ले चलने पर उसकी चिल्लाहट हम लोगों के लिए खतरा बन सकती थी। गाय-बैलों की तरह हांकने पर भेड़िए का शिकार हो जाने का खतरा था। यहां बंधी हुई चुप रह गयी तो बच जायेगी। चिल्लाई तभी मारे जाने का डर था। घर में ताला लगाकर दोनों बैलों और गाय को हांकते हुए करीब दो घंटा रात बीतते-बीतते हम लोग निकले। पिता जी के सिर पर एक बक्सा, हाथ में लाठी। मां के सिर पर एक बक्सा और गोद में सो चुकी छोटी बहन। मेरे सिर पर मां की पोटली और कंधे पर बस्ता। बे-आवाज निकलना था। फिर भी बकरी को आभास हो गया। नई जगह बांधते ही वह चिल्लाने लगी। झबुआ शाम को नहीं था। निकलते-निकलते वह भी आ गया।
मुझे लगा कि अपना घर-दुआर, पेड़-पालव, खासकर जीवित अंधी बूढ़ी दादी और असहाय बकरी को छोड़कर हम लोग हमेशा-हमेशा के लिए चले जा रहे हैं। मैं रोने लगा….अंधेरी रात की वह यात्रा…यह तो खुटना के बाग में पहुंचकर पता लगा कि मां हम भाई-बहनों को लेकर यहीं पेड़ के नीचे सोयेगी और पिताजी लौटकर घर के पास की झाड़ियों में छिपकर बैठेंगे ताकि जान सकें कि क्या कुछ हुआ। किसी के घर इसलिए नहीं गये ताकि डरकर घर छोड़ने की बात किकी को पता न चले। आततायी आये। हम लोगों को न पाकर किवाड़ तोड़ा। लाठी से घर की गगरी कुचुरी फोड़ा, बैलों की नांद हौदी फोड़ा। ओसारे का छप्पर पीटा और दादी को एक लाठी मारकर बकरी कंधेर पर लादकर चले गये। उनके जाने के बाद पिताजी बाग में आये। मां के साथ मैं भी जगा था। वापसी की यात्रा शुरू हुई। भोर होते-होते दोनों बैल और गाय भी पिताजी खोजकर हांक लाये। असुरक्षा और आतंक के ऐसे प्रसंगों ने, जो कई हैं और उम्र के अलग-अलग पड़ाव पर घटित हुए हैं, मुझे अपना पक्ष चुनने में निर्णायक भूमिका निभायी होगी।
मैं और मेरा समय
समय ही असली स्रष्टा है
एक अन्य अंश ………..
प्रसंगतः, तत्कालीन लेखपाल के षड्यंत्र के कारण उस मुकदमे में पिताजी को आंशिक सफलता ही मिली। हमारा कब्जा आधे रकबे पर ही माना गया। पिछले दिनों गांव गया तो उस मुकदमे की पेचीदगी जानने के लिए मैंने तत्कालीन लेखपाल राम अंजोर को बुलवाया। उन्होंने बताया कि ठाकुरों के भारी दबाव और धमकी के चलते उन्होंने कब्जे वाले अभिलेख में एक के नीचे ‘बटा दो’ लगा दिया था। यानी पूरे रकबे पर नहीं बल्कि आधे पर कब्जा है। राम अंजोरजी ने कहा कि पूरी नौकरी में यही एक काम मैंने ऐसा किया, जिसके लिए आज तक पछताता हूं। भगत (मेरे पिताजी) की लड़ाई उन दिनों चर्चा में थी, जिसमें मेरी वजह से इन्हें आधी सफलता पर संतोष करना पड़ा। इसका मुझे दंड भी मिला। पूरे सेवाकाल का एकमात्र दंड। टेप किये गये राम अंजोरजी के शब्दों में ”मुझे ‘बैड इंट्री’ मिली और एक इंक्रीमेंट रोक दिया गया, हमेशा के लिए। क्योंकि बाद की जांच में नक्शे में की गयी यह ओवर राइटिंग पकड़ में आ गयी थी।”
पिताजी गये तो मैं दर्जा सात में था और बहन दर्जा दो में। उनके गृहत्याग को हमने नियति का क्रूर मजाक मानकर स्वीकार कर लिया। नानी ने सहायता स्वरूप एक बकरी दी। उसका नाम भूल रहा हूं। उसके एक ही साथ तीन बच्चे हुए। तीनों मादा। नाम थे- खैली, निमरी और पुटकाही। फिर इन तीनों की संततियां आयीं। बहन पढ़ाई छोड़कर उन्हें चराने लगी। मैं स्कूल से लौटता तो इनके लिए पीपल, पाकड़ या महुए की पत्तियों का इंतजाम करता। रविवार के दिन इनके लिए विशेष रूप से बेर, बबूल, या नीम की डाल छिनगाता। इनका झुंड बड़ा होता गया। दस-बारह हो गयीं। जिस दिन कोई पाला-पोसा बकरा चिकवे के हाथ बेचा जाता और वह उसे साइकिल के फ्रेम के नीचे विशेष रूप से बनाये गये बोरे में बांधकर ले चलता, बकरे की चिल्लाहट से सारा माहौल गमगीन हो जाता। सारा घर रोने लगता। उस शाम बिना खाये हम तीनों प्राणी चुपचाप अपनी-अपनी चारपाइयों पर पड़ जाते। बकरियां उसकी याद में रातभर खोभार में अललाती रहतीं।