उत्तर भारत के ग्रामीण जीवन की अनेकशः समस्याओं, स्त्री तथा दलित चेतना के नये सन्दर्भों के व्याख्याकार शिवमूर्ति ने केसरकस्तूरी’ कहानी संग्रह, साम्प्रदायिकता को लेकर त्रिशूल’ तथा दलित विमर्श के नये सन्दर्भों को उद्घाटित करता उनका उपन्यास तर्पण है। किसान समस्या और किसान आत्महत्या जैसे नवीन प्रसंगों को लेकर उन्होंने आखिरी छलांग’ जैसा उपन्यास भी लिखा है। कसाई बाड़ा’ कहानी के अनेकशः मंचन हुए हैं। उनकी कहानी भरत नाट्यम्, तिरिया चरित्तर को लेकर सफल फिल्में भी बनी हैं। तर्पण’ का अनुवाद कन्नड़ और जर्मन भाषाओं में हो चुका है। त्रिशूल’ उपन्यास का अनुवाद पंजाबी और उर्दू में हुआ है। वर्तमान समय के कम लिखकर अधिक लोकप्रिय’ कथाकारों के सिरमौर हैं –
प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध कथाकार शिवमूर्ति से लोकसंघर्ष पत्रिका के सलाहकार, कथाकार एवं समीक्षक विनय दास से एक विचारोत्तेजक बातचीत :
प्रश्न : सामाजिक क्रान्ति या बदलाव में साहित्य की भूमिका नितान्त तुच्छ क्यों हो गई है? क्या क्रान्ति’ शब्द साहित्यकारों के लिए महज डिक्शनरी’ का शब्द भर है।
उत्तर : इस सन्दर्भ में मैं दो बातें कहना चाहूँगा। 1साहित्यकार द्वारा लिखे गए साहित्य और पाठक द्वारा उसे पढ़े जाने के बीच एक लम्बा गैप है। 2हमारे लिखे जाने की वह व्यापक सामाजिक व्याप्ति और स्वीकृति नहीं है जो धर्म के संबंध्ध में लिखे गए साहित्य को लेकर है। यही कारण है कि सामाजिक हालात के बदलाव को लेकर लिखा गया साहित्य समाज में कोई बड़ा बदलाव या क्रान्ति नहीं कर पाया। आज के सामाजिक और साहित्यिक हालत में किसी भी पीड़ित या शोषित के पक्ष में खड़े होने को ही अब क्रान्ति’ कहा जाने लगा है। वैसे बड़ी सामाजिक क्रान्तियाँ अब संभव भी नज़र नहीं आती।
प्रश्न लोग कब से गरीब, शोषित, मजदूर, संगठित तथा असंगठित और अपवंचितों के विषय में लिख रहे है? मुझे लगता हे जितना ज्यादा इस तबके के विषय मे लिखा जाता है, उससे ज्यादा इनकी हालत बद से बदतर होती गई है। इस विरोधाभास के संदर्भ में कुछ कहें?
उत्तर : जहाँ तक मैं जानता हूँ साहित्य के शुरूआती दौर से ही इस कोटि का लेखन होता रहा है। शहरी और कस्बाई श्रमिकों पर गोर्की का मां’ जैसा उपन्यास है। जगदम्बा प्रसाद दीक्षित का उपन्यास मुर्दाघर’ बड़े शहर में झुग्गीझोपड़ी में रहने वालों लोगों के जीवन को लेकर लिखा गया है। जहाँ देह का व्यापार एक सामान्य बात है। आगे चलें तो संजीव ने कोयला खदान के मजदूरों और उनकी समस्याओं को लेकर कई एक अच्छी कहानियाँ मैं चोर हूँ, मुझ पर थूको, ट्रैफिक जाम तथा सावधान! नीचे आग है’ जैसा उपन्यास लिखा है। जो छोटेबड़े कोयला चोरों और शहर के जरायम पेशा लोगों के जीवन की अमानवीय स्थितियों से हम सबको रूबरू कराता है। ये सारी बातें मजदूरों पर लागू होती हैं लेकिन मेरे विचार से इन्हीं मजदूरों की पंक्ति में ठेले वाले, गलीकूचे में झाड़ूबर्तन बेंचने वाले, कूलर घास बेंचने वाले आदि को भी इन अपवंचितों और शोषितों में शामिल किया जाना चाहिए। यह एक नया सामाजिक उभार है। इन पर भी लिखा जाना चाहिए। इनका असरकारक प्रभाव क्यों नहीं है, इस संदर्भ में मैं कुछ एक खास बातें कहना चाहूँगा। पहली तो यही कि साहित्यिक पत्रिकाओं की जनता में शाख नहीं है। दूसरे साहित्यिक सोच के आदमियों की वहाँ तक पहुँच नहीं है। पत्रिकाओं का वितरण कम है। इंटरनेट की कमी है। यदि लेखक केवल लेखक भर है, उसका अपना कर्म, अपना जुड़ाव उस वर्ग से नहीं है तो पाठक और लेखक के बीच जो तादात्म्य होना चाहिए, वह तादात्म्य नहीं बनेगा। यह तब होगा जब इनकी कथनी और करनी में समानता होगी। अब आप ही सोचिए जहाँ हम बदलाव की उम्मीद कर रहे हैं, वहाँ तक जब हमारा यह साहित्य पहुँचा ही नहीं है तो बदलाव कैसे संभव है।
प्रश्न : वर्तमान बदली परिस्थितियों में आप एक लेखक के दायित्व को किस तरह परिभाषित करना चाहेंगे?
उत्तर : हिन्दी का ज्यादातर लेखक खतरे नहीं उठाना जनता से सीधे तादात्म्य नहीं रखता। मुझे हिन्दी में ऐसा कोई लेखक याद नहीं आता जो परिवर्तन के लिए जनता के साथ खड़े हेकर उनके लिए जेल गया हो। यदि आप उनके साथ शारीरिक सहभागिता करेंगे तो जनता आपके पीछे आएगी। बहुत पहले रेणु और वर्तमान में अरुन्धतिराय ऐसे धरनों में जाती हैं, उनके समर्थन में लोग खड़े होते हैं। वे खतरे उठाती हैं। उन्हें मैं प्रथम श्रेणी का मानता हूँ। क्योंकि सामाजिक बदलाव के लिए ये अपने लाभ को दाँव पर लगाकर वहाँ पर सशरीर और व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होती हैं। वर्तमान परिस्थितियों में मैं इसे ही एक लेखक का दायित्व मानता हूँ।
प्रश्न : अरून्धतिराय ही क्यों? मुद्राराक्षस, वीरेन्द्र यादव, राकेश, संदीप पाण्डेय, डॉ. राजेश मल्ल आदि ने भूमि अधिग्रहण आन्दोलन के खिलाफ शारीरिक रूप से उपस्थित हो पैदल मार्च, धरना आदि दिया। वह लड़ाई जीती भी गई। लेकिन आगे वह क्रम बन्द क्यों हो जाता है?
उत्तर : दरअसल हिन्दी का लेखक भीरू किस्म का है। वह सुविधाभोगी है। संघर्ष से कोसों दूर है। उसने मान रखा है उसका कार्य समाज को विचार देना है। यहाँ पर ज्यादातर लेखक कल्चर की भूमिका निबाहते है। वे केवल वैचारिक परिवर्तन जो परिवर्तन की पहली सी़ी है वहीं पर आकर ठहर जाते हैं।
प्रश्न : इधर नामवर सिंह के इस विचार से कि कोई भी विचारधारा साम्प्रदायिक नहीं होती है।’ साहित्य जगतखासा आन्दोलित है। इस सन्दर्भ में आपकी उनसे
किस हद तक सहमति है।
उत्तर :मैं इस कथन को पूरी तरह झूठ और आधारहीन मानता हूँ। निकट विगत में अयोध्या में, गुजरात में साम्प्रदायिक विचारधारा का ऐसा भीषण ताण्डव देखने के बाद भी अगर नामवर सिंह ऐसा कह रहे हैं तो मुझे लगता है कि वे उम्र के कारण विभ्रम की स्थिति में है या किसी प्रत्यक्षपरोक्ष लाभ के चक्कर में कई दशकों की अपनी स्टैण्डिंग को रिवर्स कर रहे हैं। यह भी हो सकता कि यह चर्चा में बने रहने का हुनर हो, जैसे कभी आरक्षण के विरुद्ध बोल दीजिए, कभी लेखक को सत्ता की चेरी कह दीजिए आदि। कहते हैं बदनाम जो होंगे तो क्या नाम न होगा। वे बुजुर्ग हैं। वे क्या सोचकर कहाँ निशाना लगाकर कह रहे हैं, इसका अनुभव करना कठिन है। पहले हिन्दुओं में साठ के पार को सठियाना माना जाता रहा है फिर वे तो अस्सी पार के हैं। मेरे विचार से अपने देश में कई विचारधाराएँ साम्प्रदायिक दृष्टि से इतनी सुस्पष्ट और मजबूत हैं जितनी विश्व में शायद ही कोई दूसरी विचाराधारा हो।
प्रश्न : मुझे लगता है उम्र के चौथेपन में वामपन्थी लेखकों को भी दक्षिणपंथी विचारधारा अपने मजबूत गिरफ्त में ले लेती है, क्योंकि उन्हें भी स्वर्ग, ईश्वर, वेद, ब्राह्मण आदि की चिन्ता होने लगती है, जैसे डॉ0 राम विलास शर्मा। कहीं उसी के अमीपसमीप नामवर सिंह भी तो नहीं, पहुँच गए। फिर अब आप ही बताइए क्या वेद और मंत्रों मे ताकत नहीं होती है?
उत्तर: शब्द जब कर्म बनेगा तब उसमें ताकत दिखाई देगी। केवल विजयी हो जा कह देने से कोई विजयी नहीं हो जाएगा। माना कि वेद पुराणों में मंत्र बहुत बने लेकिन एक साइकिल, एक कलम, एक कागज नहीं बन पाया। किसी एक ऐसी छोटी चीज का आविष्कार नहीं कर पाए जिसे आज हम यादकर सकें। सुनते हैं कि लोग मंत्र पढ़कर पानी पर चले जाते थे। एक लोग, मगर नदी पार करने वाले उन हजारों लोगों के विषय में इन मंत्रों के कभी विचार नहीं हुआ। कहते हैं उड़न खटोला था। लेकिन जब से हम लोगों ने आँख खोली तब से ऐसा कुछ नहीं दिखा। मुहम्मद गजनवी आया सोमनाथ में शिवमूर्ति तोड़ दी। उसे देवता नहीं बचा सके। दरअसल अपने यहाँ देवता भी केवल गाय और ब्राह्मण की रक्षा के लिए दौड़े आते हैं लेकिन किसी गरीब, झुग्गीझोपड़ी वाले की रक्षा के लिए कभी कोई भगवान नहीं आया। मंत्रों की ताकत को मैं नहीं मानता। ताकत कर्म में होती है और क्रिया में होती है। इस बात को एक छोटी कहानी से आप ज्यादा सटीक समझ सकेंगे। एक गाँव में एक आदमी के पास शंख था। वह उसे वह सब कुछ देता था जो माँगता था। एक दिन एक आदमी उसके पास आया उसने दूसरा शांख दिखाया। दूसरा शंख जितना माँगो उसका दुगना सामान देता था। उसने कहा इससे 10 किलो0 दूध माँगो। उसने तुरन्त कहा 20 किलो0 दूध लो। अब रखने को बर्तन नहीं। उसने कहा अब अगर चाहो तो तुम अपना शंख देकर यह शंख ले सकते हो। वह शंख बदलकर चला गया। दोपहर को जब उसे भूख लगी तो उसने कहा चार रोटी दे शंख उसने कहा आठ रोटी लो। केवह वह आठ रोटी लो की आवाज करता रहा मगर रोटियाँ न दे सका तब वह चीखा अरे! तुम यूपी बिहार के लोगों ने मुझे धोखा दिया है। तुम पोर शंख हो। मैं तो अपने यहाँ के तथाकथित लोगों को पोर शंख ही मानता हूँ। जिनकी विशेषता बड़ेबड़े दावे भर करना है। पश्चिम के लोग पहले वाले शंख हैं। प्लानिंग के अनुसार बिजली आदि पैदा किया। अपने यहाँ लोग भूखे सोते हैं। हम उन्हें अन्न नहीं दे पाते। मगर, वेद और धर्म के नाम पर स्वर्ग में कोई भूखा नहीं रहता है, का दिवास्वप्न दिखाकर उन्हें लूटते रहते हैं। यहाँ पर पोर शंखों का कब्जा है। सामान्य लोगों की समझ को देखते हुए मुझे लगता है कि अभी सैकड़ों वर्ष इस समाज पर इन पोर शंखों का कब्जा बना रहेगा।
प्रश्न : बहुत से लोग तमाम नगों की अँगूठियाँ, गले में तुलसी, माणिक, रुद्राक्ष आदि की माला, गण्डा,ताबीज आदि धारण करते हैं, कहते हैं इनमें बड़ी ताकत
है। इसी भावना के आड़ में बाबा और तांत्रिकों का धंधानिरन्तर फलफूल रहा है। एक ओर विज्ञान की ताकत और दूसरी ओर यह धार्मिक पोंगापन्थी। इस संदर्भ
मेंकुछ कहें।
उत्तर : मैंने ज्योतिष का अध्ययन नहीं किया है। लेकिन मैं ज्योतिष और तंत्र विद्या में विश्वास नहीं करता। मैंने आज तक न कोई इस तरह की अंगूठी पहनी हैं और न गण्डाताबीज ही। मैं और मेरी पत्नी कभी मन्दिर नहीं गए। मेरा इन चीजों में कोई विश्वास नहीं। मैंने छः लड़कियों की शादी की है। मैंने कन्यादान या कोई कर्मकाण्ड नहीं किया। कम्प्टीशन के दौरान भी मैंने किसी देवी देवता से अर्चना नहीं की और कभी कुछ माँगा भी नहीं। मैं व्यक्तिगत रूप से इन सबके खिलाफ हूँ। जो स्वर्गनर्क, सुखदुःख है, यहीं है। मैं सातवें आसमान में विश्वास नहीं करता। विगत जन्म का कुछ मिलता है, यह सब धोखाधड़ी है। पुनर्जन्म कपोल कल्पना है। तंत्रमंत्र के नाम पर यह सब ठगी और लूटपाट का धंधा तथा धर्म के नाम पर पण्डितपुरोहितों का यह धंधा अशिक्षा के अभाव में फलफूल रहा है। समाज जैसेजैसे शिक्षित होगा, इन पर अंकुश लगेगा।
प्रश्न: तद्भव द्वारा आयोजित एक समारोह में नामचीन कथाकार काशीनाथ सिंह ने हिन्दी के साहित्यकारोंको गाँव के सिवान पर मुँह उठाकर भौंकने वाला कुत्ता
कहा है। इस संदर्भ में आप क्या कहना चाहेंगे?
उत्तर: लेखक की विषय वस्तु क्या है, यह बहुत कुछ इसी पर निर्भर करता है। जो आमजन के सरोकार से जुड़ा लेखन करता है तो उसका विचार इनसे भिन्न होगा। अगर, लेखक का अपने समाज से तादात्म्य है, वह समाज सम्मत लेखन कर रहा है, तब उस समाज के अंदर लेखक की भूमिका कुत्ते की भूमिका नहीं हो पाएगी। परिवर्तन कम हो, चाहे ज्यादा, लेकिन लेखक का स्थान कुत्ते का नहीं होगा। लेखक समाज से विमुख लेखन करेगा तक भी उसकी भूमिका सिवान के कुत्ते की नहीं होगी। ऐसी रचनाएँ भी आई हैं जो समाज के परिवर्तन का कारण बनी हैं जिससे क्रान्तियाँ हुई हैं। उनके नाम लेने की जरूरत नहीं। उसे सभी लोग जानते हैं। काशीनाथ सिंह द्वारा साहित्य की रचनात्मक भूमिका को नजरअंदाज करके सिवान पर भूँकते कुत्ते में इसे रेड्यूज कर देना उनके द्वारा हिन्दी के साहित्यकारों के साथ किया गया एक खतरनाक मजाक है। उनका यह बयान अब तक के लिखे गए सारे बहुमूल्य लेखन पर पानी फेर देना है। यदि काशीनाथ सिंह इसे केवल अपने लेखन और अपने लिए इस विशेषण का प्रयोग कर रहे हों तो भी मुझे इस कथन पर आपत्ति है।
प्रश्न : नए साहित्यकारों के लिए कोई संदेश देना चाहेंगे?
उत्तर : नए साहित्यकार के लिए यही कहना हे कि अपने नजरिए से समाज को देखें। भविष्य की चुनौतियाँ ज्यादा निर्मम और ज्यादा कठोर होती जा रही हैं। लेखक का धर्म और दायित्व तभी निर्वाह किया हुआ माना जाएगा जब वह आम जनता के सरोकार से जुड़ा हुआ लेखन करे, मेरे विचार से केवल मनोरंजन साहित्य का उद्देश्य नहीं हो सकता।