अनेकान्त : (डॉ. आईदान सिंह भाटी)

raj शिवमूर्ति  जी के साथ मेरी पहली भेंट राजस्थान के कस्बे श्रीडूंगरगढ में हुई थी, जहां संभवतः राजस्थान साहित्य अकादमी का आंचलिक समारोह था और राष्ट्रभाषा प्रचार समिति उसकी आयोजक थी। कवि श्याम महर्षि के साथ आयोजन सहयोगी थे चेतन स्वामी और मालचंद तिवाडी। उस कस्बे में हिन्दी की विभूति राजेन्द्र यादव का आगमन हुआ था। वे युवा लेखकों के लिए प्रेरणा-पुंज बने हुए थे उन दिनों ’हंस‘ माध्यम से। यह नवें दशक के मध्य का कोई वर्ष था। वहीं भाई शिवमर्ति जी के साथ दो दिन साहचर्य रहा था। मैंने उनकी कहानियां पढ रखी थीं और मुझे वे गंवई-यथार्थ के चितेरे के रूप में पसंद थे। वहीं मैंने उनकी आलोचना की ’अटपट-वाणी‘ भी सुनी थी, जिसे लक्ष्य कर राजेन्द्र यादव ने टिप्पणी की थी कि ’शिवमूर्ति‘ ने तो ’पौरुष‘ के हाथियों की तरह अपने ही दल को रौंद दिया है। किसी वैचारिक बहस के बीच मैंने पहली बार शिवमूर्ति जी को सुना था और वे सरल मन से कोई ऐसी बात कह गए थे, जो बौद्धिक-छलाओं की परवाह नहीं करता है। मुझे उनकी सरलता ने मोह लिया था।
हिन्दी कहानी में उन दिनों मालचंद तिवाडी अपने लेखन की ऊर्जस्विता पर थे और उन्हीं के आग्रह पर मैं श्रीडूंगरगढ गया था। वहीं मालचंद तिवाडी के घर पर एक अनौपचारिक-सी बैठक में मैंने शिवमूर्ति जी से परिहास किया था, वह भी उनकी ग्राम्य-सहज सरल मन का प्रतिबिम्ब था। मैंने कहा था कि -’हम कैसे मान लें कि आप ही शिवमूर्ति हैं?‘ वे बोले–’हंस‘ में छपे फोटो से मिलान करके देख लो।‘ हम सब एक अट्टहास के साथ हँस पडे थे। मालचंद ने कहा था-’आई जी! देखा एक कहानीकार कितना सरल होता है?‘ यहां यह स्पष्ट कर दूं कि उन दिनों हम मित्रों में ’कवि‘ और ’कहानीकार‘ को लेकर चुटकियां चलती रहती थीं। मैं क्योंकि राजस्थानी में केवल कविता ही लिखता रहा हूं, इसलिए कविता का ही पक्षधर रहा हूं। शिवमूर्ति जी के श्रीडूंगरगढ के दो बिम्ब आज भी मेरी आँखों के आगे यदा-कदा स्मरण करने पर आ खडे होते हैं, पहला ’पौरुष के हाथियों वाला बिम्ब‘- जो राजेन्द्र यादव के शब्दों में अपने ही दल को रौंदता है और दूसरा ’हंस‘ में छपे फोटो से मिलान करके देख लो‘ वाला सरलमना उवाच।
इस बीच में उनके लिखे को खूब पढा और एक लेखक के रूप में वे मेरे मन के एक कोने में जगह ले बैठे। संजीव, शिवमूर्ति उदयप्रकाश की कथात्रयी विभिन्न कोणों के कारण मुझे प्रिय है। पाठक ऐसी अपनी-अपनी कथा-त्रयियां बनाते रहते हैं और मुझे विश्वास है कि उनकी कथा-त्रयियों में इनमें से दो एक अवश्य मौजूद होता है।
भाई शिवमूर्ति जी से दूसरी भेंट मेरी कार्य-स्थली बाडमेर में हुई, जहां वे घुमक्कडी करने भाई दिनेश कुशवाह के साथ आए थे। विभूतिनारायण राय उनके आतिथेय थे और उनका बी.एस.एफ. का डी.आई.जी. ऑफिस मेरे कॉलेज के रास्ते में ही था। मैं बिना ब्रेक की एक रेसर साइकिल पर ही उन दिनों चलाता था, जबकि हमारे कॉलेज में कारों का प्रवेश हो चुका था। विभूति जी के पास साइकिल पर जाने वाला मैं एकमात्र व्यक्ति था और रात-बिरात ’रसज्ञ‘ बनने के बाद उन्हें अपनी कार निकालनी पडती थी और साइकिल दूसरे दिन बी.एस.एफ. की गाडी पहुंचाती थी। ऐसे में एक दिन उनके कार्यालय में भाई शिवमूर्ति जी से दूसरी बार मिलना हुआ।
विभूति जी ने मेरा दोनों से परिचय कराया। मैं तो देखते ही शिवमूर्ति जी को पहचान गया था। ’पौरुष का हाथी‘ अपने ही दी को रौंदने वाला राजेन्द्र यादव का कथन मेरी आँखों में नाच उठा और मालचंद तिवाडी के घर हुआ हास-परिहास भी। पर लेखक अपने पाठक को पहचान नहीं पाया था और वे श्रीडूगरगढ की स्मृतियों में मेरे सम्बन्ध में एक दो गप्प हांक बैठे। मने उनकी उन गप्पों में एक सहृदय ग्राम्य-जन ही पाया, जो न जानते हुए भी सामने वाले को मान का पात्र बना कर उसका विश्वास जीतने की कोशिष करता है। विभूति जी ने बताया कि दोनों साथी आज भारत-बॉर्डर देखने जाएंगे, आप भी चलना चाहें तो कार्यक्रम बना लें। मेरी रुचि सीमा की तारबंदी देखने में नहीं थी, इसलिए मैंने अपना पासा फेंका कि शिवमूर्ति जी सीमा रेखा देखना पसंद करेंगे अथवा अपने पाठकों से मिलना? और बिना किसी संशय के एक लेखक ने पाठकों के पक्ष में राय व्यक्त की और उस दिन का उनका पूर्व निर्धारित कार्यक्रम उन्होंने एक क्षण में ही रद्द कर दिया था।
उन दिनों बाडमेर में साहित्यिक हलचलों में लोग रुचि रखते थे और एक संदेश पर अच्छी खासी संख्या में साहित्य-प्रेमी इकट्ठे हो जाते थे। उनके लेखकों के साथ, पाठकों की संख्या भी पर्याप्त होती थी, जो पहल, ’हंस‘, ’आजकल‘, ’अभिव्यक्ति‘, ’वातायन‘, ’मधुमती‘, ’जनसत्ता‘ आदि इधर-उधर से ढूंढकर पढते थे। कॉलेज में ऐसे पर्याप्त संख्या में पाठक थे, जो मेरे विद्यार्थी थे। मैंने ’कथाकार शिवमूर्ति और उनकी कहानियों पर एक गोष्ठी रखी। गोष्ठी में भाई दिनेश कुशवाह और बाडमेर के स्थानीय कवियों ने काव्यपाठ किया था। वहीं शिवमूर्ति जी से पाठकों ने जो प्रश्न पूछे थे उनके उत्तर देते समय उनको पसीना आ गया था, क्योंकि घुमक्कडी के बीच इस सीमांचल में उन्हें ऐसे प्रश्नों की आशा नहीं थी। उनसे पूछा गया एक सवाल तो मुझे अभी भी स्मरण में है जो एक पाठक ने बडी निर्ममता से पूछा था कि ’क्या कारण है कि आपकी कहानियों में क्रान्तिधर्मी पात्र स्त्रियां ही हैं पुरुष नहीं, क्या उनके पुरुष पात्रों में उनके व्यक्तित्व का प्रतिबिम्बन है ?
और विभूति जी समेत सभी सदन हँस पडा था और शिवमूर्ति जी संकोच में गड गए थे। जैसे तैसे उन्होंने अपनी नैया पार की थी। वे फिर मुक्त मन से बोले थे कि मुझे बाडमेर में ऐसे पाठकों से भेंट होगी, इसकी अपेक्षा नहीं थी और मुझे आज अपने इन पाठकों के बीच आकर खुशी व गर्व भी महसूस हो रहा है। अच्छा हुआ कि मैं भारत-पाक बोर्डर देखने की बनिस्पत अपने पाठकों से मिला। साथी दिनेश कुशवाह ने बाद में इस गोष्ठी के संबंध में मुझे एक मार्मिक और हार्दिक पत्र भी लिखा था, जिसमें उन्होंने मेरी कविता पाठ करने के ढंग की और काव्यवस्तु की प्रशंसा की थी। मैं आलस्य-विलासी दो दशकों बाद भी उनको उसका प्रत्युत्तर नहीं दे पाया हूं। शिवमूर्ति जी के साथ ही उन दिनों विभूति जी के पास आने वाले कथाकारों में नीलकांत जी मेरी स्मृति में हैं, जिनके साथ मैंने एक रात सीमाहीन रसज्ञता में बिताई और उन्होंने हमारी रूह में सम्पूर्ण गालिब को उतार दिया था। यहाँ में स्मरण करा दूं कि मैंने अभी तक शिवमूर्ति जी को ’हंस‘ में छपी कहानियों के माध्यम से ही पढा था और मेरे विद्यार्थी भी ’हंस‘ मुझसे ले जाते है और पढकर उस पर चर्चा करते थे। उसमें कविता लिखने वाले संजय व्यास जो अब आकाशवाणी में अधिकारी हैं यदाकदा मुझसे शिवमूर्ति जी के बारे में पूछते रहते ह। शिवमूर्ति से जो पाठक स्नेह करते हैं उसका प्रतीक है संजय व्यास।
शिवमूर्ति जी से मेरी एक मुलाकात पिछले बरसों में कानपुर में गुरुदेव डॉ. विमल जी के अभिनन्दन समारोह म हुई थी। इसमें लखनऊ से विशेष रूप से शिवमूर्ति जी, प्रो. मैनेजर पाण्डेय, प्रो. विजेन्द्र नारायण सिंह जी, प्रो. ए.डी. सिंह व लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति रूपरेखा वर्मा पधारे थे। मुझे उन्हीं दिनों साहित्य अकादमी दिल्ली का अनुवाद सम्मान मिला था इसलिए मुझे भी वहां सम्मानित किया गया और यह महज संयोग था कि मुझे शिवमूर्ति जी ने वहां सम्मानित किया था। शिवमूर्ति जी को मैंने श्रीडूंगरगढ व बाडमेर की स्मृतियां याद दिलाईं, तो वे पुलकित हो उठे। मैं अपने पसंददीदा कथाकार से मिलकर न केवल खुश था, बल्कि उनकी सरलता सहजता ने मुझे और भी आत्मीय घेरे में ले लिया था।
मैंने शिवमूर्ति जी की केवल कहानियां ही पढी हैं, उनके उपन्यासों से मैं नहीं गुजरा हूं। मेरी अपनी यह धारणा है कि हर लेखक के अनुभवों में बचपन बार-बार सामने आ खडा होता है। लेखक को ये स्मृतियां सबलता और दुर्बलता दोनों ही देती हैं। स्मृतियों की जुगाली करने वाले लेखक एक घेरे में कैद होकर रह जाते हैं। शिवमूर्ति अपनी स्मृतियों की ’खंजडी‘ इस तरह बजाते हैं कि पाठक करुणा में डूबता चला जाता है। मुझे ’केशर कस्तूरी‘ संग्रह की शीर्षक कथा इतनी आत्मीय लगी कि मेरी आँखें छलक पडीं। कथाकार की संवेदना ने मुझे हिला कर रख दिया। कथा-नायिका का अल्हडपन, सम्बन्धों की आर्द्रता और परिस्थितियों में उसकी निरीहता पाठक को हिला कर रख देती है। भारतीय समाज और खासकर भारतीय ग्रामीण समाज में नारी की विवशता का ऐसा करुणापूर्ण चित्रण यद्यपि हिन्दी की अनेक कहानियों में हुआ है, किन्तु शिवमूर्ति के आंचालिक संस्कृति के ब्यौरे पाठक करुणा की नदी में बहा ले जाते हैं। शिवमूर्ति किशोर के माध्यम से हमारी सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों की विडम्बना की जो मार्मिक पडताल करते हैं, वह हमारे विकास के सारे दावों को तार-तार बिखेर कर रख देते हैं। ’करम रेख‘, ’बरम्ह ग्यानी‘ जैसे शब्दों से पीढयों ने जो साहस बटोरा है, वही केशर का ही सहारा बनते ह। संघर्ष के बीच लांछना से टकराती केशर का घर गृहस्थी के ’भरमजाल‘ से जूझता ऐसा चरित्र है, जो यथार्थ की धरती पर जीता है। उसने अपना हिस्सा ’अलगिया‘ मिल गया है। शिवमूर्ति केशर की पीडा को सीता से मिलाकर भारतीय नारी की पीडा का एक कहानी में ही महा-आख्यान रच देते हैं। सीता का चरित्र भारतीय नारी की पीडा का कारुणिक दस्तावेज है जो पृथ्वी से निकलता है और पृथ्वी में ही समा जाता है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम सीता के चरित्र की कारुणिकता के आगे जड और बौने हैं, उनके पास सरयू में डूब मरने के सिवाय कोई विकल्प नहीं है। इसी सीता के चरित्र की कारुणिकता का गीत कहानी के अंत में लाकर शिवमूर्ति केशर की कथा को महाकाव्यात्मक पीडा से जोड देते हैं। वही पीडा भारतीय नारी की सनातन पीडा है। सनातन शब्द की यदि कोई अर्थवत्ता है तो वह यहीं सार्थकता पाती है। हर भारतीय लडकी अपने माँ-बाप को यही सनातन दिलासा देती है-
मत रोवे माई, मत रोवे बपई
मत रोवे भइया, हजारी जी-ई-ई,
अपने करमावा माँ ’जरनि‘ लिखाई लाये,
का करि है बाप महतारी जी-ई-ई।
एक राजस्थानी लोककथा में भी इस बात को पुख्ता किया गया है कि बेटियाँ ’बाप-कर्मी‘ नह ’आप-कर्मी‘ होती हैं। अर्थात् उसका भाग्य बाप के हाथ में नहीं होता, उसका भाग्य उसका खुद का होता है। पुरुष प्रधान समाज में स्त्री के भाग्य को बाप से अलग करने के लिए कई प्रपंचात्मक कथाएं रची हैं, ताकि पुरुष के ऊपर उसकी विडम्बनाओं का ठीकरा न फूटे। तेजस्वी स्त्री चरित्र को अपने लोग ही नहीं सहते, उसे तो सीता-सावित्रियां ही स्त्री के रूप में पसंद हैं। उसके आंसुओं की पीडा में ही पुरुष सुखानुभूति प्राप्त करता है। शिवमूर्ति ने पुरुष के इस कोण पर मार्मिक प्रहार किया है। ’कोई भी लडकी अपने बाप की हेठी‘ स्वीकार नहीं करती है।‘ भारतीय ग्रामीण समाज के इस ’सनातन सच्च‘ को शिवमूर्ति लोकमर्मी गीत के माध्यम से उस पाठक की अन्तश्चेतना को भी विगलित कर देते हैं, जिस पर ’सनातन‘ पौरुषेय जडता के आवरण पडे होते हैं। बाप भी तो इन्हीं में से एक होता है, इसलिए उसकी सजल आँखें भी सदैव अपनी ’मूंछ‘ कि चिंता करती रहती है, तब लडकी कहती है –
मोछिया तोहार बप्पा ’हेठ‘ न होइ है
पगडी केहू ना उतारी, जी ई-ई।
टुटही मँडइया मा जिनगी बितउबै,
नाही जाबै आन की दुआरी जी ई-ई।।
शिवमूर्ति की कहानियों में यह कहानी उसी तरह उपेक्षित है जैसे कि आधुनिकता, उत्तर आधुनिकता, नारी-चेतना, दलित-चेतना, मनावैज्ञानिकता अथवा मध्यमवर्गीय-मानसिकता जैसे मुहावरों के बीच संवेदना उपेक्षित रहती है। क्योंकि केशर की वर्गीय स्थिति का खुलासा इसी बात से होता है कि ’वहां संभावित पुनर्विवाह‘ की गजाइश है, इसलिए वह है पिछडे तबके से ही। सवर्णों में पुनर्विवाह की गुंजाइश ग्राम्य-समाज में कहानी के रचनाकाल तक नहीं के बराबर रही है, हां मुक्त होते भारतीय समाज में अब उसके संकेत दिखाई पड रहे हैं, पर वे भी आपातकालीन। इसलिए इस कहानी में संवेदना उनकी सारी नाट्यात्मक कहानियों से अधिक मुखर है। तिरिया-चरित्तर‘ कहानी की असहाय आर्थिक स्थितियां और परिवेश में घुटती असहाय स्त्री की जो यंत्रणा है, उसकी तरलता केवल पाठक के आँसुओं में तिरोहित होती है। क्योंकि कहानी म कोई वर्गीय स्थितियां नहीं हैं, वरन् उसके अपने ही केशर की उन स्थितियों के लिए दायी हैं, इसलिए वहां आक्रोश अथवा कोई अन्य समकालीन मुहावरा भी काम नहीं दे पाता है यहां तक कि नारी-चेतना वाले संदर्भ भी खोखले साबित होते हैं। ’तिरिया-चरित्तर‘ के अंत में ’पाशविकता‘ के प्रति आक्रोश उत्पन्न होता है, एक सचेतस आक्रोश, ग्राम्य समाज की पशु-तल पर जीवनयापन करती अहम्मन्य-प्रवृत्तियों और नारी-दलन के क्रूरतम रूप के प्रति आँखों में खून उतर आया है, किन्तु ’केशर-कस्तूरी‘ का अंत तो पाठक को द्रवीभूत ही करता है। कारण भी स्पष्ट है कि अन्य कहानियों में जहां सहसा नाटकीय स्थितियां उत्पन्न होती हैं, वहां सामाजिक परिस्थितियां उत्तरदायी हैं, पर केशर की कारुणिक स्थिति तो ’मैं‘ के हाथों ही सृजित हुई है। ’मैं‘ जो कि केशर की आँखों में कथित विकसित समाज के आकाशीय सपने उतारता है, उसके एक सहारे से केशर की जीवन की गाडी आम ग्राम्य-जीवन की तरह घिसट सकती थी, उसकी लापरवाही के कारण वह गरीबी की कारुणिक दलदल में जी रही है।
शिवमूर्ति यहां भारतीय ग्रामीण समाज के उन सफल-सुयोग्य नागरिकों के अपनी ही व्यक्तिगत जंदगी के खोल में घुसकर जीने के सफलता के छद्म की चिंदियां उडा रहे हैं। ’सिरी उपमा जोग‘ में जहां सीधा प्रहार था, वहां ’केशर-कस्तूरी‘ में टेढे-मेढे रास्तों से। भारतीय ग्रामीण समाज की तत्कालीन परिस्थितियों में जब यह कहानी लिखी गई थी, ग्राम्य उदारता की चूलें हिल चुकी थीं। स्वयं शिवमूर्ति कहते हैं – ’उसके (केशर के) घर अलगौझा हो गया है। बंटवारे में आधा एकड खेत, एक बैल सत्ताईस सौ रुपये का कर्ज और बूढी सास मिली है। लगता है, केशर के दोनों जेठों के मन में पहले से ही बेईमानी थी। अलगौझा से पहले बडे जेठ ने अपनी दोनों लडकियों की शादी कर दी। मंझले ने गया जगन्नाथ जी का दर्शन करके बिरादरी को इफराती भोज दिया। फिर इन तीनों के खर्च से हुए कर्ज को तीन तिहाये बांटकर अलग कर दिया।……….इधर खेत के बंटवारे में भी बेईमानी कर लिए। माँ-बाप तक के बंटवारे में बेईमानी हुई है। बाप अभी तगडा है। हल कुदाल चला लेता है। उसे मंझले भाई ने अपने हिस्से में ले लिया ओर माँ जो दमे की मरीज और जर्जर है, छोटे भाई के हिस्से में पडी है…….सास गाय गौरू चराने लायक भी नहीं है। दस कदम चलती है तो पहर भर हांफती है। बडी मजबूरी हो तो किसी तरह रोटी सेंकती है।‘
केशर की यह कहानी हमारी उस ग्राम्य व्यवस्था की उस अराजक-परिस्थितियों का भी प्रकारान्तर से रूपायन करती है कि गांवों में अब गरीब का कोई हिमायती नहीं रह गया है। अब वहां सभी समर्थ के सहायक हैं। ’कसाईबाडा‘ में ’अधरंगी‘ तो है, पर यहां वह भी नहीं है, क्योंकि ’अंधरंगी‘ नाट्यात्मक स्थितियों में ही भले लगते हैं। ’संवेदना पगी, सजल पारदर्शी करुणा नदी‘ जहां तल तक का कंकड साफ दिखाई पड रहा है, वहां केवल नदी की लहरों में ही कोई शैवाल-जाल आ सकता है ऐसी ही पारदर्शी संवदेना है केशर-कस्तूरी की। मैंने इस कथा का उल्लेख खासतौर से इसलिए किया है, क्योंकि मुझे इस कहानी में षिवमूर्ति की बौद्धिकता से अधिक हृदय बोलता नजर आता है। हमारी आज की हिन्दी कहानी में जहां बौद्धिकता के जाल रूप और वस्तु में सर्वत्र छाए हैं, वहीं शिवमूर्ति की कहानियों में बौद्धिकता और संवेदन का संतुलन है। और केशर-कस्तूरी में संवेदन का पलडा भारी है। शिवमूर्ति का कोमल हृदय बौद्धिकता को कछुए के खोल की तरह काम में लेता है, ताकि संवेदन की रक्षा की जा सके। शिवमूर्ति स्वयं जब इस कहानी को अपनी पुस्तक का शीर्षक देते हैं, तो इसका कुछ तो उनके मन में एक अलग मन्तव्य रहा ही होगा। मुझे यहां केवल अनुप्रास का मोह ही नहीं दिखाई देता, जैसा कि कुछ लोग ऐसा कह सकते हैं। केशर की चरित्र सुख-सुविधाएं देख चुका है, इसलिए ग्रामीण जीवन की आत्यंतिक गरीबी को भोगने की पीडा और उसके तुलनात्मक दंश मर्मान्तक रूप से दहलाने वाले हैं। यह केशर शिवमूर्ति के मन के कोमल तन्तुओं की एक काव्य-सृष्टि हुई है, जो कहानी बनकर उतरी है, इसीलिए तो इसका अंत भी काव्य पंक्ति-सा होता है। कहानी के अंत की ये पंक्तियां कविता नहीं तो क्या है ? नयी कविता की ’गद्य-कविताओं‘ से, इक्कीस है यह कविता-
निविड अंधकार में मेरी आँखें देख रही हैं-
सिलाई मशीन के सामने बैठी गाते-गाते रोती केशर…
शर्त जीतकर छोटी-छोटी चीजें बटोरती केशर.
छत्राकार घाघरा फैलाकर नाचती केशर…..
खिलखिलाती केशर….
और बाप के कन्धे को थपथपाकर आश्वस्त करती है केशर, कि-
’नाहीं जाबै आन की दुआरी हो बपई। नाहीं जावै…..
’भारतीय ग्रामीण समाज की नारी का प्रतीक केशर जो दंश झेलकर भी अपने पुरुषों की मूंछ ऊंची रख रही है, उसे किसी आधुनिक विचारधारा की कसौटी पर नहीं परखा जा सकता इसीलिए तो शिवमूर्ति ने उसके दंश को मैथिली सीता के दंश से मिलाया है। राजन्य वर्ग में जीने के बाद भी नारी की निरीहता लोक मन ही जानता है और शिवमूर्ति से बेहतर आज के रचनाकारों में लोकमन को कौन जानता है ?लोक मन इस ग्राम्य-चितेरे से उसके पाठकों को ’करुणा से लबरेज बडे उपन्यास की प्रतीक्षा है जिसमें बाजारवाद से सुलगते जीवन को शीतलता मिल सके।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *