यह आलेख समकालीन जनमत (१६-३० नवम्बर) १९९४ में प्रथम बार प्रकाशित हुआ था। पाठकों हेतु प्रस्तुत-
मुझे अपने बचपन की याद आती है, सन 60-65 की। मेरे गांव की कुल आबादी के एक चौथाई दलित हैं। मैंने उनके बुजुर्गों को अपने बच्चों से कहते सुना है-‘बेटा, हमने बहुत मार-गारी सही है इन (सवर्णों) की। बहुत हाथ-पैर तुड़वाए हैं? तुम मत तुड़वाना। कलकत्ता, बंबई चले जाना। ठेलिया ठेलकर पेट पाल लेना लेकिन इनके हल की मुठिया मत थामना।’ इसका नतीजा सामने आया। दलित युवक ज्यादा पढ़-लिख नहीं सके लेकिन सवर्णों की मजदूरी भी नहीं की, सब ‘परदेस’ निकल गए-कमाने। आज शायद ही कोई दलित किसी ब्राम्हण-ठाकुर का हल जोतता हुआ मिले। ट्रेक्टर वह जोत रहा है तो खुद सवर्णों के लड़के भी जोत रहे हैं। और शायद ही कोई दलित हो जिसने एक कमरा सही, पक्का न बनवा लिया हो।
यह तो हुआ सवर्णों के साथ असहयोग का एक रूप। शोषण और दमन के विरोध में उठ खडे़ होने के उदाहरण भी कम नहीं हैं, मैं सात-आठ साल का रहा होऊंगा। एक ठाकुर से, जिनकी जमीन में, जमींदारी काल में मेरा घर बना था, किसी बात पर पिताजी का झगड़ा हो गया। उन्होंने मेरे खेतों पर कब्जा कर लिया। घर में ताला लगा दिया। कुछ दिनों बाद हम अपने घर में वापस लौटे और खेत के लिए मुकदमा चलने लगा। उन दिनों कभी-कभी मुकदमे की तारीख की शाम पिताजी के साथ कचेहरी से लंबी दाढ़ी-मूंछ वाले एक बाबा जी भी आते। वे दलित थे। उनके पास मात्र दस विस्वा खेत था और उस पर उनके गांव के एक दबंग ठाकुर ने कब्जा कर लिया था।
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जातीय वर्गीकरण में हममें से कुछ लोग ‘अगडे़’ भले हों लेकिन लेखक के रूप में हम सभी ‘पिछडे़’ हैं। ऐसा न होता तो जिस दलित उभार की धमक हम आज सुन रहे हैं, जब वह विकसित होकर पेड़ बन गया है,. हमारी नजरों के आर-पार देखने में अवरोध बनने लगा है, उसमें ‘सत्ता’ का फल लग गया है, उसको तभी देख लेते जब दशकों पूर्व उसमें अंकुर फूट रहे थे। आगे-आगे मशाल बनकर चलने की कौन कहे, हम मुस्तैद पिछलग्गू तक नहीं बन सके। यदि हिंदी साहित्य को सन 1940 से 60 के मध्य कोई प्रेरमचंद जैसी चेतना का दलित लेखक मिला होता तो हिंदी में दलित साहित्य और दलित चेतना, दोनों की स्थिति आज मराठी से बहुत भिन्न न होती।
जिस सांस्कृतिक संगठन की जरूरत उनके लिए हम आज महसूस कर रहे हैं, इसकी जरूरत आज से ज्यादा उन्हें दो दशक पूर्व थी। कम से कम उत्तर प्रदेश के संदर्भ में मैं कह सकता हूं कि दलित चेतना को ‘राष्ट्रीय चेतना’ तक पहुंचाने में सांस्कृतिक संगठनों की भूमिका शुन्य रही है। अभी सन् 1981-82 तक जब मैं पटना से प्रकाशित ‘जनमत’ के अंक अपने गांव के दलित और पिछडे़ युवकों का देता था, उसमें प्रकाशित ‘भूमि संघर्ष’ और उससे जुडे़ संगठनों के बारे में पढ़कर वे पूछते थे- ऐसे संगठन हमारे यहां क्यों नहीं हैं।