अभी तो हम मुस्तैद पिछलग्गू भी नहीं हैं : (शिवमूर्ति)

यह आलेख समकालीन जनमत (१६-३० नवम्बर) १९९४ में प्रथम बार प्रकाशित हुआ था। पाठकों हेतु प्रस्तुत-

रामजी राय अपने आलेख में जिसे दलित उभार करते हैं उसके बीज हमारे समाज में प्रेमचंद के जमाने से हैं। ‘गोदान’ के सिलिया प्रसंग में चमारों द्वारा मातादीन के मुंह में हड्‌डी डालने का प्रसंग इसका सटीक उदाहरण और साहित्य की क्रांतिकारी घटना है। किन्तु बाद में ऐसे दृष्टांत नहीं मिलते हैं।
              दलित चेतना या उभार में क्या-क्या शामिल माना जाए? मेरे विचार से अपने प्रारंभिक रूप में इसे भूस्वामियों और दबंग आततायी सवर्णों से असहयोग, उनका काम करने से इंकार करने, दूसरे दौर में उनके अन्याय और अत्याचार के विरोध में उठ खडे़ होने, अपने समाज में इनका विरोध करने की चेतना पैदा करने तथा अंतिम दौर में सत्ता-प्रतिष्ठानों पर कब्जा करने के रूप में देख सकते हैं। अपनी शिक्षा बढ़ाना, आर्थिक स्थिति में सुधार लाना, कुरीतियों से निजात पाना इस चेतना का एक अलग पहलू है। मुख्य मुद्‌दों पर विचार प्रासंगिक होंगे।

            मुझे अपने बचपन की याद आती है, सन 60-65 की। मेरे गांव की कुल आबादी के एक चौथाई दलित हैं। मैंने उनके बुजुर्गों को अपने बच्चों से कहते सुना है-‘बेटा, हमने बहुत मार-गारी सही है इन (सवर्णों) की। बहुत हाथ-पैर तुड़वाए हैं? तुम मत तुड़वाना। कलकत्ता, बंबई चले जाना। ठेलिया ठेलकर पेट पाल लेना लेकिन इनके हल की मुठिया मत थामना।’ इसका नतीजा सामने आया। दलित युवक ज्यादा पढ़-लिख नहीं सके लेकिन सवर्णों की मजदूरी भी नहीं की, सब ‘परदेस’ निकल गए-कमाने। आज शायद ही कोई दलित किसी ब्राम्हण-ठाकुर का हल जोतता हुआ मिले। ट्रेक्टर वह जोत रहा है तो खुद सवर्णों के लड़के भी जोत रहे हैं। और शायद ही कोई दलित हो जिसने एक कमरा सही, पक्का न बनवा लिया हो।

यह तो हुआ सवर्णों के साथ असहयोग का एक रूप। शोषण और दमन के विरोध में उठ खडे़ होने के उदाहरण भी कम नहीं हैं, मैं सात-आठ साल का रहा होऊंगा। एक ठाकुर से, जिनकी जमीन में, जमींदारी काल में मेरा घर बना था, किसी बात पर पिताजी का झगड़ा हो गया। उन्होंने मेरे खेतों पर कब्जा कर लिया। घर में ताला लगा दिया। कुछ दिनों बाद हम अपने घर में वापस लौटे और खेत के लिए मुकदमा चलने लगा। उन दिनों कभी-कभी मुकदमे की तारीख की शाम पिताजी के साथ कचेहरी से लंबी दाढ़ी-मूंछ वाले एक बाबा जी भी आते। वे दलित थे। उनके पास मात्र दस विस्वा खेत था और उस पर उनके गांव के एक दबंग ठाकुर ने कब्जा कर लिया था।

          मार  डाले जाने के डर से उन्होंने बच्चों को ननिहाल भेज दिया। खुद अपनी व्यथा-कथा गा-गाकर भीख मांगने और उस ठाकुर से मुकदमा लड़ने लगे। मारे जाने के डर से वे हर पेशी की शाम रास्ता बदलकर चलते और ऐसे में कभी-कभार हमारे घर आ जाते। यह पूछने पर कि जब जान जाने का डर है तो क्यों लड़ रहे है, संतोष कर लीजिए (उनका नाम भी संतोषी था), वे कहते-‘लंडूगा नहीं तब तो जीते-जी ही मर जाऊंगा बेटा। अपनी ही नजर में मर जाऊंगा। तब क्या मुंह लेकर जिंदा रहूंगा।’
           डाकुओं की जिंदगी का अध्ययन करें तो आप पाएंगे कि अधिकांश दलित या पिछड़ी जाति के डाकू सामाजिक उत्पीड़न और अत्याचार के चलते ही डाकू बनते हैं। यह अपने मान-सम्मान के प्रति जागृत चेतना ही है जो उन्हें विद्रोही बनने के लिए प्रेरित करती रही है। यदि गांवों में सांस्कृतिक और जमीन से जुडे़ राजनैतिक संगठनों की पैठ पैंतीस-चालीस साल पहले हुई होती, ऐसे अधिकांश डकैत इन संगठनों के समर्पित कार्यकर्त्ता होते, नछत्तर माली के आधुनिक संस्करण होते।
        यह अकारण नहीं है कि फर्जी मुठभेड़ों में मारे जाने वाले डाकुओं का अस्सी प्रतिशत दलित और पिछड़ी जाति का तथा समर्पण करने वालों का अस्सी प्रतिशत सवर्णों का होता है। सवर्ण डाकू की ‘ऐक्टिव लाइफ’ दलित और पिछडे़ की तुलना में तीन गुनी होने का कारण भी यही है कि हमारी पुलिस, नौकरशाही और राजनीतिक सत्ता सवर्ण मानसिकता की पोषक रही है, सांस्कृतिक आंदोलन का उदय जितना पहले होता, इस मानसिकता में परिवर्तन भी उतना पहले शुरू हुआ होता।
         यह दलित उभार केवल शारीरिक प्रतिरोध तक ही सीमित रहा हो, ऐसा भी नहीं है। लगभग एक दशक पहले मेरे क्षेत्र में ‘चैतू’ नाम के एक दलित लोकगायक का उदय हुआ। अपने भाषणों और गीतों के माध्यम से पिछले एक दशक में अकेले इस एक आदमी ने दलित उभार का जितना काम किया उतना अब तक कोई बडे़ से बड़ा संगठन भी शायद ही कर सका हो। भाजपा सरकार ने तो उसे अपने लिए इतना बड़ा खतरा माना कि उसके शासनकाल में उसकी सभाओं पर रोक लगाने के लिए हर उस जगह पर धारा 144 लगाई जाने लगी, जहां-जहां उसके भाषण और गीतों का कार्यक्रम रखा जाता (मेरे उपन्यास ‘त्रिशूल’ में यह पात्र ‘पाले’ नाम से आया है)। अभी तीन-चार महीने पहले मेरे ही क्षेत्र में एक दलित विद्रोही का उदय हुआ है। नाम है- जंगू।
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           दलित समाज उसे अपने ‘राबिन हुड’ की तरह देख रहा है। उसके पास क्षेत्र के ऐसे आतताइयों की (जिनमें लगभग सभी सवर्ण ही हैं) सूची है जिन्होंने जबर्दस्ती किसी कमजोर की जगह-जमीन हड़पी है या बहन-बेटी की बेइज्जती की है। वह ऐसे लोगों को अचानक पकड़ता है और पेड़ की जड़ में फंसाकर उनका हाथ या पैर (जैसी सजा जरूरी समझता है) तोड़ देता है। कहते हैं एकाध दलित अन्यायी भी ‘जंगू’ की सजा से नहीं बच सके हैं।
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           ऊपर के उदाहरण एक सीमित क्षेत्र के हैं। निश्चय ही विस्तृत भौगोलिक क्षेत्र की पड़ताल करने पर ऐस अनगिनत उदाहरण मिलेंगे जो यह स्पष्ट करते हैं कि दलित उभार और प्रतिरोध के बीज हमारे समाज में शुरू से रहे हैं।
           तब क्या कारण है कि हमारे साहित्य में एह प्रेरमचंद के बाद मुखर होकर प्रतिबिंबित नहीं होता। मान लीजिए ‘रेणु’ जमींदार परिवार के थे। उनके वर्गहित दलितों के विपरीत जाते रहे हों। शिवप्रसाद सिंह स्वयं सवर्ण थे इसलिए दलितों के प्रति सहानुभूति तक ही पहुंच पाना उनकी सीमा रही होगी, पर मैं स्वयं से प्रश्न करता हूं कि मेरे लेखन में यह क्यों नहीं है? जबकि सामाजिक या आर्थिक रूप से मेरा वर्गहित कहीं भी दलित उभार के आडे़ नहीं आता। ‘पीछड़ा’ भी हूं, भूमिहीन भी हूं। और बचपन से सवर्णों की जयादती झेलता, भोगता, देखता भी रहा हूं। मुझसे उपयुक्त व्यक्ति कौन था इस उभार और विरोध को वाणी देने वाला? फिर क्यों मैं दोयम प्राथमिकता वाली समस्याओं में मगन रहा?
            मैं अपना एक अप्रकाशित शुरूआती उपन्यास उठाकर देखता हूं, दलितों और पिछड़ों की समस्या पर सन्‌ 1968 में लिखे गए इस उपन्यास में इतनी ‘आग’ है कि छूते ही हाथ जल जाए। फिर यह लेखन नेपथ्य में क्यों चला गया? इसके अतिरिक्त और क्या कारण हो सकता है कि जिंदगी में जैसे-जैसे सुख-सुविधा बढ़ती गई, उस आग पर राख पड़ती गई।
          तो क्या भोक्ता ओर श्रोता का ‘सच’ एक जैसा नहीं हो सकता? क्या दलित या पिछडे़ द्वारा लिखा गया दलित साहित्य गैर दलित या पिछडे़ द्वारा सहानुभूति में लिखे गए दलित साहित्य से हमेशा ज्यादा ‘कैरेट’ वाला होगा? तब एक प्रश्न यह भी उठेगा कि प्रेरमचंद तो दलित नहीं थे।

            जातीय वर्गीकरण में हममें से कुछ लोग ‘अगडे़’ भले हों लेकिन लेखक के रूप में हम सभी ‘पिछडे़’ हैं। ऐसा न होता तो जिस दलित उभार की धमक हम आज सुन रहे हैं, जब वह विकसित होकर पेड़ बन गया है,. हमारी नजरों के आर-पार देखने में अवरोध बनने लगा है, उसमें ‘सत्ता’ का फल लग गया है, उसको तभी देख लेते जब दशकों पूर्व उसमें अंकुर फूट रहे थे। आगे-आगे मशाल बनकर चलने की कौन कहे, हम मुस्तैद पिछलग्गू तक नहीं बन सके। यदि हिंदी साहित्य को सन 1940 से 60 के मध्य कोई  प्रेरमचंद जैसी चेतना का दलित लेखक मिला होता तो हिंदी में दलित साहित्य और दलित चेतना, दोनों की स्थिति आज मराठी से बहुत भिन्न न होती।

जिस सांस्कृतिक संगठन की जरूरत उनके लिए हम आज महसूस कर रहे हैं, इसकी जरूरत आज से ज्यादा उन्हें दो दशक पूर्व थी। कम से कम उत्तर प्रदेश के संदर्भ में मैं कह सकता हूं कि दलित चेतना को ‘राष्ट्रीय चेतना’ तक पहुंचाने में सांस्कृतिक संगठनों की भूमिका शुन्य रही है। अभी सन्‌ 1981-82 तक जब मैं पटना से प्रकाशित ‘जनमत’ के अंक अपने गांव के दलित और पिछडे़ युवकों का देता था, उसमें प्रकाशित ‘भूमि संघर्ष’ और उससे जुडे़ संगठनों के बारे में पढ़कर वे पूछते थे- ऐसे संगठन हमारे यहां क्यों नहीं हैं।

           निस्संदेह आज भी उन्हें सांस्कृतिक संगठन की जरूरत है। पर आज उनके बीच राजनैतिक संगठन भी घुस गए हैं। न सिर्फ घुस गए हैं, वहां उन्होंने अपनी मांद बना ली हैं ऐसे में सांस्कृतिक संगठनों को उनके मध्य अपनी प्रासंगिकता प्रमाणित करना ज्यादा चुनौतीपूर्ण हो गया है क्योंकि शुरूआती दौर में राजनैतिक संगठनों के मुकाबले सांस्कृतिक संगठनों की उपयोगिता उन्हें ‘सेकंडरी’ लगेगी।

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