‘गोदान’ के पाठ में संशोधन की जरूरत’ : (शिवमूर्ति)

31 जुलाई 2014 को प्रेमचंद की स्मृति में हिंदी संस्थान लखनऊ द्वारा मुझे ‘गोदान’ पर बोलने के लिए आमंत्रित किया गया तो खुशी हुई कि इसी के चलते इस कालजयी उपन्यास को दोबारा पढ़ने का अवसर मिलेगा।
बी.ए. करने के दौरान पढ़ा था कभी। अब कथानक की धुंधली-सी स्मृति ही शेष थी।
घर में खोजा तो लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा 1999 में प्रकाशित पेपर बैक संस्करण की प्रति मिल गई। पढ़ा तो पाठ में कुछ विसंगतियां दिखीं। एक विसंगति खासी उल्लेखनीय लगी। हम सभी पढ़ते आए हैं कि होरी की मृत्यु के समय उनके खूंटे पर गाय नहीं थी। गाय की आकांक्षा उनके मन में हमेशा से थी। एक बार वह गाय ले भी आये लेकिन उसका सुख अल्पकालिक रहा। उनके भाई हीरा ने उसे जहर देकर मार डाला।
होरी की मृत्यु के समय उनके घर पर सारा गांव जमा था। उपन्यास का अंतिम अंश इस प्रकार है- ‘कई आवाजें आईं – गोदान करा दो। धनिया यंत्र की भांति उठी। आज जो सुतली बेची थी, उसके बीस आने पैसे लाई और पति के ठंडे हाथ में रखकर सामने खड़े दातादीन से बोली- महाराज घर में न गाय है, न बछिया, न पैसे। यही पैसे हैं। यही इनका गोदान है।’ (पेज 309)
बहुत ही सहज, स्वाभाविक और प्रभावी अंत।
लेकिन इस अंत के तीन पेज पीछे (पेज 306 पर) प्रेमचंद होरी की छोटी बेटी रूपा की ससुराल और उसकी मनोदशा का वर्णन करते हैं। रूपा सोचती है कि उसके दादा की बड़ी इच्छा थी कि दरवाजे पर एक गाय हो। एक बार गाय आयी तो उन्हें कितनी खुशी हुई थी। लेकिन दोबारा गाय लेने की समाई न हुई। वह आगे सोचती है- ‘ अब की वह जायेगी तो साथ वह धौरी गाय लेती जायेगी। नहीं, अपने आदमी से क्यों न भेजवा दे। रामसेवक से पूछने की देर थी, मंजूरी हो गयी और दूसरे दिन एक अहीर के मार्फत रूपा ने गाय भेज दी। अहीर से कहा – दादा से कहना, मंगल के दूध पीने के लिए भेजी है।’
इसके कुछ दिन बाद कंकड़ खोदने के दौरान लू लग जाने से होरी की मृत्यु होती है, जिसका प्रसंग ऊपर उल्लिखित है।
स्पष्ट है कि रूपा द्वारा गाय भेजने का यह प्रसंग उपन्यास के अंतिम विवरण की संगति में नहीं है। संभव है, पहले प्रेमचंद ने उपन्यास का कोई और अंत सोचा हो, जिसकी संगति में रूपा द्वारा गाय भेजने का प्रसंग रखा गया हो, पर बाद में उन्हें ‘मौजूदा अंत’ उपयुक्त लगा हो लेकिन संपादन के दौरान ‘रूपा द्वारा गाय भेजने’ की असंगति पर ध्यान न दे पाये हों। और यह अंश संपादित न हो पाया हो तथा अंतिम ड्राफ्ट में शामिल हो गया हो। पर यह असंगति है पूरी तरह apparent on the face of record, इसलिए इसका परिमार्जन होना उपयुक्त होगा।
अब प्रश्न उठता है कि उपन्यास प्रकाशित होने के 78-79 वर्ष बाद, जबकि इसके लेखक दिवंगत हो चुके हैं और उपन्यास की लाखों प्रतियां बिक चुकी हैं, यह कई जगह कोर्स में लगा है, विदेशी भाषाओं में अनूदित हो चुका है, किसको यह अधिकार है कि इसमें संशोधन करे। या जो पाठ अब तक चलता आया है, उसे बिना किसी संशोधन के ज्यो-का-त्यो चलते रहने दिया जाए।
मैं चाहता हूं कि विद्वान आलोचक, लेखक और पाठक इसका उपयुक्त समाधान सुझाएं।
यह भी स्वाभाविक नहीं लगता कि इतनी लंबी अवधि के दौरान पूर्व में इस असंगति पर किसी का ध्यान न गया हो। अतः यदि इस मुद्दे पर पूर्व में कोई मतैक्य हो चुका हो तो वह भी सबकी जानकारी में आना उपयुक्त रहेगा।

शिवमूर्ति

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— with Shiv Murti.

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