त्रिशूल (उपन्यास ) का एक अंश

त्रिशूल’ कहानी पत्रिका ‘हंस’ के अगस्त व सितम्बर 93 के अंको में प्रकाशित हुआ था। पुस्तक रूप में यह राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली से 1995 में प्रकाशित हुआ।  उपन्यास के सम्बन्ध में इसके ब्लर्ब में कहा गया है कि –

त्रिशूल’ हिन्दी के सुपरिचित कथाकार शिवमूर्ति का पहला उपन्यास है जो उनकी कहानियों की लीक से हटकर एक नए दृषिटबोध और तेवर के साथ सामने आया है। साम्प्रदायिकता और जातिवाद हमारे समाज में अरसे से जड़ जमाये बैठे हैं पर अब तक यह मुख्यत: लोटा-थाली और चुल्हा-चौका न छू जाने की सावधानी तक ही सीमित थे। पर विगत एक दशक से इनकी आग में राजनीति की रोटी सेंकने की होड़ के चलते उनके जहर और आक्रामकता में चिन्ताजनक वृद्धि हुई हैं। नतीजतन आज महानगर से लेकर गाँव तक के समाज में भयानक असुरक्षा, अविश्वास और बेर – भाव पनपा है। धर्म, जाति और सम्प्रदाय के ठेकेदार आदमी और आदमी के बीच की खाई को निरंतर चौड़ी करते जा रहे हैं।

त्रिशूल को स्थूल रूप से मंडल-मंदिर की कहानी कह सकते हैं पर वास्तव में यह आज के भारतीय समाज में व्याप्त उथल-पुथल और टूटने की कहानी है। देशव्यापी सामयिक घटना को कथ्य बनाकर लेखक जातिवाद के कोढ़ और साम्प्रदायिकता की साजिश को बेबाकी और निमर्मता से बेनकाब करता है। औछे हिन्दूवाद को ललकारता है। त्रिशूल इस तथ्य की ओर भी स्पष्टता से इंगित करता है कि इन प्रतिगामी शकितयों का मुँहतोड़ जबाब शोषण और उत्पीड़न के शिकार, दबे कुचले गरीब जन ही दे सकते हैं-दे रहे हैं।

त्रिशूल के पात्र चाहे वह पाले हो, महमूद हो, शास्त्रीजी हों या मिसराइन, यहाँ तक कि गाय, बछड़ा और कुत्ता भी पाठक के दिल में गहराई से उतर जाते हैं। 

त्रिशूल को प्रशंसा के फूल ही नहीं विरोध के पत्थर भी कम नहीं मिले। इसे जाति युद्ध भड़काने वाली और आग लगाने वाली रचना भी कहा गया। त्रिशूल पर प्रतिबंध लगाने के लिए निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा पैम्फलेटों और सभाओं के माध्यम से जो निंदा अभियान चलाया गया उससे सिद्ध होता है कि इन कालिखपुते चेहरों को बेनकाब करने, उन्हें उनका असली चेहरा दिखाने में त्रिशूल जरूर सफल हुआ है।

त्रिशूल (उपन्यास ) का  एक अंश

त्रिशूल (उपन्यास )

कहां से शुरू करूं महमूद की कहानी?
     वहां से जब पुलिस उसे घर से घसीटकर ले जा रही थी…… चौराहे पर लाठियों से पीट रही थी और मुहल्ले का कोई आदमी बचाने के लिए आगे नहीं आ रहा था।
     या…. जब इसी चौराहे पर वे लोग उसकी छाती पर त्रिशूल अड़ाकर मजबूर कर रहे थे, ”बोल साले जै सिरी राम……”
     वहां से क्यों नहीं, जब बड़ी मसिजद के परिसर में भीड़ उसे घेरे खड़ी थी और तय नहीं कर पा रही थी कि आगे क्या करना चाहिए?
…….जाड़े के कुहरे से अंधी मध्य रात्रि। पेड़ की पत्तियों से टप-टप चूता पानी। थाने के अंदर से रह-रहकर उठता उसका आर्तनाद और सुनसान सड़क पर ठंड से ठिठुरते असहाय खड़े गीले होते हम…….
     लेकिन क्या यह केवल महमूद की कहानी है?
     तब सिलसिलेवार ही क्यों नहीं?
शास्त्री अखबार में डूब गए हैं।
शास्त्री मेरे निकटतम पड़ोसी हैं।
बाईं ओर ठीक बगल का मकान है उनका। व्यसायी हैं। विधालयों, क्लबों और अन्य कई संस्थाओं में पदाधिकारी हैं। सबके दुख-दर्द में शामिल होने को तत्पर रहते हैं।
पांच महीने पहले स्थानांतरित होकर इस शहर में आया तो कोईं  सरकारी आवास खाली नहीं मिला। इस मुहल्ले में आना पड़ा। कुछ असुविधाजनक लगा था तब। सरकारी कालोनी कि अपनी अलग संस्कृति होती है। वहां सभी साल-दो साल पहले के आए होते हैं और साल-दो साल के अन्दर जाने का मन बनाए रहते हैं। प्रकृति और प्रवृतित से बनजारे। पड़ोसी से न ज्यादा लगाव हो पाता है न दुराव। जितना चाहें अपना विस्तार करें, जितना चाहें परिसीमन। जबकि पारंपरिक मुहल्लों की अपनी संस्कृति होती है। आचार-विचार का अपना स्थानीय रूढ़ तरीका। इस मुहल्ले में रहने के बाद पता लग रहा है कि वास्तव में पड़ोसी से मिलने वाली आत्मीयता क्या होती है।
सामान से लदे दोनों ट्रक आकर मकान के सामने लगे तो पड़ोसी घरों से मिसराइन, लाल बहू, मास्टराइन वगैरह अपने-अपने बरामदे में निकल आईं। बच्चे ट्रकों के इर्द-गिर्द घूमते हुए लादे गए सामान का निरीक्षण करने लगे। उन्होंने ही सबसे पहले पूरे मुहल्ले को सूचित किया, ”एक ट्रक पर तो सिर्फ गाय और उसका नन्हा बछड़ा ही है।”
ट्रक से उतरते ही मां-बेटे नन्हे प्रशंसकों से घिर गए।
इतनी विशालकाय गाय!  और साथ ही इतनी सीधी!
गाय देखकर ही फैसला सुना दिया पड़ोस की महिलाओं ने, ”कोई भला आदमी आया है। खुद भी देखने में गाय-जैसा ही सीधा।”
 उसी समय पहली बार आए थे शास्त्रीजी। अपने आठ साल के पोते के साथ। बच्चे के हाथ में रोटियों की थाली थी।
पहले शास्त्रीजी ने खुद  एक-एक रोटी गाय और  बछड़े  को खिलाई। फिर पोते से खिलवाई। और बरामदे में मेरे पास आकर बैठते हुए परिचय दिया-”मुझे शास्त्री कहते हैं। आपका बायां पड़ोसी। गाय पालनें के लिए कोटिश: धन्यवाद स्वीकारें।”
”अरे! इसमें ऐसा खास क्या…? मैने हाथ जोड़ दिए।
”क्यों नहीं साहब! गाय पालकर आप सच्चे हिंदू का धर्म निबाह रहे हैं। गो-ब्राहम्ण की सेवा! आपको देखकर ही लगता है कि आप आस्थावान व्यकित हैं। और जीवन का मूल है-आस्था।”
वे मुझे लेकर फिर गाय के पास तक चले आए। प्रशंसा-भाव से उसका निरीक्षण करते रहे। फिर पूछा, ”दूध कितना देती है?”
”यही पंद्रह-सोलह लीटर।”
”अरे वाह! तब तो पूरी ‘कामधेनु’ है काली गाय का दूध। अमृत।”
”आइए बैठिए।” मैंने उनके उत्साह को देखते हुए कहा।
”अभी जाने दें। कई कार्य हैं। हां, पड़ोसी’ धर्म निबाहने के लिए मैं आधी रात को भी तैयार रहता हूं। जब जिस लायक समझे।”
बताइए। इस मुलल्ले में न आया होता तो शास्त्रीजी जैसा ‘हीरा’ आदमी कहां मिलता?
बाद में तो शास्त्रीजी की ही प्रेरणा से मैंने प्रात: भ्रमण शुरू किया।
शास्त्रीजी की पहली हांक सबेरे पांच बजे लगती है। नींद टूट गई पकड़ में आ गया तो सारे रास्ते टहलने के फायदे बताते हैं और मेरी आस्था की ढहती भीत मजबूत करते हैं।
महमूद दो कप चाय रख जाता है।
शास्त्रीजी अखबार से ध्यान हटाते हैं और चुपचाप चाय पीने लगते हैं।
शास्त्रीजी। अर्थात नींबू की चाय। पत्नी जानती है।
जिस दिन शास्त्रीजी की हांक अनुत्तरित रह जाती है, उस दिन वापसी में उनकी भेंट अकसर महमूद से होती है। वे उसे आवाज देकर झबुआ के बारे में पूछते हैं। वह खुला होता है तो उसे बांधने का आदेश देते है। पता नहीं क्यों, झबुआ की शास्त्रीजी से बिल्कुल नहीं पटती। वे गेट के बाहर खड़े होते हैं तभी वह सूंघ लेता है। भुंकने लगता है। खुला हो तब तो लगता है ऊपर ही चढ़ बैठेगा। उसके बंध जाने के बाद ही वे अंदर आते हैं।
महमूद गाय को चारा-पानी दे रहा होता है तो उसके पास तक चले जाते हैं-
”क्या हाल है जी गौ माता का?”
छोटे बछड़े को भी शास्त्रीजी खास आदमी लगते हैं। नाटी सांवली स्थूल काया और लंबे बाल। इस पर लंबा सफेद कुर्ता, धोती और छड़ी। शस्य-श्यामल और शुभ्र-धवल का संगम। वह हौदी में मुंह डालना भूल जाता है। बाल-सुलभ कौतूहल से बड़ी-बड़ी आंखे निकालकर ताकता है। पास आने पर पैर से कमर तक क्रमवार सूंघता है।
उसकी मां शुरू-शुरू में जरूर भड़कती थी लेकिन अब नजरअंदाज कर जाती है। खड़ी-खड़ी पागुर करती रहती है। नजर तक नहीं उठाती।
महमूद को वे ‘चेला’ कहते हैं।
”चेला, तुम्हारे साहब जगे कि नहीं?”
महमूद सुनकर प्रसन्न होता है। हंसता है। ‘परनाम’ करता है। ज्यादा वात्सल्य उमड़ा तो कहते हैं-चेलवा!
”चेलवा, मालकिन से पूछ चाय मिलेगी?”
चेलवा कुर्सी पोंछकर आदर से बैठता है। वे उससे लान में लगे फूल-पौधों के बारे में पूछताछ करते हैं।
खाली कप स्टूल पर रखते हुए कहते हैं-”क्या लगा रहे हो, चेला?”
”डहेलिया है, गुरूजी। कल शाम को ले आया।”
”अच्छा। वो बडे़-बडे़ लाल फूलों वाला, सूरजमुखी जैसा? महमूद स्वीकार में सिर हिलाता है।
मेरे लिए नहीं लाए, बच्चा?”
”कल ला दूंगा।”
”सुनो। तीन गमले मंगवाए हैं, मैने भी। उनमें मिट्‌टी बनाकर भरना है। कैसे बनाते हो? एक हिस्सा बालू, एक हिस्सा गोबर की खाद….”
महमूद शास्त्रीजी का पक्का चेला बन चुका है। वह कहता है- ”मैं बनाकर भर दूंगा।”
”न हो, उसमें भी डहेलिया ही लगा दो लाकर।”
”लगा दूंगा।”
”लेकिन गोबर की खाद एकदम नीचे से निकालना, बेटा। खूब सड़ी हुई। और वो जो गेंदे के पौधे लगा आए थे बरसात में, उनमें भी खाद डाल दो। बहुत  कमजोर हैं।”
”डाल दूंगा।”
शास्त्रीजी उठते हुए विदा ले रहे हैं। लेकिन विदा लेते हुए आज उनके चेहरे पर रोज वाली चिर-परिचित मुस्कान नहीं है। मैंने शास्त्रीजी का मूंछों में मंद-मंद मुस्कुराता चेहरा ही देखा है। कभी उदास या निराश नहीं देखा।
मैं कहता हूं, ”परिक्रमा के बारे में कही गई मेरी बात से अगर आपको कुछ तकलीफ……”
वे रूक जाते हैं। बैठ जाते हैं। कहते हैं-”एक बात पूछना चाहता हूं। जानना आवश्यक है। आप आस्तिक हैं या नास्तिक?”
यह क्या पूछ लिया शास्त्रीजी ने? ऐसा आर-पार कर देने वाला प्रश्न।
मैं शास्त्रीजी को धीर-धीरे समझने लगा हूं। इसलिए डर जाता हूं। हाथ जोड़ लेता हूं-”शास्त्रीजी, आप मुझे बहुत प्रिय हैं। कहते हैं, तर्क दूरी पैदा करता है, अनास्था लाता है। मैं किसी वाद-विवाद, मत-मतांतर के नाते आपको खोना नहीं चाहता। इसलिए इस तरह के प्रश्नों में उलझना नहीं चाहता।”
वे हंसते हैं-”तर्क कोई बुरी चीज तो नहीं। नवनीत तो मंथन से ही निकलता है। साथ मजबूत रहे, इसके लिए भी जरूरी है कि एक-दूसरे को पूरा-पूरा जानें। जड़ तक जानें।”आस्तिक या नास्तिक?
”आस्तिक, यदि इस शब्द को इसके प्रचलित रूढ़ अर्थ में ही संकुचित न कर दिया जाए।”
”थोडा खुलासा करिए।”
”मै यह तो मानता हूं कि ब्राम्हण का नियामक कोई सत्ता है। किंतु यह नहीं मानता कि यह नियामक अयोध्या के राजा रामचंद्रजी महाराज हैं या थे।”
”क्यो?”
”क्योंकि ऐसा मानना ईश्वर की क्षमता और व्यापित को कमतर करके
देखना है।”
”कैसे?”
”जाने दीजिए, बात बढ़ती जाएगी।”
बढ़ने दीजिए, मगर कहिए।”
”संक्षेप में इतना ही कि मेरी कल्पाना का ईश्वर केवल हिंदुओं का ईश्वर नहीं है। वह सभी धर्मावलंबियों का है। विभिन्न धर्मो के उदभव से पूर्व था। और इनके न रहने पर भी रहेगा। विभिन्न धार्मिक ब्रांड के ईश्वर स्वयंभू नहीं। उन्हें हमने अपनी जरूरत, अपने स्वार्थ के अनुसार गढ़ा हैं इसीलिए एस्किमों  का ईश्वर विषुवत रेखा वालों के ईश्वर से भिन्न है। काले का ईश्वर गोरे से भिन्न है। यदि गाय-बैल का ईश्वर होगा तो वह शेर-बाघ के ईश्वर से भिन्न होगा। जलचरों का नभचरों से भिन्न होगा। अन्य धर्मो ने ईश्वर की कल्पना अपने समाज को नियंत्रित करने, उसकी बेहतरी के लिए की, जबकि हमने इसका उपयोग किया अपने ही भाइयों का शोषण करने और हराम की कमाई खाने के लिए। यही नहीं, हमने अपने शोषण से अपने भगवान तक को नहीं बख्शा। उन्हें कोर्ट-कचहरी तक घसीटा है। विभिन्न न्यायालयों में श्री रामचंद्र सिंह वल्द दशरथ सिंह बनाम स्टेट या श्री हनुमानजी बल्द नामालूम बनाम नगर महापालिका के मुकदमें चलते हैं। वे ‘इंक्रोचमेन्ट’ के जुर्म में ‘वांटेड’ होते हैं।”
‘शास्त्रीजी आंखें मूंदे सिर हिलाते हुए सुन रहे हैं। मैं उनकी प्रतिक्रिया जानने के लिए रूकता हूं। वे आंखें खोलकर बोलते हैं-”चलते रहिए, चलते रहिए।”
”हमने एक समुदाय के भगवान को किस तरह दूसरे समुदाय के विरूद्ध खड़ा कर दिया है, इसे स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण दे रहा हूं…”
इस बीच पत्नी ने फिर दो कप चाय भिजवा दी है। हम अपनी कुर्सियां धूप से छांह में खींच लेते हैं। महमूद गाय दुहने लगा है।
”…कुछ दिनों पहले अखबार में कुछ इस तरह की खबर पढ़ने को मिली थी-दो भाई हैं। उनके मां-बाप हैं। बाल बच्चे हैं। परिवार बड़ा हो जाने पर एक साथ रोटी-पानी नहीं निभी। किसी की नहीं निभती। दानों भाई अलग हो गए। लेकिन इस बंटवारे के दौरान गांव के ‘नारद’ लोगों के चलते दोनों के मन में एक-दूसरे के प्रति ‘मैल’ आ गई। संपत्ति के साथ-साथ मां-बाप का बंटवारा भी हो गया। एक के हिस्से में पचहत्तर बरस का बाप आया। दूसरे के हिस्से में जप्पल मां। फिर ‘शुभचिंतकों’ के सदप्रयास से आपसी खींचतान इस कदर बढ़ गई कि मां के हिस्से आने वाले भाई ने न्यायालय में मुकदमा दायर कर दिया कि उसका छोटा भाई जिसके हिस्से में बाप है, वास्तव में अपने बाप की संतान ही नहीं है। नाजायज संतान है। जब मां के पेट में वह आया, उस समय उसका बाप रोजी-रोटी के लिए परदेश गया था। गांव के शुभचिंतक गवाही के लिए तैयार हो गए। उसने मां को डोली-खटोली में लिटाया और शहर ले जाकर फाइल में हलफनामा लगवा दिया।….. साथ में यह निवेदन कि ऐसे में सारी संपत्ति का वारिस वह अकेला सिद्ध होता है। उसे दिलाई जाए।”
”अरे गजब!” शास्त्रीजी की आंखों के कोए फैल जाते हैं-”ऐसा?”
”जी हां।”
”फिर!”
”फिर क्या, शुभचिंतकों ने छोटे भाई की मदद की। उसके पक्ष में भी गवाह तैयार हुए। उसने भी अपने बाप से ‘हलफनामा’ दिलाया कि ‘लड़का’ अपने बाप का औरस पुत्र नहीं हैं वह अपनी मां के साथ ‘गोहनलगुआ’  बनकर आया था। मां के पूर्वप्रेमी की निशानी। इसलिए पैतृक संपत्ति का उत्तराधिकारी एकमात्र वह स्वयं (छोटका) है।”
अब दोनों भाई अपने-अपने हिस्से के मां बाप को लादकर आए-दिन शहर जाते हैं- एक दूसरे के खिलाफ गवाही दिलाने। ….मेरे विचार से ‘राम  जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद’ विवाद में दोनों फरीकों के भगवान इसी तरह फरीकों के शोषण के मोहरे बने हुए हैं।
”हो-हो-हो!” शास्त्रीजी हंसने लगे। उन्हें चाय सुड़कते हुए ‘छिछिनी’ आ गई है। बरामदे में बैठा झबुआ भूकंने लगा है– भौं-भौं। क्या मामला है?
वे गला खंखारकर संयत होते हैं। फिर कहते हैं, ”आप तो बिल्कुल ‘वानप्रसिथ्यों’ जैसी बात कर रहे हैं। खैर, तो आपके भगवान का स्वरूप क्या है?”
शास्त्रीजी की हंसी से मैं थोड़ा अप्रस्तुत होता हूं, फिर भी जारी रखता हूं, ”जिसे हमारे मनीषियों ने परिभाषित किया है-अणों अणीयाम। विज्ञान की भाषा में-डी.एन.ए. में समाए गुणसूत्र के रूप में। जिसके सूक्ष्मातिसूक्ष्म अणु में समाया रहता है, प्राणी की पूरी नस्ल का स्वरूप, गुण-धर्म। इसलिए महती महीयान भी। चराचर में समभाव से व्याप्त।”
शास्त्री जी के चेहरे पर पतली मुस्कान फैल जाती है। वे विदा लेते हुए कहते हैं, ”सचमुच आप धन्य हैं। कितना निष्कलुष है आपका मन, आपकी आत्मा। कोरा कागज। हम इस पर अपनी ‘आस्था’ की इबारत लिखेंगे।”
मैं उनका आशय समझने का प्रयास करता हूं।
तभी महमूद ताजी काटी गई बबूल की दस-बारह दातून लाकर उन्हें देता है। मुस्कुराता है। ”वाह चेला, वाह!” दातून पाकर गदगद हो जाते हैं शास्त्रीजी।
”बहुत गुनी, बहुत प्रेमी लड़का है यह तो। जब से आया है, मुझे बबूल के कांटो से मुक्ति मिल गई है। कहां पाए आप यह ‘रतन’?
फिर गेट तक पहुंचकर मुड़ते हैं, ”अरे चेलवा! अपने जैसा एक लड़का मेंरे लिए भी ला न खोजकर।”
”लाऊंगा गुरूजी।”
”कौन जाति है रे तू?”
”मनई।” वह हंसकर कहता है और जूठे कप लेकर अंदर चला जाता है।
ऐसे ‘हीरा’ आदमी का ऐसा बेहूदा सवाल। मैं डूबने लगता हूं।
”मिसराजी आए हैं। महमूद अंदर आकर बताता है। फिर पत्नी की ओर देखकर हंसता है। पत्नी मेरी ओर देखकर मुस्कुराती है।
मैं पूछता हूं, ”क्या बात है? यह रहस्मय हंसी क्यों?”
”वही बात।” पत्नी रहस्य खोलती है, ”मिसराइन वाली। इसीलिए तो वह उन्हें देखते ही अंदर भाग आया है।”
महमूद कहता है, ”मैं चाय-वाय लेकर नहीं जाऊंगा उनके पास।”
मैं अभी-अभी आफिस से लौटा हूं। थोड़ा आराम करना चाहता था लेकिन निकलना पड़ता है।
कुशलक्षेम के बाद वे पूछते हैं, ”चेलवा कहां है?”
शास्त्रीजी की देखा-देखी अन्य पड़ोसी भी महमूद को चेलवा कहने लगे हैं। ‘महमूद’ नाम केवल पत्नी-बच्चों तक सीमित रह गया है।
”यहीं कहीं होगा। क्या बात है?”
”कुछ काम था।”
”बैठिये, चाय पीते हैं। तब तक आता होगा। और सुनाइए। आजकल किस गांव को चर रहे हैं?”
मिसराजी बैठते हैं और सवेरे का बासी अखबार उठा लेते हैं। फिर उसी में नजर गड़ाए हुए बोलते हैं, ”हम लोग अब क्या चरेंगे, भाई साहब। चरने-खाने की पावर तो ऊपर वाले अपने हाथ में समेटते जो रहे हैं।”
ब्यालीस-पैंतालीस के दोहरे बदन वोले मिसराजी बहुत हंसमुख और मिलनसार हैं। चकबंदी विभाग में पदोन्नति पाकर जूनियर अफसर हो गए हैं। सड़क पार मेरे सामने वाले मकान में किराएदार हैं। व्यंग्य-विनोद में उनका कोई सानी नहीं। अपने विभाग पर, खुद अपने पर भी हंसने से परहेज नहीं। जर्दा-पान से चितकबरे हुए दांत और झबरैली खिचड़ी मूंछें। बटन-जैसी अंदर घुसी छोटी-छोटी आंखें, जो हंसते हुए एकदम बंद हो जाती हैं। चितकबरे दांत खुल जाते हैं।
क्लब में जमने वाली शाम की बैठकों में सुरूर में आ जाने पर भूतपूर्व हो चुके जमींदारों और बडे़ किसानों की घटियारी और जालसाजी के ऐसे-ऐसे किस्से, अपने विभाग के कई ‘कउवा’  अफसरों  के  ओछेपन  की ऐसी-ऐसी घटनाएं सुनाते हैं कि सुनने वाला थू-थू करने  लगे। खुद लेना-देना हराम समझते हैं लेकिन अपने बडे़ अफसर के अर्दली का हौसला यह सिद्ध करके बढ़ा चुके हैं कि भगवान राम के दरबार की द्वारपाली करने के दौरान हनुमानजी खुद ‘लेते’- थे। बाबा ने हनुमान-चालीसा में स्वयं खुलासा किया है-होत न आज्ञा बिन पैसा रे। बिना पैसे के प्रवेश नहीं।
अर्दली ने आगंतुकों को समझने के उदे्‌श्य से उक्त अर्धाली को एक कागज पर लिखकर अपने बैठने के स्टूल के ऊपर दीवार पर चिपका दिया था। संयोग से इसी के थोड़ा ऊपर हाकिम की नेम-प्लेट भी थी। गलती से हाकिम ने उसे अपने लिए चिपकाई गई समझ लिया था। इसके चलते उस वर्ष मिसराजी को प्रतिकूल प्रविष्ठि मिल गई थी।…..यह सब पुरानी बातें हैं।
मैं क्लब में बहुत कम जाता हूं लेकिन जिस दिन पहले से पता लग जाता है कि आज मिसराजी  और दरोगाजी, दोनों लोग पहुंच रहे हैं, समय निकालकर पहुंचता हूँ। दोनों का साथ हो जाने के बाद बाकी सदस्यों को अन्य किसी मनोरंजन की जरूरत ही नहीं रह जाती। दरोगाजी दस-बारह साल पहले सेवा निवृत्त हो चुके हैं। शरीर में अब उनकी रंगी मूंछें ही गलने से बची हैं। लेकिन गले की बुलंदी बरकरार है और गालियां तो एक भी नहीं भूली हैं। मिसराजी की बारीक चोट का मुकाबला वे अपनी इसी खनकती आवाज और अपने जमाने के नामी चोर-उचक्कों और वेश्याओं के अंतहीन किस्सों से करते हैं।
बहुत दिनों से वे मिसराजी के विभाग पर मुकदमा करने की धमकी देते आ रहे हैं। वे कहते हैं, ”जिस क्षेत्र में चकबंदी शुरू हो जाती है, वहां चोरी-डकैती बंद हो जाती है।”
”लेकिन चोरी-डकैती का चकबंदी से क्या संबंध?”
”संबंध है।” दरोगाजी मूछों में मुस्कुराते हैं, ”दरअसल जिन गांवों में चकबंदी शुरू हो जाती है, उन्हें चकबंदी वाले ही ऐसा चरकर ठूंठ कर देते हैं कि चोर-डाकुओं को मजबूरन दस-पंद्रह वर्षो के लिए वह इलाका छोड़ देना पड़ता है। और चोरी-डकैती बंद होने का प्रतिकूल असर पुलिस विभाग की चुस्ती-मुस्तैदी पर पड़ता है। वारदात के अभाव में वे आलसी हो जाते हैं।”
मिसराजी उनसे सहमत नहीं होते। उनके अनुसार यह चकबंदी वाले ही हैं जिनकी बोई हुई झगड़े की फसल-फौजदारी को पुलिस वाले काटते हैं।
मंझली लड़की चाय का ट्रे लेकर आती है, ”नमस्ते अंकल।”
”नमस्ते बिटिया। अरे चेलवा कहां गया आज? तुम्हें पढ़ाई  छोड़ चाय लेकर आना पड़ा।”
”वह काम कर रहा है, अंकल।”
”जरा उसे बाहर तो भेजो, बिटिया।”
”अच्छा अंकल।” वापस जाते हुए लड़की मुस्कुरा रही है। उसे भी पता है कि महमूद का बाहर आना उसकी मिसराइन आंटी के हक में ठीक नहीं है।
मिसराइन मुहल्ले की औरतों की नेता हैं। कद-काठी से ही नहीं, स्वभाव से भी मरदाना। समझिए, मिसराजी पर चढ़ी रहती हैं। दो-ढाई घंटे तक पूजा-पाठ करने वाली और हफ्ते में दो-तीन दिन व्रत-उपवास रखने वाली। नि:संतान होने के चलते सारा प्यार, सारा वात्सलय मिसराजी पर ही उड़ेलती हैं। इस उम्र में भी हफ्ते में दो दिन उन्हें उबटन लगाती हैं। बस एक ही लत ऐसी है जिसे उन्हें मिसराजी से छिपना पड़ता है। लत, जो छुड़ाए नहीं छूटती। जहां मिराइन की नजर में इसमें कोई बुराई नहीं, वहीं मिसराजी की नजर में यह एक अक्षम्य अपराध है। मिसराजी को शायद पता लग गया है कि उनकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर मिसराइन ने एक बार फिर चोरी-चोरी वही काम….लेकिन इसे प्रमाणित करने के लिए चेलवा की गवाही आवश्यक है।
और चेलवा है कि बाहर आने का नाम नहीं ले रहा है।
क्या करे चेलवा भी? किसकी सुने? सबेरे पांच बजे से शुरू होती है उसकी दिनचर्चा। गाय-बछड़े को चारा-पानी देने, उनका गोबर-झाडू करने और अपने दिशा-मैदान जाने से। तब तक दोनों छोटे बच्चों के स्कूल जाने का समय हो जाता है। उन्हें स्कूल छोड़ना। वापस आकर गाय दुहना। छोटे-मोटे घर के काम। आगंतुकों को चाय-पानी देना गाय-बछडे़ को नहलाना। खुद नहाना-खाना। बच्चों को वापस लाना।
इधर जब से पिताजी गांव से आ गए हैं, उसका काम डयोढ़ा हो गया है। उनके तेल-मालिश करना। नहाने के लिए पानी रखना। पूजा-स्थल झाड़ना-पोंछना। गंगाजल छिड़कना आसनी बिछाना उनके तांबे, पीतल और अष्टधातु के आधा दर्जन भगवानों को झाड़ना-पोंछना और आए-दिन नींबू या दही से रगड़-रगड़कर चमकाना। काले से गोरा बनाना। उनके बाथरूम से निकलते ही पोथी-पत्रा, आग-अगियार, भगवानों की मंजूषा, रेहल, रामायण, अगरू, चंदन, शंख, सिलोटी, घडि़याल, अगरबत्ती वगैरह पूजा की बेदी पर व्यस्थित करना। कोई बच्चा न रहा तो हाथ का काम  अधूरा छौड़कर  भी  घडि़याल बजाने की ड्‌यूटी उसी की। और कहीं तीसरे पहर उनकी पकड़ में आ गया तो रामायण या बीजक बांचकर सुनाने की डयूटी भी उसी की। वे सुनते कम क्रोधित ज्यादा होते हैं। कान के पास मुंह सटाकर जोर-जोर से बोलने की घंटे-भर की कसरत। इस काम के लिए घर का कोई बच्चा पकड़ में नहीं आता कभी। सभी जान बचाकर भागते हैं। इतना सब करते सांझ उतर आती है। शाम को साग-भाजी लाने बाजार जाना। लौटकर गाय को खिलाना। दुहना। और सबके सो जाने के बाद घंटे-भर अपने पैर की सड़ी हुई उंगलियों में दवा लगाना। सेकाई करना। पानी के आधिक्य और खून की खराबी के चलते उसके पैरों की उंगलियां बारहों मास सड़कर भात हुई रहती हैं। लेकिन यह तो हुई उसकी घरेलू व्यस्तता। इससे बढ़कर व्यस्तता रहती है उसकी जनसेवा के चलते। मुहल्ले में हम लोगों के आने की अवधि ज्यों-ज्यों बढ़ रही है, उसकी जनसेवा का आयाम विस्तार बढ़ता जा रहा है। मिसराजी के घर, मेरे दाएं पड़ोसी लालसाहब के घर, उनके बंगले में अकेली रहने वाली मास्टराइन के घर उड़ा हुआ बिजली का फ्यूज जोड़ने के लिए इसी की बुलाहट होती है। इन घरों की औरतों की ‘औरताना’ चीजें बाजार से लाने का काम भी धीरे-धीरे उसके जिम्मे लगता जा रहा है। दैनिक उपयोग की घरेलू चीजों के अलावा लालबहू को रोज दोपहर में गोलगप्पे खाने की चाट पड़ी है। लालसाहब डेली पैसेंजरी करते हैं। जिस दिन सात वाली ट्रेन से नहीं लौटते उस दिन दस बजे वाली ट्रेन से ‘रिसीव’ करने उनका स्कूटर लेकर स्टेशन पहुंचना भी महमूद के जिम्मे। इस बेगारी के लिए वे महमूद को देवर तक कह देती हैं। मास्टराइन का गैस का सिलिंडर भराने, शास्त्रीजी के गमलों की देखभाल और उनके क्लब का रजिस्टर सदस्यों के बीच घुमाने का काम भी यदा-कदा महमूद के जिम्मे पड़ने लगा है। पत्नी इन दिनों महमूद की जनसेवा से इतनी त्रस्त हो चुकी है कि आए-दिन खीजती और भुनभुनाती है।..उस पर गवाही-साखी की नौबत ऊपर से।
दरअसल, मिसराइन ‘सरजूपारी’ हैं। उनका मायका सरयू के उत्तर में बस्ती, गोरखपुर या देवरिया जिले के किसी अंचल में है जहां ब्राम्हणों में मांसाहार आम है। मिसराइन बचपन से मछली खाती आ रही हैं। चाट पड़ गईहै। इधर मिसराजी ठहरें सरयू और गंगा के बीच वाले भू-भाग के, जहां ब्राम्हणों के मांसाहारी होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कम-से-कम चौके में। खुलेआम। इस भू-भाग के तो चौथे वर्ण के खूंखार मांसाहारी भी अगर अयोध्या जाकर राम-राम सुन लेते हैं, कंठीधारी ‘भगत’ हो जाते हैं तो मांसाहार को तिलांजलि दे देते हैं। मिसराजी ठहरे शुद्ध शाकाहारी।
मिसराइन कहती हैं-उनके मायके वाले मिसराजी से ज्यादा ब्रम्ह तेज वाले ब्राम्हण हैं। ‘चितपावन’ या ‘पंतितपावन’ जैसे गोत्र के। उन्हें मछली खाने से पाप नहीं लगता। मिसराइन क्या कर सकती हैं। मिसराजी के पुरखों ने लालच में पड़कर अपना ‘तेज’ गंवा दिया। बहुत पहले की गई गलती। राजा दशरथ के जमाने की। राजा दशरथ को श्रवणकुमार की हत्या से जो ‘ब्राम्हण-दोख’ लगा था, उससे मुक्त होने के लिए उन्होंने ब्रम्ह-भोज दिया। सरयू के उत्तर वाले ब्राम्हणों ने तो इसमें जाने से इंकार करके अपनर ‘ब्रम्ह-तेज’ बचा लिया लेकिन दक्षिण वाले दक्षिणा में मिलने वाली स्वर्णमुद्रा के लालच में आ गए। और लालच में हुआ ‘तेज- का नाश। युंग-युगांतर के लिए मछली खाने की पात्रता से वंचित हो गए। पाप पडे़गा…. मिसराइन फंसी हैं तो अपने बचन के फंदे में। ‘सुहागरात’ में दिया गया वचन। मछली न खाने का।
तब वे इस ‘लत- की ‘टान’ का अंदाज नहीं लगा सकी थीं। और अब मौका मिलने पर इसी बचन का अतिक्रमण कर जाती हैं। घर में पका नहीं सकतीं, इसलिए यदा-कदा महमूद के हाथों होटल से मंगाकर खा लेती हैं। मिसराजी इसी मामले में महमूद की गवाही चाहते हैं। महमूद के बारे में उनका विश्वास है-कुछ भी हो, लड़का झूठ नहीं बोल सकता। लेकिन मिसराइन भी आश्वस्त हैं-कुछ भी हो, लड़का कभी टूट नहीं सकता। चांद टरे सूरज टरे….और सच बोलने के डर से छिपता-भागता महमूद। मिसराजी की तीसरी बुलाहट पर महमूद के बजाय पत्नी निकलकर आती हैं, तौलिए से हाथ पोंछती हंसती हुई।
”क्या है, भाई साहब? काहे चेलवा-चेलवा की रट लगाए हैं? मियां-बीबी के झगड़े में चेलवा को क्यों सानते हैं? आप चोरी से चेलवा से क्लब में दारू की बोतल मंगाते हैं तो क्या वह मिसराइन का गवाह बनता है? तब आपका गवाह क्यों बनेगा? जैसे मिसराइन आपका मुंह सूंघकर बूझ लेती हैं, वैसे आप उनका मुंह सूंघकर बूझिए।”
रामवादी पार्टी के रथी नेता को विरथ किये जाने के बाद इस पार्टी के लोगों का रूख आक्रामक हो गया था। लोगों के गले में रामनामी गमछे और वाहनों पर केसरिया ध्वज नजर आने लगे थे। इधर कई दिनों से शास्त्रीजी से मुलाकात नहीं हो रही थी। खबर मिलती थी कि वे रात-दिन भक्तों को अयोध्या भेजने की मुहिम में लगे हैं। अयोध्या जाने के लिए कृतसंकल्प लोग, खासकर नेतागण आसन्न गिरफ्तारी की आशंका से अपनी पहचान गुप्त रखने के प्रयास में लगे थे। जो रामवादी पार्टी के रंग में नहीं रंग पाए थे,  वे रामवादियों के कृत्यों को तटस्थ होकर देख रहे थे। रामवादी बहुत बड़ी बहुत पुरानी पार्टी थी और युगों से जनमानस पर उनके नाम का दबदबा था। इसलिए विपक्ष में मुखर होने वाले लोग कम थे। चाय-पान की दुकानों पर मुफ्त में अथवा रियायती दाम पर उपलब्ध कराए गए उत्तेजक भाषणों के कैसेट बज रहे थे। भीड़ उसका आस्वादन कर रही थी।
ये हफ्तों पहले की बातें हैं।
फिर अभी तीन दिन पहले दिन-भर आशंकित रहने के  बाद शाम को खबर मिली कि कुछ दुस्साहसी रामभक्तों द्वारा ढांचे के गुंबद पर चढ़कर केसरिया ध्वज फहराया गया और दीवारों को क्षति पहुंचाई गई। समाज में इस तरह की आत्मघाती असहिष्णुता पनपने की प्रवृतित को लेकर दुखी था कि अचानक शास्त्रीजी के घर से घंटा-घड़ियाल और शंखनाद की गूंज सुनाई पड़ती है। पत्नी और बच्चे कौतूहल में बाहर चले गए हैं। थोड़ी देर बाद पत्नी लौटती हैं और मेरे हाथ में लड्‌डू का चूरा देते हुए बताती हैं, ”शास्त्रीजी हैं। लड्‌डू बांट रहे हैं।”
”किसलिए”
”उनकी पार्टी ने मस्जिद पर केसरिया लहरा दिया, की खुशी में बहुत खुश हैं। कह रहे हैं कि मुख्यमंत्री होश में आ गया होगा। कहता था-परिंदा पर नहीं मार सकता।… और भी कई लोग हैं। मुहल्ले के लड़के हैं।”
शास्त्रीजी हो-हो करके हंस रहे थे। हंसते-हंसते उनकी धोती खुल गई।
”यह कोई हंसने की बात है?” मैं हाथ में रखा लड्‌डू का चूरा उनकी ओर बढ़ा देता हूं, ”लो, रखो।”
”खा लीजिए। भगवान का ‘प्रसाद’ है।”
”ऐसे ‘प्रसाद’ की ऐसी की तैसी। भागो यहां से।” मैं गुस्से में उन्हें डांटता हूं।
मुझे शास्त्रीजी के इस व्यवहार पर हैरत हो रही थी। इसका मतलब मुझमें आदमी पहचानने की क्षमता रत्ती-भर भी नहीं है।
”महमूद को भेजिए। मेरा सिर दर्द से फटा जा रहा है।”
”उसे तो शास्त्रीजी ने लड्‌डू बांटने के काम में लगा दिया है। मुहल्ले के जिन घरों के लोग उनके यहां नहीं पहुंच सके, ऐसे लोगों के लड्‌डू पहुंचाने गया है।”
”उस उल्लू के पठ्‌ठे को क्या पड़ी थी लड्‌डू बांटने की?”
”लाइए, सिर मैं दबा देती हूं।”
”नहीं, तुम जाकर लड्‌डू खाओं। मुझे बस एक कप चाय भेज दो।”
रात देर तक नींद नहीं आई। करीब बारह बजे पत्नी आकर बताती हैं, बाहर कई लोगों के साथ शास्त्रीजी आए हैं।”
मैं कहता हूं, ”जाकर बता दो, तबियत खराब थी। सो गए हैं।”
सवेरे पता चलता है-वे लोग मिठाई के नाम पर पत्नी से इक्यावन रूपए लेकर ही टले। पत्नी ने शाम को यह सोचकर मुझे नहीं बताया कि मैं देने नहीं दूंगा।
…और आज सवेरे फिर पत्नी जगाकर बताती हैं, ”शास्त्रीजी आए हैं। मैंने ड्राइंग-रूम में बैठा दिया है।”
”फिर सवेरे-सवेरे शास्त्रीजी का मुंह देखना पडे़गा?”
लेकिन कोई उपाय नहीं। मैं आंखें मींचते हुए आता हूं।
उनके हाथ में ताजा अखबार है।
”हद हो गई मान्यवर। जब देश जल रहा है, अयोध्या जल रही है, आप निश्चिंत  सो कैसे रहे हैं?”
मैं उन्हें शांत स्वर में आश्वस्त करता हूं ”मुझे पूरा विश्वास है कि इस काम के लिए आप, आपके लोग ही काफी हैं।”
पता नहीं वे क्या समझते हैं और आश्वस्ति  में सिर हिलाते हैं, ”सो तो है। सो तो है। लेकिन एक बहुत दुखद खबर है। आपको शायद अभी तक मालूम नहीं है। अयोध्या में मुख्यमंत्री ने कार-सेवकों पर गोली चलवा दी। सैकड़ों लोग मारे गए हैं। हजारों घायल हैं। त्राहि-त्राहि मची है। जरा अखबार तो देखिए।”
”कार-सेवकों ने भी तो अंधेर कर रखा है, शास्त्रीजी। उस दिन मस्जिद पर चढ़ गए। उसे तोड़ने, बम से उड़ाने की सकमें खा रहे हैं। कोई सरकार कब तक बर्दाश्त करेगी और गोली तो आप लोग खुद चलवाए हैं। तीस तारीख को उतना उत्पात करके पेट नहीं भरा था जो आज तक वहां घेरा डाले पड़े हुए हैं।”
”पहली बात तो यह है कि उसे मस्जिद नहीं मंदिर कहिए…”

”कुछ भी कह लीजिए। लेकिन जो कुछ हो रहा है और आगे होगा, वह आप लोगों के और इस इलाके के दो-चार अखबारों के चलते ही हो रहा है। जितना जहर उगल सकते हैं, आप लोग मिलकर उगल रहे हैं। ऐसे में गोली नहीं चलेगी, खून-खराबा नहीं होगा तो क्या होगा? सरकार की नजर में तो हिंदू-मुसलमान दोनों बराबर हैं। वह तो दोनों की है।” शास्त्रीजी अचानक तैश में आ जाते हैं, ”जब धरम के नाम पर इस मुसलमानों ने देश की छाती चीरकर दो टुकडे़ कर दिए तो फिर यहां क्या करने के लिए रह गए? अपनी ऐसी-तैसी कराने…..?”
ठीक इसी समय महमूद हम दानों के बीच चाय के कप रख रहा है।
यद्यपि शास्त्रीजी का मेरे घर आना-जाना पिछले चार-पांच महीनों से है लेकिन कभी उन्होंने महमूद का नाम जानने की कोशिश नहीं की। एक बार उत्सुकता भी दिखाई थी तो उसकी जाति जानने की। मेरे ‘महमूद- संबोधन पर भी कभी गौर किया होता तो जान सकते थे कि रोज-रोज उनके लिए दौड़कर कुर्सी लाने वाला, मुस्कुराकर स्वागत करने वाला, बबूल की दातून देने और नींबू की चाय पिलाने वाला यह लड़का भी मुसलमान है। जब निश्चय ही वे उसके मुंह पर इस तरह गाली-गलौज की भाषा में बात न करते। मैं महमूद के चेहरे को देखने लगा। टेबल पर गिरी चाय को झुककर पोंछते हुए उसका चेहरा निर्विकार था। प्रतिक्रियाहीन। क्या यह बहरा है? तब? गाली खाकर भी कोई इस तरह प्रतिक्रियाविहीन कैसे रह सकता है?
शास्त्रीजी अपनी रौ में बहे जा रहे हैं, ”मैं कहता हूं, अभी भी वक्त है कि इन ‘कटुओं’ को खदेड़कर पकिस्तान भगा दिया जाए। वरना पचास साल बाद क्या होगा, जानते हैं?”
शुक्र है कि महमूद अंदर जा चुका है।


शहर में अस्थि-कलश आया है।
खुली ट्रक के पीछे तख्त रखकर मंच बनाया गया है। उस पर केशरिया कपड़ों की पृष्ठभूमि में रखे हैं-विशाल लाल कपडे़। माल्यार्पित। चंदन खंचित। अस्थि-कलश भेजने में पूरी तत्परता दिखाई जा रही है। जैसे ही खबर पहुँचती है-अमुक गाँव के रामगरीब और घसीटे नाम के दो राम-भक्त पंद्रह दिन बाद भी वापस गाँव नहीं पहुँचे, उनके अस्थि-कलश रवाना कर दिए जाते हैं। इन अस्थि-कलशों में उन राम-भक्तों की अस्थियाँ कितनी होती हैं यह प्रश्न ही निरर्थक है। हमारे पड़ोसवाले गाँव के एक महंथजी दक्षिण भारत में गंगा-जल वितरित करने जाते थे। जिस क्षेत्र के साथ भगीरथजी ने अन्याय किया था, उन्हें न्याय दने। ‘गंगा चली भक्तों से मिलने’ कार्यक्रम के अंतर्गत। हर साल दशहरे के दिन वे हाथी पर गंगा-जल का ‘सागर’ लादकर प्रस्थान करते हैं और वर्षा-ऋतु आने तक अनवरत वितरण करते हैं। गंगाजी की ऐसी महिमा कि आठ-नौ महीने लगातार वितरण के बावजूद ‘सागर’ एक बूँद भी खाली न होता। वापसी में महंतजी को यह जल किसी नदी-पोखर में खाली करना पड़ता। उनके भी कभी किसी ने प्रश्न नहीं किया होगा-सागर के जल में गंगा-जल का क्या प्रतिशत है? यही स्थिति अस्थि-कलश के संबंध में भी है। यहाँ भी प्रश्न ‘अस्थियों’ का नहीं ‘आस्था’ का है। इसलिए तर्कातीत है।
कुछ विदेशी अफवाह फैला रहे हैं कि इसी त्वरित और सुलभ व्यवस्था के चलते हुए राम-भक्तों को खुद अपने अस्थि-कलशों पर माल्यार्पण का सौभाग्य मिल रहा है। लौटने में देरी के चलते घर के लोग चिंतित होते हैं-कहीं अयोध्या गोलीकांड में मरे राम-भक्तों में उनके रामभरोसे और घसीटे भी तो नहीं? पुछताछ  करते हैं। पूछताछ ऊपर ‘पास-आन’ की जाती है। और अगले दिन उनका अस्थि-कलश उनके गाँव में । उधर रामभरोसे और घसीटे पास का पैसा खत्म हो जाने, सवारी न मिल पाने या बुखार आ जाने के चलते पंद्रह दिन विलम्ब से आपने गाँव पहुँचते हैं तो उनका सौभाग्य इंतजार कर रहा होता है, उनके अपने अस्थि-कलश पर उनके अपने ही करकमलों द्वारा श्रद्धा-सुमन अर्पित कराने का।
सवेरे से अस्थि-कलश शहर के विभिन्न हिस्सों में घूम रहा है। श्रद्धालु माथा टेक रहे हैं। श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं। आडियो-कैसेट पर साथ-साथ अयोध्या के गोलीकांड का आँखों देखा हाल सुनाया जा रहा है। जहाँ  अन्य शहरों में कर्फ्यू लगने के हालात पैदा होते जा रहे हैं, यहाँ अभी तक शांति थी। आज वातावरण में तनाव, आशंका और आक्रोश की गंध फैल रही है। नदी के उस पार मुस्लिमबहुल इलाके में अघोषित कर्फ्यू की स्थिति पैदा हो गई है। दुकानें बहुत कम खुली हैं। सड़कों पर सन्नाटा है।
नदी के इस पार हम लोगों के मुहल्लेवाले हिस्से में ज्यादातर सरकारी कार्यालय, बस स्टेशन, रेलवे स्टेशन और सरकारी कर्मचारियों की कालोनी है। इस पार आक्रोश चरम सीमा पर है। लोग चाय-पान की दुकानों पर दस-दस, पाँच-पाँच के झुंड में बहस कर रहे हैं। भविष्यवाणियाँ कर हरे हैं।
हमारे मुहल्ले के निकासवाले चौराहे पर भी आज रोज से ज्यादा भीड़ है। अस्थि-कलश का रथ अभी घंटा-भर पहले इसी चौराहे से होता हुआ शहर से बाहर गया है। इसके तुरंत बाद किसी खिसकढे़ आदमी की पिटाई हुई है। उसने किसी राम-भक्त से पूछ लिया था-सुनते हैं आपकी पार्टी सत्ता में आई तों हनुमान चालीसा को राष्ट्र-गान घोषित कर देगी।
अँधेरा धीरे-धीरे उतर रहा है।
महमूद सब्जी का झोला सायकिल के हैंडिल में टाँगे बाजार से लौट रहा है। चौराहे की चाय की दुकान पर खड़े लड़कों में से एक लपक कर उसी सायकिल का हैंडिल खींच लेता है-रूक बे, कटुए।
महमूद गिरते-गिरते बचता है। सायकिल से उतरते ही लड़कों से घिर जाता है। हैंडिल खीचनेवाला लड़का गुर्राता है, ”साले, हिंदुओं के मुहल्ले में क्या करने जा रहा है?”
दूसरा कहता है, ”झोले की तलाशी लो साले की। जरूर बम छिपाए होगा।” वे झोले में झाँकते हैं।
महमूद बताता है, ”यह साहब का सामान है। मैं उनके घर काम करता हूँ।”
”तुम साले उसके दामाद हो?”
दूसरा पीछे से कालर पकड़कर खींच लेता है। सायकिल गिर जाती है। आलू-बैंगन इधर-उधर बिखर जाते हैं।
एक उसके बाल पकड़कर हिलाता है और दूसरा दो हाथ लंबा त्रिशूल उसके गले पर अड़ाकर पान से लाल मुँह टेढ़ा करके कहता है, ”बोंल साले, जै सिरी राम!” भीड़ जुटने लगती है।
”बोलता है कि यही त्रिशूल तेरी….”
भय से महमूद की आँखें चित्ती कौड़ियों की तरह फैल जाती हैं।
”पैंट खोल साले की।”
”बोल, राम हमारे बाप हैं।”
”अल्ला अकबर पाप हैं।”
”नहीं बोलेगा? तेरी माँ की_…..”
धम-धम-धम। लात-मुक्के बरसने लगते हैं। वह नीचे गिर जाता है।
”मुर्गा बन साले। बन मुर्गा।”
वह फौरन मुर्गा बन जाता है।
तभी सायकिल के पीछे दूध का बाल्टा लटकाए एक नौजवान दूधिया आकर रूकता है। शायद चायवाले को दूध देता होगा। सायकिल के दोनों तरफ पैर टिकाकर वह अभी ठीक से खड़ा भी नहीं हो पाता कि एक लड़के की नजर उस पर पड़ती है। वह आवाज देता है, ”ऐ दूधवाले। इधर सुन।”
दूधिए को इस तरह ‘रेरी’ मारकर बुलाया जाना नागवार लगता है। वह बिना नीचे उतरे जबान ऐंठकर पूछता है, ‘का है?”
लड़का इतनी भीड़ को साथ पाकर सुरूर में है। अभी थोडे़ दिन पहले आरक्षण-विरोधी आंदोलन के दौरान इसी चौराहे पर उसने एक दूधिए को जबरदस्ती रोककर उसका दूध लड़कों को पिला दिया था। इस गँवार देहाती भुच्च का अकड़ना उसे अपनी शान में गुस्ताखी-जैसा लगता है। वह लपककर दूधिए का हैंडिल  पकड़ता है, ”उतर नीचे।”
बाकी लड़के भी उसे घेर लेते हैं। इस बीच मौका पाकर महमूद सायकिल उठाकर भाग खड़ा होता है।
”क्यों रे। मैं तुझे ‘मुसल्ले’ की सवारी कराना चाहता था और तू अकड़ता है।”
दूधिए की समझ में कुछ नहीं आता। वह नीचे उतर आता है। सायकिल बाल्टे के सहारे टिक जाती है। हैडिल का पकड़ा जाना ही उसे भड़काने के लिए काफी था। साथ ही उसे अपने दूसरे दूधिए भाई का हश्र भी याद आया होगा। वह लपककर हैंडिल पकड़ने वाले लड़के के थोबडे़ पर एक भरपूर झापड़ थाप देता है।
बाकी लड़के हाथापाई शुरू करते हैं तो वह चायवाले की झोपड़ी से एक बाँस खींचता है और भाँजने लगता है। लड़के भाग चले हैं। भाग रहे लड़कों में से एक मोटे बेडौल को वह पीछे से कालर पकड़कर झटका देता है। किसी सेठ महाजन का लड़का है। कई पिढ़ियों की मलाई उसकी गोल-मटोल देह में ‘दलदल’ कर रही है। झटका खाकर भद्‌द से नीचे गिरता है तो दूधिया उसकी छाती पर चढ़ बैठता है। वह घिघियाने लगता है। आस-पास के लोग हँसने लगते हैं। दूधिए का गुस्सा नरम पड़ जाता है। बाकी लड़कों का कहीं पता नहीं। वह छाती पर से उठते हुए बड़बड़ाता है-जो बारहो बरन की जनमभूमि है, जिसके लिए सचमुच मोर्चे पर कटना-मारना पड़ता है, वहाँ जाते गाँड़ फटती है। वहाँ। कटें -मरें हम औ ये ससुर नकली जनमभूमि के नाम पर फिरी का दूध पीने निकले हैं। जिस जनमभूमि से निकले हैं अभी उसकी दरार भी नहीं भरी होगी ठीक से। पता नहीं वह जमाना कब आएगा जब इन ससुरों की फौज में जबरिया भर्ती शुरू की जाएगी। वहाँ गोली हमारे भाई-बंधू खाते हैं। बहन-बेटियाँ हमारी राँड़ होती हैं। और ए ससुरे करोड़ों का माल चूतर के नीचे दबाए दिन-भर गद्‌दी पर बैठे पर्र-पर्र पादा करते हैं।

मंच पर हैं बाबा पागलदास, लोकगायक पाले। एक वृद्धा सधुआइन। शायद पागलदास की घरवाली हों। पीछे की ओर ढोलकिया तथा मंजीरा हारमोनियम और झाँझ बजानेवाले। ठीक पीठ पीछे दो सहयोगी गायक।
पाले का चेहरा काफी भव्य है। खिचड़ी लंबी दाढ़ी और चौडे़ गलमुच्छे। सिर पर सफेद साफा। सफेद कमीज-धोती। कद भी काफी लंबा। ऊँची लंबी नाक और चमकती हुई आँखें। उम्र पचास से कम नहीं लेकिन शरीर गठा और पतला। बाबा पागलदास और सधुआइन भी सफेद कपड़ों में।
हजार-डेढ़ हजार की भीड़ हो गई है। आने का सिलसिला जारी है। पाले के साथ अंगरक्षक के रूप में चलनेवाले पचीस-तीस लोग मंच के चारों तरफ लाठी सहित बैठे या खड़े हैं। इनके अलावा पचास-साठ और स्वयंसेवक हैं, जो भीड़ में चारों तरफ फैलकर उन्हें सिलसिले से बैठा रहे हैं।
हलो! हलो!-मिस्तिरी माइक ठीक करता है।
बाबा पागलदास खडे़ होकर हाथ हिला-हिलाकर लोगों से शांति से रहने की अपील करते हैं। फिर बोलना शुरू करते हैं-
”साई के बंदों! आज का दिन इस कुटी के लिय यादगार दिन रहेगा जो आज भक्त राज पालेजी महाराज हमें धरम की राह दिखाने के लिए यहां पधारे हैं।_….. हम तो भगोडे़ और स्वार्थी हैं। काहें कि करतब करने, जूझने से डरें। भागकर इस चोले में शरण लिए।  इसलिए भगोड़े। और परलोक की चाहना में पडे़ तो स्वार्थी। पालेजी सच्चे परमार्थी! देश-जाति के हित के लिए निकल पडे़ हैं। इसलिए हुए भक्त-राज। उनकी बानी आप सब सुनें और अपने-अपने अंतर मा गुनें। एक बात का खुलासा सकल गुरूभाई और सुन लें कि यह सतसंग अपनी आत्मा की शुद्धि के लिए है। किसी से बैर-विरोध बढ़ाने के लिए एकदम नहीं _…..” वे रूककर भीड़ का रूख परखते हैं। एकदम शांति। तभी मेरे पीछे से कोई कूट करता है, ”इहौ सरवा खँजड़ी बजाते-बजाते फुटानी छाटना सीख गया।”
कुछ लोग गुस्सें में उधर घूरते हैं। किसने कहा, पता नहीं चलता। अब पाले खड़ा होता है। बाबा पागलदास और सधुआइन को बंदगी करता है फिर उपस्थित श्रोताओं को।_…..
”भाइयों! छोटे-बडे़, अमीर-गरीब, पेड़, रूख, नदी, पोखर सबको मेरी बंदगी।_…. अभी-अभी आपने अयोध्याजी, में अजबै नजारा देखा। धरम का हाहाकार।_…… कुछ लोग हमारे धरम का रोजगार करने निकल पडे़। हमारे भाई लोगों को बलि चढ़ाने का रोजगार। जैसे बलि देने के पहले बकरे को टीका लगाते हैं वैसे ही वे हमारे माथे पर धरम का टीका लगाने के लिए गाँव-गाँव घूमने लगे ताकि हम धरम के नाम पर मूँड़ कटाने में आनाकानी न करें। तो हमें अपने भाइयों को सावधान करने के लिए निकलना पड़ा। हम लड़ाई-झगड़ा और फौजदारी करने के लिए नही निकले हैं। हम सारी बात बेद-पुरान और कलमा-कुरान से परमान देकर बोलते हैं। धरम का रोजगार नई बात नहीं है। इस रोजगार में मुनाफा बढ़ाने के लिए जमकर मिलावट की गई है।
”जैसे सुल्तानपुर के राधे बनिया का मिलावटी सरसों का तेल खाकर सैकड़ों लागों की आँखें फूट गई थीं वैसे ही इन मिलावटी धरम से हमारे ‘सत्त’ की आँख फूट रही है। राधे बनिया तो अभी तक जेल में बैठा चक्की पीस रहा है लेकिन_….. ए धरम के ठेकेदार बाहर रहकर अभी भी माल-पुआ चाभ रहे है। तो हमसे रहा नहीं गया, सहा नहीं गया। हम निकल पडे़ हैं। कुटी पर आए हैं अंतर का उजियारा प्राप्त करने। अंतर में उजियार भयौ तब साँच कि झूठ परयो लखि आपै। इसी अंतरजोति से हम असली और मिलावटी को परखेंगे।_…. हमें जानना है कि धरम क्या है? फिर_… मिलावट क्यों है? मिलावट क्या है? करने वाले कौन हैं? ‘राधे बनिया’ के खनदान वालों को कैसे पहचाने?
”धरम क्या है? हिंदू है? मुसलमान है? न_—। फिर? हमें बताइए गुरू धरम क्या है? चेले का धरम क्या है? बाप का धरम? बेटे का धरम? गृहस्थ का धरम? साधू का धरम_.. तो धरम माने डयूटी। करतब! हमारे धरम में मिलावट की गई। वह जहरीला हो गया। पूछिए किसने किया मिलावट और क्यों? मेरे अपने सगे छोटे भाई ने किया। अपने को मुझसे बड़ा बनाने के लिए किया। मेरा सबसे छोटा भाई पढ़-लिखकर साहब बन गया । मैंने पढ़ाया-लिखाया। कपड़ा दिया। किताब दिया। स्कूल जाता तो मेरा पैर छूकर जाता। साहब हो गया तो अकेला होने पर तो पैर छूता। कोई और रहता तो न छूता। बाद में शहर से स्टेशन पर उतरता तो चाहता कि उसका बिस्ताराबन्द मैं ही ढोकर ले चलूँ गाँव तक। दस साल में इतना बड़ा साहब हो गया कि मुझे ही प्रमाण करना छोड़ दिया। अब मैं ही प्रणाम करता हूँ उसे। वह झेंपता नहीं। खुश होता है। डरता हूँ कि चार-छ: साल में मुझे चार आदमी के सामने अपना भाई मानने से ही इनकार न कर दे।_…तो क्या यही है छोंटे भाई का धरम? उसने धरम में मिलावट कर दिया।”
”बोलता तो चौचक है ही। ” मेरे बगल में कोई कहता है।
”विश्वास नहीं होता कि नीच जात है? चेहरे पर इतना तेज! यह नाक-नक्श!” दूसरा फुसफुसाता है।
”आखों की चमक देखिए।”
”जरूर किसी ऊँची जाति का बीज है। नीच जाति का खून इतना फड़केगा?” दोनों दबी हँसी हँसते हैं।
”बीज-दान करते समय इसके बाप छिनने ने सोचा भी न होगा कि अपने लोगों के लिए कंटक बो रहा है।”
”चुप रहो जी। जरा सुनने दो। ”
मैं देखता हूँ, सबर्णों की संख्या भी कम नहीं है भीड़ में। सुनने की उत्सुकता उन्हें भी खींच लाई है। खासकर युवकों को।
भीड़ बढ़कर ढाई-तीन हजार हो गई है।
”धरम में मिलावट की कुछ बानगी देखिएं कहा गया धरम प्रधान विश्व रचि राखा। जो जस करइ सो तस फल चाखा। चौपाई तो बाद में लिखी गई। बात बहुत पुरानी है और सोलह आना पक्की।.. लेकिन स्वार्थी लोगों, हराम की खानेवालों ने इसमें एक पूँछ लगा दी-पिछले जनम की। पिछले जनम में जो करम किए हों उसका फल इस जनम में और इस जनम के करम का फल अगले जनम में। अब वे झूठ दगाबाजी करके इस जनम में आपकी कमाई खाकर डकारें और आप अगले जनम का इंतजार करें। आप पिछले जनम का बहीखाता लेकर नहीं पैदा हुए लेकिन वे अपना बाँधकर लाए हैं। ‘फराडिया’ लोगों ने पुनर्जन्म की धोखे की टट्‌टी खड़ी कर दी। जो जस करइ का ‘महातम’ गया रसातल में।”
मैं भीड़ पर नजर दौड़ता हूँ। स्त्रियाँ और बच्चे भी कम नहीं हैं। स्वयं सेवकों के लिए उन्हें संभालना मुश्किल हो रहा है। धूप क्रमशः उत्तर रही है और पेड़ों के नीचे खड़ी धूप में जा रही है। धक्कम-धुक्की बढ़ रही है। मेरा कंधा पकड़कर तिवारीजी कहते हैं, ”आइए उधर पीछे टीले पर, दिखेगा भी साफ और धूप भी देर तक रहेगी।”
” हमारी अबादी कितनी है? नब्बे करोड़। और हमारे देवी देवताओं की? बानवे करोड़। छत्तीस कोटि देवता ओर छप्पन कोटि भवानी। एक-एक आदमी के कंधे पर एक-एक मुफतखोर सवारी गाँठे है। देवता कौन? मुफ्तखोर! जो हल की मुठिया नहीं थामता। कमाते हैं हम। भोग लगाता है वह। हम खटने के लिए पैदा हुए हैं और वे भोगने के लिए। और देवी-देवता भी कैसे-कैसे? गुरू की पत्नी पर चढ़ बैठता है तो कोईअपनी सगी बेटी पर_ थू-थू! इससे बढ़कर मिलावट, इससे ज्यादा गिरावट और क्या होगी?”
”देखा न।” सफेद मूँझ और घुटे सिरवाला एक अधेड़ दूसरे से कहता है, ”आ गया न अपनी लाइन पर।”
”तब्वै न मारके दाँत तोड़ दिया है लोगों ने। आगे के दानों दाँत देखिए। नकली हैं।”
”अच्छा! किसने तोड़ा?”
”परतापगढ़वालों ने। वहाँ भी ऐसे ही बकर-बकर बोल रहा था। देवी-देवताओं के खिलाफ। ऊँची जातियों के खिलाफ। लोगों ने पकड़कर लतियाना शुरू कर दिया।”
”तब से परतापगढ़ का रास्ता भूल गया होगा।”
”तब से बीस-पचीस लोग साथ लेकर चलता है।”
”सुनते हैं _…..”
”ए भाई। बहुत बोल रहे हैं आप लोग। इतना ही बात करने का शौक है तो बाहर निकल जाइए।” एक स्वयंसेवक आकर टोकता है।
”सरऊ!” उसके जाने के बाद वे घूरते हुए कहते हैं।
”सुबह-शाम आरती-कीर्तन करना और घड़ी-घंटा बजाना किसका धरम है? पुजारी का। अगर पुजारीजी कहें कि घर का काम-काज छोड़कर हमारे साथ चलिए महीने-भर अयोध्या में घंटा बजाने तो यह धरम होगा कि अधरम? महीने-भर वहाँ घंटा बजाओगे तो यहाँ बाल-बच्चे क्या खाएँगे। बाबाजी का घंटा? और पुजारी कैसे-कैसे? जो खुद कभी किसी मंदिर का घंटा नहीं बजाए। जो साँझ होते ही अपनी आलीशान कोठियों में ‘दै मुर्गा, दै दारू, दै मेहरारू’ का मंतर जपना शुरू करते हैं।_…. जिस मुरदे के घर से समसान घाट कोस-भर हो उसे वहाँ पहुँचाने के पहले सौ कोस का चक्कर लगवाना धरम है कि अधर? हमारे जिन भाइयों ने धोखे से इस मिलावटी धरम का सेवन कर लिया उनका मन मैला हो गया है। किसी-किसी का जहरीला हो गया है। अच्छा-बुरा, हित-अनहित पहचानने की नजर जाती रही है। साई के अमरित बचन रूपी पोखर में हम इस जहरीले मैले मन को धोने के लिए निकले हैं ” वह ढोलकिए पर तिरछी नजर डालता है।
धमक धमक धम
धमक धमक धम
    झैमक झैमक_…..
‘अरे, धोबी भइया मितवा हमार मन धोई दे
धोबी भइया मितवा_…….
अरे, धरम की लदनी, पखंड का गदहा
साई के दुअरवा विमल एक पोखरा
मोर मन कहै मोका ओही मा चभोर दे
धोबी भइया मितवा हमार मन धोइ दे_……..”
भाषण से कई गुना असर इस गीत का हुआ है। पब्लिक ताली बजाकर साथ दे रही है।
सहसा मेरे बगल से वही घुटे सिरवाले अधेड़ चिल्लाते हैं, ”अब नहीं सुना जाता। यह हिंदू धरम का ही कलेजा है कि जो मन में आ रहा है बोलते चले जा रहे हो। दूसरे धरम के बारे में इस तरह बोलते तो अभी तक जीभ काटकर हाथ पर रख दी गई होती।”
‘कौन है यह आदमी? किसने इसे बुलाया।”
”जिसको नहीं सुनना, बाहर जाए।”
”जो सभा-बिगार करेगा, वह लात-जूता खाएगा।”
बहुत सारे लोग खड़े होकर चिल्लाने लगे हैं।
तिवारीजी कहते हैं, रामवादी पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता हैं। अपनी बुराई पर चुप कैसे रह सकते हैं।
”शांतरहिए। शांत रहिए।” पाले सबको शांत करता है, ”सवाल किया है तो जवाब मिलेगा। बिना सवाल-जवाब के कैसी सभा? बड़के बाबूजी। जीभ काटने की कौन कहे मौका मिलने पर हमारा मूँड़ तक काटने से पीछे नहीं रहे हैं आप लोग। और आगे भी अगर मौका मिला और ताकत बची रह गई तो काटने से चूकेंगे नहीं। किसकी-किसकी बताएँ? राहु की बातएँ कि केतु की? कि शम्बूक की? कि कल की ताजी घटना एकलव्य की। सिखाया-पढ़ाया एक दिन नहीं और दक्षिणा में कटवा लिया पूरा अँगूठा। यह मूँड़ काटने से कम है? यही है गुरू का धरम? नीच-से-नीच, महानीच जाति हमारी। और नीच से भी नीच, महानीच काम तुम्हारा।”
”बसुधैव कुटुंबकम की भावना भी हमारी ही है।” बूढ़ा फिर चिल्लाता है।
एक नौजवान बीच से उठकर चिंल्लाता है, ”खबरदार जो अब बीच में कोईबोला। पकड़कर बाहर कर दिया जाएगा। यहाँ शास्तार्थ नहीं हो रहा है।”
”शांत-शांत। वह भी सुनिए। इस नारे से ऊँचा कोई दूसरा नारा शायद ही हो दुनिया में। लेकिन अपने पुरखों के इस नारे में भाई लोगों ने ऐसी मिलावट की कि एक से बढ़कर हम साढे़ चार हजार हो गए। साढे़ चार हजार जातियाँ। इसमें भी सैकड़ों तो ऐसी जिनकी परछाई पड़ने मात्र से निर्जीव लोटा, थाली, कूप, बावड़ी तक अपवित्र हो जाएँ। जितनी जाति-पाँति ओर छूआछूत बसुधैव  कुटुंबकम का नारा देनेवालों ने फैलाया।_….. इनके आदमी तो आदमी, देवी-देवता और भगवान तक जातिवादी हैं। आज से नहीं अनादि काल से। जब उन्होंने केवल दो जातियाँ गढ़ी थीं अपनी यानी देवता और परायी यानी राक्षस। हम उनके लेखे राक्षस हैं। एक भगवान हुए हैं विष्णु। कहने को पूरी दुनिया के पालनकर्ता हैं, लेकिन हैं केवल देवताओं के हितैषी। उनके अपने ही ग्रंथों के अनुसार सारे  देवता राक्षसों की लात खाते ही राँड़ की तरह रोते विष्णु के पास पहुँचते हैं और विष्णु उनके लिए राक्षसों के खिलाफ बड़े-बड़े छल करने से भी बाज नहीं आते। इसके लिए वे पद-कुपद नहीं देखते। सही-गलत नहीं देखते। देवताओं का राजा है इंद्र। और इंद्र का चरित्र जग जाहिर है। अश्वमेघ यज्ञ के घोडे़ चुराता है। तपस्वियों की तपस्या भंग करने के लिए अपने दरबार में संदिग्ध चरित्र की औरतें पालता है। ऋषियों-मुनियों तक की घरवालियाँ नहीं बच पातीं उससे। इस काम के लिए न दिन देखता है न रात। न बूढ़ी देखता है न जवान। और जगप्रसिद्ध दानी राक्षस राजा बलि का राज धोखे से हड़प् कर किसे देते हैं विष्णु? उसी व्यभिचारी इंद्र को। कहीं ऐसा भी लिखा है कि राक्षसों पर कोई मुसीबत पड़ी हो और विष्णुजी दौडे़ चले आए हो? कहीं नहीं। भूलकर भी नहीं।”
”आ गया अपनी औकात पर?” एक नौजवान गुस्से में फुकारता है, ”आज दवाई कर दी जाए।” वह गुस्से में भीड़ से बाहर जा रहा है।
”कहते हैं हमारे भगवान समदर्षी हैं। बहुत सही। जब पोथी में होते है। तो पसमदर्षी होते हैं। जब पोथी में होते हैं तो छुआछूत नहीं मानते। हम अपनी मेहरारू का जूठा नहीं खाते। वे शबरी भिल्लिन का जूठा खा लेते हैं। जब पब्लिक में भाषण देते हैं तो उनके मुँह से ‘बसुधैव कुटुम्बकम’ के फूल झड़ते हैं। लेकिन व्यवहार में क्या होता है? जरा चकाचकजी के शब्दों में सुनिए-
ढोलकिया ढोल पर थाप देता है-मंद-मंद। झाँझ और मजीरा झनकारने लगे हैं।
अरे, हो, ओ-ओ-ओ-_—-`~
छूआछूत और जाति-पाँति माँ
सगरौ मनई जरत मरत हैं
ऊपर से जब बोलन लागैं
लगै मानो फूल झरत हैं।
हा-हा-हो-हो! बहुत सही। बहुत सही!
”हम कथनी-करनी का यही अंतर समझाने निकले हैं। राम जब तक जंगल में ‘छोट भइयों’ के बीच रहते हैं तब शबरी के घर खाने और केवट को गले लगाने से परहेज नहीं करते लेकिन जैसे ही अयोध्या पहुँचते हैं ब्राम्हणवाद के चंगुल में फँसकर मैले हो जाते हैं। गर्भवती पत्नी को घर से निकालने और तपस्वी का सिर काटने लगते हैं। ऐसी खतरनाक जगह है अयोध्या। हम ब्राम्हणवाद के चंगुल में फँसकर मैले हो गए राम को धोकर शुद्ध करने निकले हैं। हमें तो ऐसा भगवान चाहिए जो हमारे थक जाने पर घंटे-दो घंटे के लिए हमारे हल की मुठिया थाम सके। अयोध्या के राजा हमारा खेत जोतने आ सकते हैं?_…..”
”धाँय! धाँय।” पूरब से फायर की आवाज आती है। सब सन्न हो जाते हैं।
सूरज का लाल गोला नदी के पानी में उतर रहा है।
कोई कहता है, ”रनवीरपुरवाले हैं। कह रहे थे, आज कोई जिंदा न लौटने पाए। पूरा-का-पूरा गाँव रामभक्तों की पार्टी का है।”
”धाँय! धाँय!”
भीड़ में आतंक फैल गया है। कुछ लोग गन्ने और अरहर के खेतों की ओर लपकने लगे हैं।
दो बंदूकधारी मंच पर पाले के दोनो ओर बंदूक तानकर ख्रड़े हो जाते हैं।
तिवारीजी खैनी ठोंसकर दाँत और होंठ के बीच में दबाते हैं और मेरा हाथ पकड़कर कहते हैं, ”अब चल देना चाहिए।”
”हम जहाँ-जहाँ धरम की धुलाई की बात करने जाते हैं, वे हमारी धुनाई पर अमादा हो जाते हैं। इतने समदर्षी हैं वे लोग की हमें अपने घर में अपनी बात नहीं करने देंगे। हजार साल से जातिवाद ये फैलाते आ रहे हैं और कहते हैं कि पाले जातिवाद फैलाता है।”
वह ढोलकिये को संकेत करता है।
धरम धम धमक”
धरम धम धमक”
”अरे, बड़े कसाई, बडे़ कसाई
राधेपांडे कसाई-ई-ई_…..”
इस बार फायर की आवाज बहुत नजदीक से आती है। तेज शोर उभरता है और भगदड़ मच जाती है।

 

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