‘पगडंडिया’ : (शिवमूर्ति)

उपन्यास का अंश

इतने सुन्दर लड़के का ऐसा दागी नाम- चोरवा।
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      दो एक बार उस टोले के लड़कों से सुना था- छत्रधारी सिंह के घर कहीं से एक गोबर-सानी करने वाली औरत आयी है। उसके साथ उसका ग्यारह बारह साल का बेटा भी है। उसी को सब चोरवा कह कर बुलाते हैं।
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     मेरा घर गाँव के पूरबी छोर पर था और छत्रधारी सिंह का बीच गाँव में। मुझे उधर जाने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। पहली बार चोरवा नाम सुन कर मेरे मन में एक साँवले बदमाश लड़के की छवि बनी थी। फिर लड़कों ने बताया- चोरवा बहुत कम बोलता है। मुश्किल से मुस्कराता है। उसकी माँ बहुत सुन्दर है। गोरी है।
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       फिर बताया- गुल्ली डंडा के खेल में उसे कोई हरा नहीं सकता। ऐसा सधा निशाना लगाता है कि डंडे की चोट खाकर गुल्ली उड़ती है तो बीघे भर दूर जाकर गिरती है।
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       – तो ऐसे गुणी लड़के का नाम चोरवा क्यों पड़ा? क्या कोई माँ अपने बेटे का ऐसा नाम रख सकती है? जरूर यह उस टोले के चाई लड़कों की करामात होगी। पेट से निकलते देर नहीं हुई कि गाँव भर के लोगों के बारे में किस्से गढ़ना शुरू कर देते हैं। खुद की उमर दस साल और किस्से गढ़ेंगे बीस साल की लड़कियों के बारे में। सही बात कैसे पता चले?
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        आखिर एक दिन उससे मिलने का मौका मिला। वह छत्रधारी सिंह के दोनों बैलों को नहलाने के लिए नदी पर ले जा रहा था। मेरे पड़ोसी लड़के बेंचू ने उँगली उठा कर बताया- वही है चोरवा।
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       मैंने दालान से अपनी कच्छी और अगौंछा लिया और नदी की ओर दौड़ चला।
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       उसने एक बैल को किनारे चरने के लिए छोड़ दिया था और दूसरे को कमर भर पानी में खड़ा करके धो रहा था। मैं भी चोरवा के पास ही पानी में उतरा और तैर-तैर कर नहाने लगा।
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       वह रह-रह कर उड़ती नजर से मुझे देख लेता फिर अपने काम में लग जाता। पहले को नहलाकर वह दूसरे को लाया। फिर दोनों को एक ही पगहे में नाध कर नदी पार तैरा दिया। वह खुद नहाने लगा तो मैं तैरते हुए उसके पास आ गया। पूछा- छत्रधारी सिंह के घर रहते हो। उसने स्वीकार में सिर हिलाया।
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       – क्या नाम है?
          वह कुछ बोला नहीं। डुबकी लगा लिया। उतराया तो मैंने फिर पूछा।
       – सब जानते हैं। तुम्हें नहीं पता।
       – वह नहीं। असली नाम?
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       उसने फिर डुबकी लगा लिया। इस बार वह मुझसे आठ दस हाथ दूर नदी की मध्य धारा में उतराया और तैरता हुआ उस पार चला गया। बैलों को वापस नदी में तैराता हुआ आया तो मुझसे काफी दूर नीचे की ओर किनारे लगा। दौड़ते हुए आकर अपने कपड़े और लाठी उठाया और उसी तेजी से बैलों के पास जाकर उन्हें हाँकते हुए गाँव की ओर बढ़ चला।
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     वह सच मुच सुन्दर था। गोरा छरहरा। घनी काली बरौनियों वाली आँखें। चमकते सफेद दाँत। लड़कियों की तरह पतले लाल होंठ। चेहरे पर न खुशी न गम। न बेगानापन न घुल मिल जाने की लालसा।
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       मैं पानी से बाहर आकर दूर जाते चोरवा की पीठ देखता रहा। उसने मुझे मोह लिया था। ऐसे लड़के से दोस्ती होनी चाहिए।
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       स्कूल आते जाते समय उस टोले के लड़कों से चोरवा की खबर मिलती रहती थी। ठाकुर टोले के लड़के अक्सर उसे देख कर चिढ़ाते-
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       – चोर चोर चोरवा। खिसिया निपोरवा
        चोरवा कै माई बियान दुइ घोड़वा।
         एकये पे हम चढ़ी, एकये पे चोरवा।
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       ठाकुर टोले में जसवंत और कुलवंत जुड़वा भाई नये-नये बदमाश निकल रहे थे। पता चलता कि वे दोनों ही उसे ज्यादा चिढ़ाते हैं। उसकी माँ के साथ दत्रधारी सिंह का नाम जोड़कर गन्दी बातें करते हैं।
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       उस दिन बिहारी ने बताया, जसवंत चोरवा को सुना कर कह रहा था,- छत्रधरी बाबा के उखाडे़ कुछ नहीं उखडे़गा। तगड़ा भाई चाहिए तो अपनी अम्मा को धन्नू घंटहा के पास भेज। फिर धन्नू के विशाल घंट (फोते) का दानों हाथ से आकार बनाते हुए दानों भाई हँसने लगे।
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        – चोरवा ने क्या कहा?
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       – वह रूका ही नहीं उन लोगों के पास। चलता चला गया। चोरवा की माँ की सुन्दरता की चर्चा मेरी माँ भी एक बार पड़ोस की चाची से कर रही थीं। मेरा मन कर रहा था कि एक बार उसकी माँ को देखूँ। वह गाँव के दक्षिण इमली के पेड़ के नीचे गोबर पाथने आती थीं। मैं एक रविवार इमली तोड़ने के बहाने गया।
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      – हे बेटवा एहर ढेला ना मारो। मूंड़ मा लागिजाई। बहुत मीठी आवाज थी उसकी माँ की। चोरवा को अपनी माँ का रंग, रूप, दाँत और सुतवा नाक विरासत में मिले थे।
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       ऐसी सुन्दर और मिठबोली चोरवा की माँ का सम्बन्ध जिसने मुझे भी बेटा कहा था, छत्रधारी जैसे ठूठ या धन्नू बाबा जैसे बदबूदार दाँतों वाले बूढे़ से जोड़ने की कल्पना कितनी गन्दी थी। जसवंत और कुलवंत दोनों मुझसे बित्ता भर बडे़ थे। चिढ़ाने की यह बात मेरे सामने हुई भी नहीं थी। चोरवा से मेरी नजदीकी भी नहीं थी। इसलिए उन दोनों भाइयों पर मन ही मन गुस्सा करने के अलावा मैं कुछ नहीं कर सकता था।
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       मेरे गाँव में झाबर दशहरे के बहुत पहले शुरू हो जाती थी। चोरवा के जिम्मे इतना काम रहता था कि दिन में खेले जाने वाले किसी खेल में तो वह कभी कभार ही शामिल होने का मौका निकाल पाता था, लेकिन झाबर शुरू होने तक वह गाय बैलों को चारा पनी देकर फुरसत पा जाता तो आठ नौ बजे तक खेलने आ जाता था। मेरे पास भी झाबर खेलने के लिए दीपावली तक का समय था। इस वर्ष मैं आठवीं में था। आठवीं की परीक्षा बोर्ड से हीती थी इसलिए आठवीं के छात्रों को दीपावली के बाद रात में पढ़ायी करने के लिए स्कूल में बुलाया जाता था ताकि ज्यादा से ज्यादा बच्चे पास हों और ज्यादा से ज्यादा प्रथम श्रेणी ले आये। जिस स्कूल में प्रथम श्रेणी में पास होने वाले बच्चों की संख्या ज्यादा होती उसका क्षेत्र में बहुत नाम होता था। मेरे दादा कहत थे- मर्द मरै नाम का नामर्द मरै रोटी का।…. तो मैं चाहता था कि रात की पढ़ाई शुरू होने से पहले पन्द्रह बीस दिन झाबर खेलने को मिल जाए। झाबर के लिए खिलाड़ियों की कमी नहीं रहती थी। वैसे कम खिलाड़ी होने से भी बहुत फरक नहीं पड़ता। इस लिहाज से झाबर का खेल मुझे सारे खेलों का राजा लगाता है। न इसमें खिलाड़ियों की सीमा का कोई बन्धन होता है न समय की सीमा का। चाहे सिर्फ दो खिलाड़ी खेलें चाहे सारा गाँव खेले। दिन हो या रात। उजियारी रात हो तो ठीक लेकिन अँधियारी रात का भी अपना अलग मजा। सिर्फ परछाई की तरह दिख रहे खिलाड़ी की खेत में भौतिक स्थिति देखकर आपको निर्णय लेना पड़ता है कि वह आपके पक्ष का है या विपक्ष का। उस पर टूट पड़ना है या उसका साथ देना है। न किसी फील्ड की जरूरत न क्रिकेट, हाकी, वालीबाल के बल्ला, स्टिक, गेंद या नेट जैसे खर्चीले सामान की। सिर्फ और सिर्फ एक अदद जुता हुआ खेत चाहिए।
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       चोरवा में गजब की फुर्ती थी। दौड़ते-दौड़ते अचानक दायें बायें, यहाँ तक कि पीछे भी मुड़ जाता था। दौड़ इतनी तेज थी कि जिस पर टूट पड़ता उसे पाँच छ: कदम तक जाते-जाते गिरा लेता। बाहरी गोल में रहता तो ट्रिक से ही पकड़ में आ सकता न कि दौड़ा कर। जिस गोल में रहता उसकी जीत निश्चित थी। इसलिए उसे सब अपनी गोल में लेना चाहते थे।
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       कुलवंत और जसवंत इस साल झाबर खेलने एक दो बार ही आये थे लेकिन जिस दिन आ जाते, लड़ झगड़ कर खेल खत्म कर जाते। पिछले साल तो अक्सर आ जाते थे, जबतक कि एक रात अँधेरे में एक गिट्‌टी आकर जसवंत की कनपटी पर लग नहीं गयी। वह बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा था। कान से खून निकल आया था। उस दिन के बाद फिर उस साल दोनों नहीं आये। इस साल भी उस दिन हार जाने के बाद दोनों ने झगड़ा शुरू किया। दोनों को चोरवा ने ही अकेले दौड़ा कर बारी-बारी पकड़ा था। दोनों मिल कर भी उससे भिड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पर रहे थे इसलिए उस पर बेईमानी का आरोप लगाकर गाली-गलौज करके अपमानित करना चाहते थे। चोरवा झगड़ा बचाना चाहता था इसलिए बोला- जाइये मैं नहीं खेलूँगा।
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       – वह जाकर मेड़ पर बैठ गया।
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       दूरी बढ़ गयी तो जसवंत की आवाज और तेज हो गयी- तू चोर। तेरा बाप चोर। तेरी माँ दाढ़ी बाबा की रखैल।
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     – खबरदार आगे एक भी गाली निकली तो। दोनों का खोपड़ा खरबूजे की तरह फोड़ दूँगा। चोरवा गरज कर खड़ा हो गया। चोरवा की गर्जना से मैं खुश हुआ। अभी गुस्से में लगा दे एक एक लाठी तो हमेशा के लिए गरह कटे कटे।  मैने हिम्मत करके कहा- जब हार बरदास्त नहीं होती तो खेलने क्यों आते हो?
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       – मैं गाँव का लम्मरदार हूँ। जीतने के लिए खेलता हूँ कि हारने के लिए बे? मेरे ही खेत में खेलोगे मुझे ही हराओगे?
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         पलिहर छूटे खेतों में जसवंत के खेत बडे़ थे। दौड़ने के लिए पर्याप्त जगह मिल जाती थी। उसके खेतों के आस-पास कोई पेड़ न होने से रात फरियाने पर अंधेरे में भी जरूरत भर का दिखने लगता था। उँचास पर होने के कारण उसके खेतों में जुताई पहले होती थी। इसलिए झाबर खेलने के लिए सबसे उपयुक्त थे। लेकिन हारने की पूर्व शर्त के साथ भला कौन खेलना चाहेगा मैंने कहा- नहीं खेलेंगे तुम्हारे खेत में। बहुत सारे खेत हैं उसमें खेलेंगे।
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       तभी थोड़ी दूर से आवाज आयी- चोरवा ने खड़ी चूची का दूध पिया है जसवंत लम्मरदार। तुम लतरी का दूध पीकर उससे कैसे जीत पाओगे? जीतने की इतनी टान थी तो अपनी अम्मा से कहते, पहलौठी पैदा करतीं।
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         यह गिरधारी शुकुल की आवाज थी। गिरधारी शुकुल का खेत पास में था जिसमें भुट्‌टा बोया गया था। लड़के झाबर खेलते-खेलते अंधेरे का फायदा उठा कर भुट्‌टे पर हाथ साफ करें, इसलिए रखवाली के लिए आकर अपनी मेड़ पर बैठ जाते थे। गाँव भर में छोटे बड़े सबसे मजाक करने के लिए प्रसिद्ध थे।
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         लेकिन जो जसवंत अभी चोरवा की माँ के चरित्र पर उंगली उठा कर मजा ले रहा था वही अपनी माँ के स्तनों को लतरी कहे जाने से ऐसा चिढ़ा कि जोर से चिल्लाया- तुम बीच में क्यों बोलते हो पंडित साले?
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        बाप रे! चलीस वर्ष के प्रतिष्ठित ब्राह्‌मण को पन्द्रह वर्ष के जसवन्तवा ने साले कह दिया। सारे लड़के सन्न रह गये।
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          – अच्छा लम्मरदार। सबेरे आकर तुम्हारे बाप से साले बहनोई के इस रिस्ते का खुलासा पूछेंगे?
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        अब सारी बात बड़ों के पास पहुँचेगी और सब को अपने-अपने घर डाँट-मार पडे़गी। सबसे पहले जसवंत, कुलवंत खिसके फिर बाकी लड़के।
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         मैं चोरवा के पास चला आया। उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहा- अब जब भी ये दोनों तुम्हें घेरेंगे, मैं भी इनका मुकाबला करने में तुम्हारा साथ दूँगा।
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         वह थोड़ी देर तक कुछ सोचता रहा फिर बोला- इनको तो में अकेले ही ओलार दूँ। (यानी लाठी के वार से जमीन पर बिछा दूँ।) लेकिन फिर इस गाँव में रहूँगा कैसे? माँ कहती है कि यह हमारे बोलने का नहीं, चुप रह कर दिन काट लेने का समय है। इसलिए इन लोगों की मार गारी को आशीर्वाद मान कर सह जाने को कहती है। मेरे बप्पा जेल से छूट कर आ जाये तब देखना….
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        – तुम्हारे बप्पा जेल में क्यों हैं?
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        वह चुप रह गया। धीरे से अपना हाथ मेरे हाथों से छुड़ाया और चल पड़ा। उस वर्ष फिर झाबर नहीं हुई।

.       मार्च आधा बीत गया था। होली के बाद ही बोर्ड की परीक्षाएँ शुरू होने वाली थी इसलिए अब रविवार की रात को भी स्कूल जाना होता था। रात को खाने के लिए रोटियाँ लेकर सब बच्चे पाँच छ: बजे तक स्कूल पहुँच जाते थे। गणित और अँग्रेजी के अध्यापक रात में बारी-बारी क्लास लेते थे। उन दिनों मिट्‌टी के तेल की किल्लत हो गयी थी इसलिए तेल बचाने के लिए अँग्रेजी के मास्टर साहब अँधेरे में क्लास लेते थे। फील्ड में चारपाई बिछाकर लेट जाते और ग्रामर पढ़ाते। अंधेरे में ही वे पढ़ाने के बाद प्रश्न पूछते और लड़के उत्तर देते। अंधेरे का पढ़ा जल्दी भूलता नहीं है।
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       उस दिन मैं गाँव के दक्षिणी सिरे से निकल पक्की सड़क की ओर बढ़ रहा था। खेतों के बीच थोड़ी दूर पर किसी के गुनगुनाने की आवाज सुनाई पड़ी। शब्द नहीं, केवल धुन। सूरज डूबने में थोड़ी देर थी। मैं आवाज की ओर मुड़ गया। देखा, चोरवा था, छत्रधारी सिंह के चने के खेत की मेड़ पर बैठा गुनगुना रहा था। शाम के झुटपुटे में हरे चने चोरी से उखड़ जाते हैं। इसलिए उसकी रखवाली के लिए भेजा गया था। मैंने पास पहुँच कर पुकारा- चोरे भाई।
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        वह चौंका और मुझे देखकर मुस्कराते हुए खड़ा हो गया। पूछा- कहाँ जा रहे हो?
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       – स्कूल। रात की पढ़ाई के लिए।
       – ऊँचे दर्जे में रातों दिन पढ़ना पड़ता है न?
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     – आठवीं का पर्चा बोर्ड से बन कर आता है। कठिन-कठिन सवाल पूँछते हैं। शहर में जाकर इम्तहान देना होता है। इसलिए पढ़ना तो पड़ता है।
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       बहुत अच्छा है भइया। बिहारी बता रहा था कि तुम पढ़ने में तेज हो मौका मिला है तो खूब मन लगा कर पढ़ डालो। मुझे तो दर्जा एक दो की पढ़ाई ही बहुत कठिन लगती थी। कटच्छर में और सात और नौ के पहाड़े में अटक जाता था।
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         – अच्छा, अपने घर स्कूल जाते थे?
        – हाँ दूसरी पास करके तीसरी में गया था, तभी… वह कहीं खो गया। मैंने कहा चलता हूँ।
        – थोड़ी देर रूको। तुम्हारे साथ रहने का मन कर रहा है। आओ होरहा भूनते हैं। खाकर जाना।
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      – ठीक है। मैंने स्वीकार में सिर हिलाया।चोरवा ने हरा चना उखाड़ा और हम लोग सड़क के दूसरी तरफ आ गये। इस पर महुआ ढाख वगैरह का जंगल था। पतझड़ शुरू हो गया था। सूखी पत्तियों की मोटी तह चारों तरफ बिछी थी। एक महुए के पेड़ के नीचे पत्तियाँ बटोर कर जगह बनायी गयी। चोरवा ने कमर से माचिस निकाल कर पत्तियों में आग लगाया। फिर एक हरी कनखीदार लम्बी ढाख की टहनी के सिरे पर हरे चने के पौधों को फँसा कर भूनने लगा। सूरज डूबते-डूबते होरहा तैयार हो गया। आग को पत्तीदार टहनी से बुझा कर हम दोनों हाथ मुँह काला करते हुए गरम भुने हरे चने का स्वाद लेने लगे।
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      – अच्छा एक बात बताइये भइया। बिना स्कूल गये पढ़ाई नहीं की जा सकती? मेरा भी पढ़ने का बहुत मन करता है लेकिन छत्रधरिया स्कूल जाने नहीं देगा।
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      – घर पर भी पढ़ा जा सकता है। कोई बताने वाला होना चाहिए कि जो समझ में न आवे, वह बता दे।
      – अच्छा दरोगा बनने के लिए कितना पढ़ना पड़ता है?
      – यह तो पता नहीं। तुम दरोगा बनना चाहते हो क्या?
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     अंधेरा हो रहा था इसलिए उसका चेहरा या स्वीकार में हिलता सिर तो साफ-साफ नहीं दिखा लेकिन हुँकारी सुनाई पड़ी।
       – क्यों? दारोगा तो बहुत बदमाश होते हैं।
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      – मैं छत्रधारी के दरोगा बेटे को गोली मारना चाहता हूँ। उसने मेरे बप्पा को फर्जी केस में फँसा कर जेल भेजा है। मेरी पान की गुमटी गायब करा दिया है। मेरी माँ को डरा धमका कर यहाँ गोबर पथवाने के लिए लाया है। जब आता है तब बिना बात के मुझे पीटता है। दरोगा को सरकार पिस्तौल देती है। उससे सारे बदमाशों को एक ही दिन में उड़ा सकते हैं।
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      – मेरे बप्पा कहते हैं कि पुलिस की नौकरी और कसाई का पेशा एक जैसा होता है। गरीबों बेगुनाहों की इतनी हाय लगती है कि खानदान बरबाद हो जाता है। बच्चे लोफड़ आवारा निकल जाते हैं।

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      – तो तुम क्या बनना चाहते हो?
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      – मुझे तो फौज में भरती होना है  इसीलिए तो लम्बाई बढ़ाने के लिए रोज पेड़ की डाल से लटकता हूँ। हवाई जहाज से उड़कर जाओ- सू ऊँ ऊँ….. और दुश्मन पर बम बरसाकर वापस।
      – कौन दुश्मन?
      – देश के दुश्मन। चीन, पाकिस्तान।
      – उनसे हमारी क्या दुश्मनी है?
      – वे हमारी जमीन हड़पना चाहते हैं।
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      – लेकिन हमारे तुम्हारे पास जमीन है कहाँ ? सारी जमीन पर तो छत्रधारी सिंह जैसे लोगों का कब्जा है।
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        – यह जमीन नहीं भाई। देश की जमीन। भारत माता की जमीन। अगर उनसे सरहद पर नहीं लड़ेंगे तो वे अंदर घुस कर सब कुछ लूट लेंगे।
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        – हमारे पास क्या है जो लूटेंगे। सारा माल तो छत्रधारी सिंह और उनका दरोगा बेटा लूट-लूट कर घर में भर रहा है। वे लोग आकर लूट लें तो अच्छा ही है।
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        – तुम अभी नहीं समझ पाओगे। तबाही मच जायेगी। वह गीत नहीं सुने हो, मैं ऊँचे स्वर में गाने लगा- अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं। सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं। और सुनो- जब घायह हुआ हिमालय, खतरे में पड़ी आजादी। दस-दस को एक ने मारा, फिर अपनी लाश बिछा दी। सबसे कीमती चीज है आजादी।  इसके लिए जान की भी कुर्बानी देनी पडे़ तो देना होगा। समझे?
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       – लेकिन भइया मेरी आजादी तो इसी दरोगवा ने खतम किया है। कहीं भाग नहीं सकते। कहता है भागे तो आकाश-पाताल से खोज निकालूँगा और दुबारा भाग न सको इसलिए दोनों आँखें सूजा लाल करके छेद दूँगा। मुझे तो मौका मिले तो इसी के घर पर गोले बरवाऊँ।
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        मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि उसे कैसे समझाऊँ? बोला- तुम्हारी बात भी ठीक है। हमारी बात भी ठीक है। दुश्मन दोनों जगह हैं। देश के अन्दर भी और देश के बारह भी। दोनों से आजादी को खतरा है और दोनों से लड़ना है। लेकिन जब देश के दुश्मन को मारोगे तो नाम होगा, इनाम मिलेगा। और निजी दुश्मन को मारोगे तो जेल मिलेगी।
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       – लेकिन कलेजा तो असली दुश्मन को मारने से ही ठंडा होगा। जिसको देखा नहीं, पहचानता नहीं उस पर गोले बरसाने का क्या मतलब?
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       होरहे की आग पूरी तरह ठंडी पड़ गयी थी। अँधेरे में हाथ से टटोल-टटोल कर हम लोग एक-एक दाना मुँह में डाल रहे थे। मुझे देर हो रही थी। मन में कहीं चोरवा को अपनी बातों से परास्त न कर पाने की झुँझलाहट थी। फिर बोलना शुरू किया- देखो सात-आठ तक भी पढ़ लिए होते तो जान जाते कि दुनिया में सबसे गहरा प्रेम है- देश प्रेम। इसके सामने माँ का, बाप का, पत्नी का, पुत्र का किसी का भी प्रेम नहीं ठहरता। जब पढ़ोगे कि- ‘शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले’ और ‘जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी’, तो फौज में भर्ती होने के लिए खुद ब खुद निकल पड़ोगे। जब पढ़ोगे कि फूल कहता है- ‘मुझे तोड़ लेना बन माली, उस पथ पर देना तुम फेंक। मातृभूमि पर शीश चढाने जिस पथ जाते बीर अनेक’, तो उस पथ पर चलने से खुद को रोक न पाओगे। अगर किसी दिन तुम हमारे हिन्दी वाले मास्टर साहब का भाषण सुन लेते…..।
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       – भइया आप ज्यादा पढे़ लिखे हो तो ठीक ही कहते होगे लेकिन परेड के मैदान  में जहाँ मेरी पान की दुकान थी, मजूरों के एक नेता भाषण दे रहे थे तो कह रहे थे कि जान लुटाने, मूड़  कटाने, लाश बिछाने के लिए वही लोग ललकारते हैं, वही लोग गाना गवाते हैं, पिक्चर बनवाते हैं जो अपनी जान देने से डरते हैं। वही लोग देश का माल अपनी तिजोरी में भरते हैं। छत्रधारी वगैरह का धन उनके सामने कुच्छ नहीं हैं  ये लोग तो झूठै ऐंठते रहते हैं करैत सांप की तरह। नेता जी शहरी अमीरों की बात कर रहे थे। कह रहे थे कि- मजा लूटते हैं वे और जान लुटाते हैं हम। माल लूटते हैं वे और लाश बिछाते हैं हम। भाई, जो माल लूटे वही जान भी लुटावे! जो हमारा माल लूटेगा, हमारी आजादी लूटेगा हम उसकी जान लूटेंगे।
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     – अच्छा छोड़ो। देर हो गयी। चलता हूँ। मेरा इम्तहान हो जाय फिर मैं रोज शाम को एक घंटे तुम्हें पढ़ाऊँगा। सारे कटच्छर और जोड़, घटाव, गुणा, भाग में दो महीने में एकदम पक्के हो जाओगे।
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       वह खुश हो गया। खड़ा होते हुए बोला- बहुत अच्छा भइया। लेकिन एक बात का डर लग रहा है।
      – क्या?
      – पढ़ने लिखने से मेरा दिमाग भी उल्टा-पुल्टा न सोचने लगे?
       लगा कि वह अँधेरे में मुस्करा रहा है।
       मैन हँसते हुए कहा- मजाक कर रहे हो?
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      – नहीं भइया। आपका गाना सुन कर मेरे मन में क्या आ रहा है बताऊँ? आ रहा है कि जिन दस-दस को मारा था और फिर अपनी जान लुटा दी थी उन ग्यारहों के बाल बच्चों का क्या हुआ होगा? उनकी भी पढ़ाई तो नहीं छूट गयी होगी?
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       तुम ऐसा उल्टा पुल्टा क्यों सोचते हो?
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      – हमारी पान की दूकान पर एक बुढ़ऊ बीड़ी खरीदने आते थे। वे बप्पा से बताते थे कि फौज में जान गँवाने वाले अपने सिपाही बेटे की पेंशन बनवाने के लिए तीन साल से दौड़ रहे हैं। कभी कहते हैं यह कागज लाओ, कभी कहते हैं वह कागज। मैं सोचता हूँ कि वे जान लुटाने वाले अपने बेटे के बच्चों की फीस भर पाये होंगे कि नहीं?
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      तब क्या पता था कि ऐसे अनोखे ढंग से सोचने वाले चोरवा को नियति किस-किस घाट का पानी पिलाने वाली है।

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