मृत्यु का स्वागत : (शिवमूर्ति)

रचना प्रक्रिया तथा रचना के आलम्बों पर शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक ‘समय ही असली स्रष्टा है का एक अंश


चली गयी माँ।
कितना ऊँचा नीचा समय देखा जिंदगी में लेकिन जीवन जीने का उत्साह कभी कम नहीं हुआ। ताजिंदगी नास्तिक रही। न उसने कोई व्रत उपवास किया न किसी मंदिर शिवालय में शीश झुकाने गयी। न तीरथ न स्नान। अपनी ही बनायी लीक पर चलते-चलते चली गयी।
दादी का मानना था कि मेरा जन्म उनकी मनौती से हुआ था। उन्होंने गंगा जी से मनौती मानी थी – हे गंगा माई, हमें पोता दीजिए। उसे आपकी लहरों को अर्पित करूंगी। आप की अमानत, आप की भिक्षा के रूप में रहेगी मेरे पास।
हमारे इलाके में जिन परिवारों में पुत्र नहीं होता था उन परिवारों की स्त्रियाँ गंगा माई से पुत्र की याचना करती थीं। पुत्र होने पर उसे गंगा को सौंपने जाती थी। मल्लाह नाव पर माँ बेटे को लेकर बीच धारा में जाता था। बच्चे को गंगा के पानी में रखता और तुरंत निकाल लेता था। फिर गंगा माई के प्रतिनिधि के रूप में कुछ पैसा लेकर उसे माँ के हाथों बेच देता था। अब यह खरीदा हुआ बच्चा अधिकारिक रूप से माँ का हो जाता था। कई बार ऐसे बच्चे का नाम ‘बेचू’ रख दिया जाता था। बेचू सिंह, बेचू पांडे, बेचू यादव वगैरह। बेचू माने बिका हुआ। लेकिन एकाध बार ऐसा भी सुनने मे आया कि पानी में डालने के बाद मल्लाह बच्चे को पकड़ नही पाये। बच्चा लहरो में समा गया। तब रोती पीटती माँ को यह कह कर समझाया गया कि गंगा अपना बच्चा बेचने को तैयार नहीं हुईं। वापस ले गयीं। इसमें कोई क्या कर सकता है।
ऐसे किस्से मेरी माँ ने भी सुन रखे होंगे। उसने तय किया कि वह बेटे को लेकर गंगा के पास जायेगी ही नहीं। कही गंगा माई ने उसके बेटे को भी लौटाने से इंकार कर दिया तो। दादी उन्हें गंगा की अमानत लौटाने के लिए कहती रहीं। गंगा के कोप का डर दिखाती रहीं लेकिन माँ टस से मस न हुईं। उनका तर्क था कि गंगा माई खुद तो पचीस कोस चलकर यहाँ अपनी अमानत लेने के लिए आने से रहीं। हम खुद बेटे को खतरे में डालने के लिए उनके पास क्यों जायें?
कुछ वर्ष पहले चारपायी से गिरने के कारण उसे ब्रेन हैमरेज हो गया। आठ दिन बेहोश रही। स्वस्थ होने के बाद डिस्चार्ज करते हुए पी.जी.आई. के डाक्टर ने कहा-भगवान को धन्यवाद दीजिए कि उन्होंने चंगा कर दिया।
मां ने कितनी सहजता से कहा था – धन्निबाद तो आपको है डाक्टर साहब। मरे से जिंदा कर दिए। भगवान तो मार ही डाले थे।
डाक्टर हँसने लगे।
मैं पॉचवीं या छठी कक्षा में रहा होऊँगा, जब पिताजी मुझे अपने गुरु बाबा रामदीन दास की कुटी पर ले गये और मेरा ‘कान फुकवा दिया। गुरु ने रूद्राक्ष की एक मोटी कंठी मेरे गले में पहना दी। साल डेढ़ साल मै उसे पहने रहा। साथी लडक़े चिढ़ाते-अबे भगतवा। जब पिताजी ज्यादातर अपने गुरु की कुटी पर रहने लगे तो मैने माँ से लडक़ों के चिढ़ाने की बात बतायी। माँ ने साफ कहा-तुझे अच्छी नहीं लगती तो निकाल कर फेंक। मुझे दुविधाग्रस्त देख माँ ने खुद मेरे गले से कंठी निकालकर बॉस की कोठ में फेंक दिया था।
गर्मी की दोपहरी या जाड़े के अपरान्ह में सब काम से फुरसत पाकर माँ मुख्य दरवाजे के भीतरी भाग को गोबर से लीप कर ‘गौर उठाने बैठती। जिन स्त्रियों के पति परदेश चले जाते थे वे दो-दो तीन-तीन वर्ष तक लौट कर नहीं आते थे। उन स्त्रियों के पास यह जानने का कोई उपाय नहीं रहता था कि इस फागुन या सावन में वे घर आ रहे हैं या नहीं? साल भर में दो चार ही आती जाती थीं। ऐसे में इन विरहिरणियों का आविष्कार थी गौर माता। गौर माता तो सारी दुनिया का हाल जानती हैं। उन्हीं से पूछ लिया जाय।
‘गौर गाय के गीले गोबर से बना एक छोटा सा शंकु होता था। स्त्रियाँ उसे मौनी के पेट में सीधा खड़ा करके गौर सीधी खड़ी मिलती तो इसका मतलब था कि आयेंगे। गौर लुढक़ी मिली तो नहीं आयेंगे।
विरहिणी माँ भी ‘गौर के माध्यम से प्रवासी पति की वापसी की संभावना तलाशा करती थी। माँ की आवाज में सुना गया यह आज भी मेरे कानों में बजता है –
पुसवा न आवैं, मघवा न आवैं
आवैं फगुनवा माँ रंग बरसै
परदेसिया न आवैं नयन तलफैं
पूस माघ में न आवैं न सही लेकिन फागुन मास में जब चारों तरफ रंग बरस रहा हो तो जरूर आ जायें। परदेशी को देखने के लिए नैन ‘तलफ रहे हैं।
हजारों गीत थे माँ के पास। गेहूँ पीसते हुए, कथरी सिलते हुए, लगवाही निरवाही करते हुए वह कुछ न कुछ गाती गुनगुनाती रहती थी। शाम को खाने पीने के बाद अँधेरी उजियारी रातों में दुआर पर चारपायी पर लेटे लेटे वह देर तक गाती रहती थी। सोचता था कि उस के साथ एकाध हफ्ते एकान्त में बैठ कर सारे गीत लिख लूँगा पर टलता गया। सारे गीत माँ के साथ चले गये।
पता चला कि माँ ज्यादा बीमार है तो गाँव पहुँचा। माँ नीम के पेड़ के नीचे चारपायी पर करवट लेटी थी। आँखें बंद थी। मैने पुकारा-माई!
-ऐं। उसने आँखे खोलकर कर देखा-आ गये भइया? हम बहुत याद कर रहे थे।
-कैसी हैं?
-अब ठीक हैं। रात में तो मर गये थे। चार बजे पता नहीं कैसे कहाँ से फिर लौट आये।
मैने माँ का हाथ पकडक़र उठाया। हाथ पकड़े पकड़े ही चार पाँच कदम टहलाया। कहा-सबेरे लखनऊ चलिए। वहाँ ठीक से दवा हो जायेगी। अच्छी हो जायेंगी।
-ठीक है। भइया, मेरा दॉत भी बनवा देना। बहुत ढीला हो गया है।
सवेरे हम वापसी के लिए तैयार हो रहे थे। कार की पिछली सीट पर उनके लेटने का इंतजाम किया गया। तभी जोखू चौधरी आ गये। माँ से उनकी तबियत का हाल पूछने लगे। यह जानकर कि वे लखनऊ जा रही हैं, बोले-क्यों जा रही हैं? दो चार दिन की तो मेहमान हैं। शरीर में सूजन आ गयी है। कान की लिलरी लटक गयी है। लखनऊ जाकर मरेंगी तो हम लोग आखिरी समय में आपका मुँह भी नहीं देख पायेंगे।
और माँ ने आने का इरादा बदल दिया।
-क्यों? क्या हुआ?
-अरे भइया, जब दो चार दिन में मर ही जाना है तो गाँव देश छोडऩे का क्या फायदा? आराम से अपने घर में मरेंगे।
-ऐं। मरना भी आराम से?
लाख समझाया कि अस्पताल में भर्ती करा देंगे। साल छ: महिने तो आराम से चल जायेगी।
लेकिन वे अड़ गयीं तो अड़ गयी- हे भइया, ‘चलत पौरुख’ चले जाय, यही ठीक रहेगा। घिन्नी घिस कर’ मरने से क्या फायदा?
पत्नी को उनकी सेवा में छोड़ कर मैं लौट आया। और चौथे दिन पत्नी का फोन आया -माँ चली गयीं।
सचमुच आराम से चली गयी माँ। जैसे झोला लेकर सब्जी खरीदने बाजार चली गयी हों।
सहज और डरावनी मृत्यु का अंतर तब पता चला जब महीने भर बाद मै खुद मरण सेज पर पहुँचा।
कोलस्ट्राल तो मेरा पहले से ही बढ़ा हुआ था। टखनों में सूजन थी। पैर दर्द से फटे जाते थे, इसी में माँ के क्रिया कर्म का बोझ भी आ गया। तेरह चौदह दिन तक खान पान का परहेज भी नहीं हो पाया। बुखार लेकर ही गाँव से लौटा। और जब बीस दिनों तक न उतरा तो अस्पताल में भर्ती हुए।
उस दिन अखिलेश जी बता रहे थे कि अस्पताल में आपकी हालत देख कर बाहर निकला तो मेरी आँखें गीली हो गयीं। जो हालत थी उसमें कोई उम्मीद नहीं दिखती थी। सोचने लगा कि यह क्या होने जा रहा है, असमय।
वजन बीस किलो घट गया। किसी के सहारे के बिना उठना बैठना असम्भव। लेकिन डाक्टर थे कि हार मानने को तैयार नहीं। जाँच पर जाँच। दवा पर दवा। आखिर सातवें दिन उन्होंने हाथ खड़े कर दिए-कही और ले जाइये। तुरंत।
लखनऊ से उड़े तो होश में थे। दिल्ली के एअरपोर्ट से एस्कार्ट हास्पिटल की एम्बुलेंस में लेटने के बाद मुच्र्छा आ गयी। एम्बुलेंस में लेटाते समय बेटी ने मेरी नयी नयी खरीदी गयी लिबर्टी की सैंडिल उतार दी थी। मैने इशारे से उसे कहा – यह छूट न जाय।
उसने बेचारगी से मुझे ताका-आपको इस दशा में भी सैंडिल की पड़ी है। लेकिन सचमुच मेरे प्राण सैंडिल में ही अटके थे। क्रास पट्टे वाली मेरी वह मनपसन्द डिजाइन कई दुकानों पर भटकने के बाद मिली थी।… और देखिए, मुझे तो उन लोगों ने उतार लिया। सैंडिल एम्बुलेंस में ही छूट गयी।
आई.सी.यू. का वातावरण ही दिल डुबाने के लिए काफी है। शरीर में जगह-जगह छेद करके कुछ डालने निकालने का काम शुरु हो गया। हाथ पैर नाक में टेप चिपकाये जाने लगे। प्लास्टिक पाइपों का मकडज़ाल, पीं-पीं डिप डिप् करती मशीनें, जलती-बुझती लाल हरी बत्तियाँ। डाक्टर और नर्सों का फुसफसा कर और इशारों में बातें करना।… लगा कि अब मेरा वक्त आ गया है।
दूसरे दिन शाम को राजेन्द्र यादव और संजीव जी मिलने आये तो मेरी आवाज लौट आयी थी। अपने लेख ‘जीने का शिवमूर्तियाना अंदाज में संजीव जी लिखते है- एस्काट्र्स हास्पिटल में मैं और राजेन्द्र यादव शिवमूर्ति को देखने पहुँचे। संकट प्रतिपल गहरा रहा था। मैने कहा आत्मबल रखिए आत्मबल। जब कोई दवा दुआ काम नहीं आती तो आत्मबल काम आता है। शिवमूर्ति बोले-आत्मबल तो है पार्टनर। स्वर में वही ताब, वही तेवर।
लेकिन कथाकार देवेन्द्र ने बताया जब मैं पहुँचा तो आपको एक बड़ी सी मशीन के पेट में डाल दिया गया था। कई डाक्टर नर्स कुछ जाँच रहे थे। भय ने आपके पूरे वजूद को जकड़ रखा था। बोली बंद हो चुकी थी। मेरे नमस्कार का जवाब आँख के इशारे से भी नहीं दे सके। बस देखते रहे। बेचारगी और निराशा चरम पर थी।
मृत्यु तो आनी ही है लेकिन जब यह बिना सोचने समझने का मौका दिए अचानक झपट्टा मारती है तो और बात है, जैसे दुर्घटना में, हार्ट अटैक में। लेकिन जब यह तिल तिल करके आपकी ओर बढ़ती है, या आँख मिचौली खेलती है, जब डाक्टरों और हितैषियों की भाव भंगिमा से स्पष्ट हो जाता है कि आपकी उल्टी गिनती शुरु हो चुकी है, तब हर साँस के साथ डोर टूट जाने का इंतजार करते हुए जो डूब, जो सिहरन महसूस होती हैं उसे व्यक्त करने के लिए शब्द ही नहीं गढ़े गये अभी तक। फिर भी उन दिनों की डायरी के कुछ अंश…

06/10/2004
दोपहर में सीने में भारीपन बढ़ गया। लेटे लेटे रामायण की स्तुतियाँ याद आने लगीं- नमामीशाण निर्वाण रूपं विभुंव्यापकम् ब्रह्म वेदस्वरूपं, अजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं… पिताजी ने बचपन में जो रटाया था और जिन्हे मैने विगत चालीस पचास साल के जीवन में फिर पलट कर नहीं दोहराया, पता नहीं किस कोने में सुरक्षित थीं। आज हालत खराब हैं तो क्यों याद आ रही हैं?
नर्स पूछती है- क्या कह रहे हो? किसी को बुलाना है?
-आखिरी वक्त में अब किसको बुलाऊँगा। मन में सोचता हूँ। इंकार में जरा सा सिर हिला देता हूँ।
शाम को आये यादव (राजेन्द्र) जी और संजीव जी। इसके पहले आये कई मित्रों को हास्पिटल प्रशासन ने मिलने की अनुमति नहीं दी। पता नहीं कौन-कौन मित्र थे?
यादवजी बोले- क्या बहुरूपिया बने पड़े हो दुष्ट सिरोमणि। उठकर बैठो।
मेरे चेहरे पर चमक आ गयी। सचमुच उठने की कोशिश करने लगा तो नर्स ने मना कर दिया लेकिन सिर को घेर कर लगायी मशीन को थोड़ा पीछे कर दिया। यादवजी पास आ गये। बोले-तुम हरामी हो। सुन्दर चेहरों से घिरे हो इसलिए जल्दी घर जाने का नाम न लोगे।
मैं मुस्करा उठा। बेचारी सी मुस्कराहट। पास खड़ी नर्स भी मुस्कराने लगी।
दिनांक 7 व 8 अक्टूबर की मनोदशा जो 13/10/2004 को कागज पर उतारी गयी-

07/10/2004
दोपहर तक कई जगह जॉच के लिए ले जाया गया। शाम को हरि नारायण जी और कथाकार देवेन्द्र आये। अपरान्ह में कई अन्य मित्र आये थे लेकिन उन्हें अंदर नहीं आने दिया गया गया।
आई.सी.यू. के विशाल हॉल में बीसों लाइटें जल रही हैं फिर भी धुँधला धुँधला लगता है। लगता है आज आखिरी रात है। हाथ उठ नहीं रहा। पैर हिल नहीं रहा। अविवाहित बेटियाँ छोड़ कर मरने जैसा गुनाह और क्या होगा? यह गुनाह भी मुझसे ही होना था। मध्य रात्रि की घोर नीरवता में जब कही किसी तरह की आवाज नहीं है, सघन चिकित्सा कक्ष की दीवार पर टँगी इस घड़ी की टिक टिक कितनी थर्राहट पैदा कर रही है। रात दो बजने की टँकार इतनी तेज सुनाई पड़ी जैसे यमराज का घंटा बज रहा हो। लगता है एक एक कदम घसीट कर मौत के मुँह में ले जा रही है। अभी कितने कदम बाकी है?

08/10/04
आँख की पलक हल्की सी झपकाने मात्र से मुँह के पास अपने कान लगा देती हैं नर्सें। एक नर्स है जार्ज और एक है पूनम भट्ट। इन दोनों की सेवा भावना के सामने हजार बार भी सिर झुकाना कम होगा। कितनी कम उम्र और कितनी ज्यादा सेवा भावना।
बिस्तर पर ही नित्यकर्म हो रहा है। वही सब कुछ सँभाल रही हैं। बिना चेहरे पर कोई शिकन लाये।
प्रेमचंद इसी उम्र में गये।
रेणु इसी उम्र में गये।
लगता है मेरा भी समय आ गया। इसी उम्र में।
कई निर्गुण याद आ रहे हैं…
अबहीं उमर मोरी बारी रे
आई गवनवा की बारी
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साईं गवन लेहे जायॅ बदरी मा
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हालै नाहीं डोलै धीरे लइ चला कहँरवा
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चारि जने मिलि डोला उठाये
जग से नाता टूटल हो,
कौनो ठगवा नगरिया लूटल हो
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संजीव भाई कहते थे कि समय न गँवाइये। जितना हो सके। लिख डालिए। अब तो उनसे भेंट भी न होगी कि माफी माँगता। सोचा था यह जिंदगी लिखने के लिए अर्पित कर दूँगा। वही न कर सका। रावण की स्वर्ग की सीढ़ी बनाने की योजना की तरह सारे काम अधूरे छोड़ कर जा रहा हूँ।

12/10/04
नर्स ने कहा- घबराइये नहीं अंकल। अब ठीक हो रहे है।
पिछले तीन दिन कैसे बीते कुछ याद नहीं। दिमाग में केवल रुई के गोले जैसे सफेद बादल तैरते रहे। कौन सी आवाज अंदर से आयी कौन सी बाहर से, अलग करना मुश्किल।
सोच रहा हूँ, प्रकृति को हर मरने वाले को हजार दो हजार साल में एक मौका देना चाहिए, वापस आकर इस दुनिया को, इसमें आये परिवर्तनों को देखने और अचम्भित होने का। सबको नहीं तो कम से कम महान माने गये लोगों को। फराऊन को, बुद्ध को, अरस्तू को, सिकन्दर को, गैलीलियों को, कोलम्बस वगैरह को। जो लाखों लोगों को माार कर मरवा कर जमीन में खजाना गाडक़र मरे उनको भी और जो लाखों लोगों के जीवन में खुशियाँ बिखेर कर रंग बिखेर कर नये नये आविष्कार करके मरे उनको भी। यह महसूस करने के लिए कि कैसी दुनिया वे छोड़ कर गये थे और कैसी हो गयी।

13/10/04
आज तो सुन्दर चेहरों को दूसरी ही नजर से देख रहा हूँ। चंगा?
तय कर लिया है कि आगे की जिंदगी को अपना दूसरा जनम मानूंगा। अब तक का सारा समय लोभ लालच और बेवकूफियों मे गँवा दिया। अब यह सब बंद। नये जन्म का सारा समय लिखने में लगाऊँगा।
मन में प्रश्न भी उठ रहा है? क्या ऐसा कर पाऊँगा?
प्रेमचंद की कहानी आबे जमजम याद आ रही हैं। अब केवल उसका संदेश याद रह गया है।
चार मित्र बुढ़ापे में मिलते हैं। तीन पुरुष एक स्त्री। वे अपनी जवानी के दिन याद करते हैं। स्त्री मित्र को लेकर कैसे तीनों में खींचतान चलती थी। कैसे हर एक बाकी दोनों से उन्हें छीन लेना चाहता था। महिला मित्र भी हँस हँस कर रहस्योद्घाटन करती है कि कौन किस तरह दूसरे से छिपा कर उन पर डोरे डालता था। उन लोगों का निष्कर्ष था कि नादान थे। काम क्रोध लोभ के वशीभूत होकर ईष्या द्वेष में जीवन गुजार दिया। काश फिर से वही जीवन जीने का अवसर मिलता तो एक सात्विक और सार्थक जीवन जीने का संतोष लेकर इस दुनिया से जाते।
तभी उन लोगों के पास एक आदमी आता है। वह बताता है कि मेरे पास आबे जम जम है। जिसे पी लेने से जवानी वापस आ जाती है।
चारों मित्र प्रसन्न हो जाते हैं। उससे आबे जम जम खरीद कर पीते है। देखते देखते उनकी रगों मे खून गर्म होने लगता है। बाल काले। झुर्रियां गायब। बाँह की मछलियाँ मचलने लगती हैं। महिला मित्र की चंचलता और शोखी लौट आती है। कटाव और उभार स्पष्ट होने लगते हैं।
थोड़ी ही देर में उनके चेहरों पर पश्चाताप के स्थान पर फिर एक दूसरे के प्रति अविश्वास और ईष्र्या का भाव दिखायी पडऩे लगता है। एक उस महिला पर आरोप लगाता है कि तुम मुझे ब्लफ देती रहीं और इस उल्लू के पट्ठे को चाहती रहीं। दूसरा मित्र पहले पर बिगड़ा कि तू जिंदगी भर मुझे रास्ते से हटाने का षडयंत्र करता रहा। इस बीच तीसरा मित्र महिला का हाथ पकड़ कर बाहर निकलने लगा। दोनों ने दौड़ कर उनका रास्ता रोका। पहले गाली गलौज हुई, फिर मारपीट होने लगी। खून खच्चर हो गया।
तभी लगा कि उन लोगो का शरीर शिथिल होने लगा है। झगड़ा बंद करके वे बैठकर हाँफने लगे। बुढ़ापे के लक्षण तेजी से उभरने लगे। वे हैरान। तभी आबे जमजम पिलाने वाला आदमी आया। उसने बताया कि आबे जम जम का प्रभाव बस इतनी ही देर रहता है।
मतलब, दुबारा जीवन जीने का मौका मिले तो उसे हम फिर पहले की तरह ही जियेंगे। फिर उन्हीं गलतियों को दोहरायेंगे।
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