संतन को कहा सीकरी : (शिवमूर्ति)

पहले पहल ‘अपराध’ से जाना संजीव भाई को। सारिका काजनवरी-८० का अंक आया था। उसमें ‘अपराध’ प्रथम पुरस्कृतकहानी के रूप में प्रकाशित हुई थी। परिचय में लिखा था, जन्मसुल्तानपुर में। अरे, मेरे अपने जिले का लड़का। चेहरे-मोहरेसे भी मेरे जैसा ही देशी। सीधा-सादा। बाल जरूर बड़े और द्घने।
उल्टे बाल काढ़े हुए। कानों के पास भी पफैलाये हुए शौकीनलगा। और कहानी पढ़कर तो मुरीद हो गया इस नयी कलम का। सीधे नश्तर सी लगाती हुई। सचिन औरसंद्घमित्राा की कल्पित छवि और पुल से गुजरती ट्रेन की गड़गड़ाहट अभी भी चेतना में बसी हुई है।

ठीक उसी समय मेरी कहानी ‘कसाईबाड़ा’ धर्मयुग के जनवरी प्रथमांक में प्रकाशित हुई थी। तब तक अपने जिले केकिसी समकालीन लेखक के बारे में जानता नहीं था। दस पाँच साल वरिष्ठ भी कोई नहीं था। पं. राम नरेश त्रिापाठीऔर त्रिालोचन शास्त्राी बहुत वरिष्ठ थे और कवि थे। बाद में तो बाढ़ सी आ गयी-अखिलेश, हरि भटनागर, चित्रोश, कमलेश भट्ट कमल, अरविंद कुमार सिंह, शशिभूषण द्विवेदी, नरेन्द्र प्रताप सिंह, मौ. आरिपफ, गजालाबेगम तथा और भी कई। धर्मयुग में छपने के साथ-साथ उसी महीने में कायदे से लेखक के रूप में मेरा जन्म हुआथा और तुरंत ही दूसरा मिल गया। जुड़वां की तरह। उम्र में तीन चार साल बड़ा भी। मिले कहीं तो पूछूँ कि कैसे लिखली ऐसी धासूँ कहानी। मुझे भी कुछ गुर बताओ। मैं मन ही मन चेला बनने को तैयार हो गया। बाद में तो चेला भीबना और बहुत सारे गुर भी सीखे। करीब महीने भर बाद उसका एक पोस्ट कार्ड मिला। उसमें ‘कसाईबाड़ा’ कीप्रशंसा थी। मेरी इच्छा हुई कि इस लेखक से मुलाकात होती तो अच्छा होता। अपनी कहानी की और तारीपफ सुननेका मौका मिलता। लेकिन जब बहुत दिनों बाद यह मौका मिला तो सुनने को मिला कि इस कहानी में कितने झोलहैं।

पहली बार हम लोग शिमला में मिले थे, १९८१ में। कई सारे मित्रा एक साथ। मैं, अब्दुल बिसमिल्लाह, बलराम, मनीष राय आदि। केशव ने कहानी पर सेमिनार कराया था। कितने आत्मलीन और सज्जन लगे संजीव भाई।हमेशा अगली कहानी के सूत्रा जोड़ने में लगे हुए। जैसे औरतें टी.वी. देखते, बातचीत करते, बुनाई की सलाइयाँअबाध गति से चलाती रहती हैंऋ उसी तरह। और संकोची तो इतने कि पत्नी गौने में ससुराल आयीं तो महीनोंआपस में संवाद की स्थिति ही नहीं बनी। कौन पहले बोले और क्या बोले। पता नहीं कि और कामों में संकोच दूरहुआ था या नहीं लेकिन बोलने में तो आड़े आ रहा था, इसे सभी देख रहे थे। भाभियाँ चिंतित हुईं कि सृष्टि की प्रगतिही अवरु( न हो जाय। पत्नी से पूछ-ताछ शुरू हुई।

‘तो तुम्हीं शुरू करो।’
-मैं क्यों शुरू करूँ। वे मर्द हैं। उन्हें शुरू करना चाहिए। भाभियों ने जुगत लगायी। पहले पत्नी को भेज दिया चरी केखेत में-काटो। अभी किसी को बोझा बँधवाने और उठाने के लिए भेजा जाएगा।
पिफर संजीव जी को कहा गया-जाइए। बहू ने चरी काट दिया है। बँधवा कर ले आइए।
ए गये। जितनी चरी बहू ने काट रखी थी वह संजीव जी के ढोने के वश की नहीं थी। बहू कहे कि बोझ बँधवाओ तो एबँधवाएँ। बहू बोले नहीं।
कल्पना कीजिए कि चरी के ढेर के आर पार खड़ा है नव विवाहित जोड़ा। वर सिर झुकाए चरी के ढेर को देखता हुआऔर वधू मायके से दहेज में लेकर आयी अपार शरीर संपदा को बारह हाथ की साड़ी और हाथ भर के द्घूँद्घट में समेटे, छिपाए।
बहू इंतजार करके ऊबने लगी कि ‘ए’ बोझ बँधवाने के लिए आगे बढ़ें और ‘ए’ इंतजार कर रहे हैं कि बहू अनुरोधकरे।
कैसा अनुरोध। बहू ने झुककर पुआल की मोटी रस्सी को दोनों तरपफ से खींचा, द्घुटने से हिलाकर बोझ कोगोलाकार करके बाँधा और खड़ा कर दिया। एक मिनट पिफर इंतजार कि ‘इनके’ अब भी सदबु(ि आ जाय। बोझउठवाकर इसे उसके सिर पर रखवाने में मदद करें। पिफर अकेले ही झुककर जवान आदमी के वश के बाहर काबोझ सिर पर साधा और चल पड़ी।

ए हक्के बक्के थोड़ी देर तक लाल साड़ी में लिपटी युवा गजगामिनी की चाल देखते रहे। पिफर किसी कहानी काप्लाट सोचते हुए मरी चाल से पीछे-पीछे चल पड़े।
डेढ़ मन चरी का लंबा लचकता बोझ सिर पर लादकर जाती युवती की चाल को पीछे से देखा है कभी? ब्रिस्कवाकिंगसे भी तेज पड़ते पाँव। लाल साड़ी ये गयी, वो गयी, ओझल हो गयी।
एक बार मैं था, भोला भाई थे, संजीव जी थे। पफुरसत में गप हो रही थी। तब हम सभी युवा थे। तो संजीव जी के नचाहते हुए भी बात-चीत का केंद्र स्त्राी बन गयी। भोला भाई हम दोनों के मित्रा हैं। संजीव जी के कारखाने केसहकर्मी, स्थानीय दादा, थोड़ा-थोड़ा नेता ;विधायकी का चुनाव हार हार चुकेद्ध, थोड़ा-थोड़ा कहानीकार, पत्राकारआवाज दैनिक धनबाद में लिखते रहे हैंद्ध, कवि और कवि सम्मेलन के संचालक, नीरज, सूंड़ पफैजाबादी, श्यामनारायण पाण्डेय और कैलाश गौतम के पफैन। संजीव जी द्वारा लिखे नाटकों के शुरुआती दौर के नायक।
मैंने पूछा-संजीव भाई, आप चौबीसों द्घंटे इतने संजीदा रहते हैं। क्या इस नर-योनि में जन्म लेने के बाद कभी नारीदेह को भर नजर निरावृत देख सके हैं।
-देखा है। भोला भाई ने बताया-लेकिन भर नजर नहीं।
‘कैसे, कैसे?
बताइए न मास्टर। वह नियामतपुर वाली बात।
तब संजीव जी ने थोड़ा हंसकर स्वीकार किया-क्षणभर के लिए।

दरअसल, संजीव जी को किसी नगर वधू की ड्योढ़ी की मिट्टी की जरूरत थी। उधर यह मान्यता है कि जो लोगनगर वधुओं के सानिध्य के लिए जाते हैं उनका पुण्य नगर वधू की ड्योढी पर ही छूट जाता है। संजीव जी को किसीअनुष्ठान के लिए उसी पुण्य की जरूरत थी। भोला भाई उन्हें ले गये। भोला भाई को उस इलाके की नगरवधुएँ भीदादा मानती थीं। दादा के मास्टर जी आये हैं तो उन्हें उपहार या गिफ्रट के रूप में क्या दिया जाय, खुद के अलावा।भोला दादा के उस्ताद तो हमारे भी उस्ताद। भोला भाई के इशारे पर एक ने संजीव जी को ड्योढी के अंदर खींचलिया।
संजीव भाई संकोच के साथ स्वीकार करते हैं-बस उसी बार हुआ था सर्वांग दर्शन। क्या नूर था, क्या आभा थी।
इस निमन्त्राण को स्वीकार करने के लिए न आखें उठीं न हाथ न और कुछ। और उन्होंने हाथ जोड़ लिए-बस, अबजाने दीजिए।

वह हंस-हंस कर पछताती रही कि उस्ताद के किसी काम नहीं आ सकी।
संजीव भाई ने स्वीकारा-वैसी बोलती आँखें, वैसा शरीर सौष्ठव, उम्र के चढ़ाव की वैसी कुदरती चमक न पहले कभीदेख पाए थे न बाद में।
-नाम क्या था।
-पूर्णिमा।
सचमुच पूर्णिमा ही थी। रूप से भी और स्वभाव से भी। गलत जगह पर स्थापित लक्ष्मी।
लक्ष्मी के नाम पर मुझे ‘मैला आँचल’ में उल्लिखित पंक्ति याद आ गयी-जिमि खर चंदन लादें भारा। परिमल बास नजाने गँवारा।
संजीव भाई को चंदन की बास न लगी हो, ऐसा तो नहीं हो सकता। वे शायद ‘चरणदास चोर’ या ‘तीसरी कसम’ केहिरामन की तरह किसी प्रतिज्ञा से बँधे थे।
-एक बार अब चलिए उसके डेरे पर।
-वह बिचारी कब की मर बिला गयी होगी। इन लोगों का जीवन ही कितना। पफूल की तरह, उमड़ती नदी की तरह, बदली की तरह। उमड़ी कल थी मिट आज चली। सचमुच वे सब दुख की बदलियाँ हैं।
यादव जी ;राजेन्द्र यादवद्ध कहते हैं-शिवमूर्ति, तुमने अभी तक अपने इस शुचितावादी दोस्त का ‘संस्कार’ क्यों नहींकराया। लड़की देखकर इनकी आँखें झुक जाती हैं।
-आपकी तो नहीं झुकती। वह चिढ़कर कहते हैं-आप देखिए। कब तक देखेंगे।
-जब तक दिखेगा, देखूँगा। लेकिन तुम्हारा क्या होगा?
-मेरा जो होना था हो चुका। अब बात का टॉपिक बदलिए।

कैसे शुरू होती है दोस्ती दो लोगों के बीच? कैसे परवान चढ़ती है? प्यार के परवान चढ़ने की गति तेज होती है।उसमें विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण का भी हाथ होता है। गे या लेसबियन कहे जाने वाले लोगों में भी शायद इससेमिलता-जुलता तत्व उत्प्रेरक बनता होगा।

लेकिन सामान्य मनुष्यों के बीच दोस्ती का विकास मंद गति से होता है। कोई चीज दिखती है जो आपको उसकीओर खींचती है। उसकी प्रतिभा, उपलब्धि,वाक्कौशल, सुंदरता, सादगी, चतुराई या ईमानदारी। विचारों में साम्यतामिलने पर कई मुलाकातों में यह धीरे-धीरे नजदीक लाती है। संजीव भाई की ओर मुझे उनकी प्रतिभा ने खींचा।अपराध’ कहानी में विचार और द्घटनाक्रम का गुम्पफन जिस कौशल और संक्षिप्तता से किया गया है उसे पढ़कर मैंचमत्कृत रह गया। एक उपन्यास के मैटर को इतने कौशल से संक्षिप्त किया जा सकता है, बिना उसकी प्रभविष्णुताको खण्डित किए हुए, बल्कि ज्यादा प्रभावशाली बनाकर। इसने मुझे बिना देखे ही उनका पफैन बना दिया। संजीवभाई का यह गुण मुझे शुरू से ही आकर्षित करता रहा है कि वे पूरे पैराग्रापफ में अभिव्यक्त होने वाले बिंब को एकवाक्य में व्यक्त कर देते हैं। मेरे उपन्यास ‘आखिरी छलांग’ का नायक अंत में अखाड़े से, हवा में लंबी छलांग लगाताहै-शरीर में शेष रह गये बल को आजमाने के लिए। संजीव जी ने पढ़कर कहा था-

‘जैसे हनुमानजी लंका पफतह करने के लिए छलांग लगाते हैं।’ और यह वाक्य उपन्यास में अपरिहार्य हो गया है।एक बार किसी रसशिक्त मनोदशा में पत्नी के लिए कहा था-मेरी क्वीन के हर वाईटल आर्गन किंग साइज के रहे हैं।मैंने मन ही मन मिलान करके देखा तो शब्दों के चुनाव पर अभिभूत हो गया। ऐसे सैकड़ों वाक्यांश हैं जो विभिन्नअवसरों पर चमत्कृत कर चुके हैं।
क्वीन की चर्चा आयी तो याद आया कि संजीव भाई के लेखन का जितना मुखर विरोध उनकी ‘क्वीन’ ने किया औरअब तक करती आ रही हैं उतना शायद ही किसी लेखक की पत्नी ने किया होगा। ‘मसि कागद छूयो नहीं’ की परंपरावाली भाभी जी को समझ में नहीं आता था कि यह कौन-सा रोग है जिसके चलते बगल में सोयी पड़ी जवान तड़तड़नारीदेह को नजरअंदाज करके यह आदमी आधी रात गये तक कागज काले करता रहता है। कभी महकउआ तेललगाकर भर दोपहरी में श्मसान से गुजरा होगा। वहीं किसी प्रेत ने जकड़ लिया।

संजीव भाई के सिर पर चढ़े इस प्रेत को भगाने के लिए भाभी जी ने संजीव जी की चोरी जाने कितनी बार द्घर मेंओझा बुलाकर अनुष्ठान कराया। कितने मुर्गों छौनो की बलि चढ़ाई, इसकी क्या कोई गिनती कर सकता है? लेकिनसंजीव भाई के सिर पर चढ़ा लेखन का भूत ऐसा गोड़ तोड़कर बैठा था कि भगाया नहीं जा सका। उसका रंग चढ़ताही गया। प्रेमचंद को छोड़ दें तो सहसा याद नहीं पड़ता कि और किस जीवित या मृत लेखक के खाते में हैं दसउपन्यास और सवा-डेढ़ सौ कहानियाँ। लेख, नाटक और बाल साहित्य अलग से। कितने ही साथी लेखकों कीकहानियाँ पढ़ने और सलाह-सुझाव देने का काम इसके अलावा।

जितना शोध लेखन के लिए संजीव भाई करते हैं उतना हिन्दी के कम ही लेखक करते होंगे। इस केमिस्ट रह चुकेलेखक की केमिस्ट्री क्या है? कहाँ-कहाँ से बीनता-बटोरता है अपने उपादान? मुझे इतना तो पता था कि मेरा यार यूँही नहीं लिखता। किसी द्घटना, स्मृति, पाठ, बातचीत, अनुभव से बीज रूप में प्राप्त उपजीव्य पर महीनों-वर्षों चलतारहता है उसका शोधन। ‘टीस’ कहानी ;१९७८द्ध के लिए वह संपेरों के गाँव जाया करता था। रास्ते में ‘ट्रैपिफक जाम’ होता तो उसे वैश्विक हडबोंग से जोड़कर ‘टै्रपिफक जाम’ लिख डाली। ‘तिरबेनी का तड़बन्ना’ जैसी यादगार कहानीलिखने के लिए उसने सीधे ‘तड़बन्ना’ में अपने एक सहकर्मी के तड़बन्ने ;शिबू ग्राम-कूलनोडा, वर्धमानद्ध में पड़ावडाला और ताड़ी उतारने की तकनीक सीखता रहा। लेकिन मात्रा तकनीक ही, बाकी असली कहानी के लिए तड़बन्नातो वह कलवारी ;बस्तीद्ध और पटना, नवादा से ले आया और रख आया अपने गाँव के पास-बिंबों, प्रतीकों में। पार्टीके संद्घटन-विद्घटन और सामंती संस्कारों के द्वंद्व के बीच मिट्टी में गाड़ दी गई एक दमित-दलित के उड़ान कीकहानी। ‘अपराध’ जैसी कालजयी कहानी के लिए बंगाल से लेकर उत्तर प्रदेश के थानों और कचहरियों के चरित्रा कोखंगालता रहा। बीज मिला था हजारी बाग के सेंट्रल जेल में जहाँ किसी और काम से जाना हुआ था-पुलिस ट्रेनिंगकॉलेज में द्घोड़े से गिर गये अपने मित्रा रामचन्द्र ओझा को देखने। मित्रा तो मिले नहीं, मिल गए नक्सलाइट कैदी।बड़ी जलन है इस ज्वाला में, जलना कोई खेल नहीं।’ कुछ-कुछ गौतम सान्याल ने महसूस की है वह आँच अपनेइंटरव्यू में।

एक शोध प्रक्रिया में मैं भी साथ था। देहरादून से चकरौता-बहुपतित्व की प्रथा को समझने…साथ में थे बड़े भाईचन्द्र किशोर जायसवाल, विनोद शुक्ल। शाम से भटकते-भटकते रात हो गयी। न कूल मिल रहा था, न किनारा।हम एक गेस्ट हाउस में रुके थे, नीचे झुण्ड के झुण्ड गढ़वाली मजदूर आ-आकर रुक रहे थे। सवाल पूछने में विनोदऔर संजीव, और कभी-कभार चन्द्र किशोर जी और मैं। आप कितने भाई हैं? चार। आपका विवाह हो गया? आपका और आपका?………..। क्या आपका विवाह आपकी भाभी के साथ हुआ है। बच्चे हुए तो कैसे पहचानेंगे कौनकिस भाई का है, कौन किस भाई का? कैसा लगता है, यह सारा कुछ।
कई जगह भागे। कई जगह मार खाते-खाते बचे। विनोद जी, वी.एन. राय और शैलेन्द्र सागर का जूजू दिखा कर रौबगालिब करना चाह रहे थे, पर संजीव ने समझाया कि यहाँ संयम से काम लेना पड़ेगा।

दूसरे दिन द्घाटी में औरतों से यही सब पूछा पछोरा गया। हम कई परिवारों में गये। पंचायतों की झलक देखी।लोकगीतों का कैसेट लिया कालशी में। महीनों मंथन चलता रहा पिफर आयी कहानी ‘हिमरेखा’। ‘आरोहण’ के बीजअलग आकार ले रहे थे। पहाड़ और द्घाटी, चढ़ाई और स्खलन। स्थूल परिदृश्य यानी हार्डवेयर दिख जाता है परसाफ्रटवेयर ……..। वह तो हर लेखक की तरह संजीव की अपनी उपलब्धि है जिसे हम ‘रचना के वैभव’ के नाम सेजानते हैं। गाथा बन चुकी कहानी ‘सागर सीमांत’ में रचना का यह वैभव देखते बनता है, जिसके लिए संजीव कोसन ९३ के अंत में अकेले सुन्दरवन के कई द्वीपों की यात्राा करनी पड़ी थी। यह एक जोखिम भरा अभियान थाक्योंकि सुन्दरवन के उनमें से दो द्वीपों पर बाद्घ भी आया करते थे। बाद्घ इतने रूपों में संजीव की कहानियों में आयाहै कि ऑब्सेशन सा लगने लगता है।
संजीव से पहले और आज तक हिन्दी कहानी का वर्णपट इतने वैविध्य से संपन्न नहीं था। इस मायने में वे अकेलेकथाकार हैं। अकेले इस मायने में भी कि सवा सौ, डेढ़ सौ कहानियों में खुद को कभी रिपीट नहीं किया औरस्तरीयता के मामले में तीस से अधिक ऐसी कहानियाँ हैं जिन्हें सिपर्फ संजीव ही लिख सकते थे।

बहुत कुछ कुर्बान किया है संजीव भाई ने लेखन के लिए। नौकरी के प्रमोशन और बेटे-बेटियों की शिक्षा कीनिगरानी। िपता के लेखक होने का मूल्य यदि उसके परिवार द्वारा चुकाने पर विचार किया जाय तो मुझे ‘रेणु’ कापरिवार याद आता है। शायद ९३-९४ का समय होगा जब सुबोध कुमार झा ने कटिहार में लेखक सम्मेलन करायाथा। वहाँ से हम १५-२० लेखक गये थे रेणु के गाँव-औराही हिंगना। उनका गाँव देखने, उनके परिवार के, गाँव केलोगों से मिलने। आँगन में रेणुजी की मझली बहू सहजन की सब्जी पका रही थी। रेणुजी के मझले सुदर्शन पुत्रा हमलोगों के रेणु जी से जुड़ी चीजें दिखा रहे थे-कुर्सी, चारपाई, पफोटो आदि। आँगन में बैठी रेणु जी की स्नेहिल औरसुदर्शना पत्नी से संजीव जी ने ही पूछा था-आपके द्घर में रेणु जैसे बड़े लेखक पैदा हुए। कैसा लगता है यह जानकर?
-अच्छा लगता है। लेकिन मैं भगवान से कहूँगी कि पिफर मेरे खानदान में कभी कोई लेखक न पैदा करें।
‘क्यों। इतना नाम होता है।’
-नाम तो होता है। लेकिन परिवार पीछे छूट जाता है। बहुत झेलना पड़ता है। सब छिन्न-भिन्न हो जाता है।
-हम सभी लेखक हैं। यहाँ रेणु जी से प्रेरणा लेने आये थे। हमारे लिए क्या कहती हैं।
रेणु जी की पत्नी ने अपने कथन को सुधारा-आप लोग ख़ूब लिखिए पढ़िए। नाम कमाइए।
-लेकिन आप तो कहती हैं कि कोई लेखक…………

-वह तो जी की जलन थी जो ऐसा कह दिया। पिफर थोड़ा रुककर कहा-लेकिन बाबू परिवार तो झेलता ही है।
रेणु का परिवार उनके ‘केवल’ लेखक होने का मूल्य चुका रहा था। इसे हम सबने वहाँ देखा था। संजीव के परिवार नेभी उनके लेखक होने का मूल्य कमोबेश चुकाया। भाभी जी के विरोध को गलत कैसे कहा जाय। एक ही तो जीवनमिलता है आदमी को। वही जीने के लिए और वही प्रयोग करने के लिए। हिन्दी के लेखक की उसके लेखन से जोआर्थिक उपलब्धि होती है उसे देखते हुए हिन्दी लेखन आगे भी बहुत समय तक ‘लग्जरी’ या बैठे ठाले का काममाना जाता रहेगा।

संजीव भाई लेखन के साथ आदि से अंत तक एक जैसी संगति बैठाए रह सके तो इसका कारण सरोकर औरविचारधारा तो है ही, जीवन में सुख-सुविधा बटोरने की चाह का अभाव भी बहुत बड़ा कारण है। शौक़ के नाम परबिना कत्थे वाला मीठी पत्ती पान। भोला छाप या १२० नंबर सुर्ती के साथ। लेखकों के लिए जरूरी मानी जाने वालीअन्य चीजों-मुर्गा, दारू, मेहरारू आदि से कोसों दूर। इमेज बनाने के लिए सायास ओढ़ी सादगी नहीं है यह। जीवन नेइतना दिया ही। इसलिए इतने से ही संतुष्ट होने के आदी हो गये। हम सब जिस पृष्ठभूमि की उपज हैं उसमेंरोटी-दाल का जुगाड़ हो जाय यही परम सुख है। स्वर्ग की, बैकुन्ठ की, जन्नत की, बहिश्त की, हर व्यक्ति कीअलग-अलग परिभाषाएँ हैं। किसी के यहाँ अप्सराएँ हैं, किसी के यहाँ हूरें और ग़िलमान हैं। लेकिन एक चरवाहे केस्वर्ग की कल्पना कैसी होती है यह भी देखिए-
कालउ कम्बलु अवनीचट्टु
छाछहिं भरियउ दीवड़ पट्टु
रेवड पड़ियउ नीलइ झाडि
अवर कि सरगह सिंग निलाडि।
अर्थात्‌ जमीन पर बिछाने के लिए काला कम्बल हो, बर्तन मट्ठे से भरा हो, रेवड ;मवेशीद्ध हरी-भरी झाड़ियों मेंद्घुसकर चर रहे हों यही स्वर्ग है। और क्या स्वर्ग के सींग पूँछ होती है।

संजीव भाई जैसे संतोषी आदमी का स्वर्ग चरवाहे के स्वर्ग जैसा ही है। टिकट कटाने भर के पैसे का इंतजाम हो जाएयही परम संतोष है। ट्रेन में द्घुस गए चाहे खिड़की के रास्ते से ही, ;कुछ वर्ष पहले तक जनरल बोगी की खिड़कियोंमें छड़ें नहीं होती थींद्ध यही परम सुख है। दोनों दरवाजों या बाथरूम के बीच की जगह में अटैची रखने भर की जगहमिल गयी तो समझो गन्तव्य तक पहुँच गए। उसी अटैची पर शरीर को साधकर बैठे ही रात कट जाएगी। एक रातकी तो बात है। कोई गप करने वाला मिल गया तब तो समझो द्घर में ही बैठे हैं। नहीं तो स्टेशन और शहर कीबत्तियाँ देखते हुए और जो रोते-रोते ट्रेन पर चढ़ा गये/गयी हैं उनकी सूरत याद करते-करते ही भोर हो जाएगी।शाहगंज स्टेशन पर जब सियाल्दह जम्मू एक्सप्रेस लाकर उतारेगी तो अंधेरा भी नहीं छटा होगा। इतनी बारयात्राा हुयी है संजीव भाई की इस ट्रेन से कि यदि इंजन की जगह द्घोड़े या बैल नधते होते तो दूर से देखकर पहचानलेते-ओ, देखो आ गये संजीव भाई एक नंबर डिब्बे में बैठने के लिए। संजीव भाई बताते हैं कि जनरल डिब्बे मेंयात्राा करते हुए ही आधी से अधिक उम्र कटी है। ऐसा भी नहीं कि रिजर्वेशन की दिक्कत रही हो संजीव भाई को।कुल्टी स्टेशन का सियाल्दह जम्मू एक्सप्रेस में स्लीपर का दो बर्थों का कोटा था। वह वी.आई.पी. को ही एडवांस मेंरिजर्व होता था। संजीव भाई इलाके के नामी दादा भोला सिंह और बाद की पीढ़ी के कई अन्य दादाओं के मास्टरजीथे। इसलिए जब भी संजीव भाई चाहते यह बर्थें उन्हें आरक्षित हो सकती थी। लेकिन संजीव भाई का मानना था किक्या होगा रिजर्वेशन कराकर जब सोना ही नहीं है। अभी धनबाद में नारायण सिंह और समीर जी मिलने आजाएँगे, आधी रात को मुगलसराय में आर.डी. सिंह आ जाएँगे। कत्थे वाला पान लेकर। बीच में भी कोई न कोईआता जाता रहेगा। तो भला बताइए किस काम आएगा रिजर्वेशन।

सचमुच रिजर्वेशन कराकर चलना संजीव भाई को नहीं सहता। पिछले दिनों रिजर्वेशन कराकर बैठे तो उन्हें कुछसुंद्घाकर बिना अटैची खोले ही उनका माल-टाल लूट ले गया कोई।
मैंने पूछा-संजीव भाई कभी बेटिकट चले हैं।
-न बाबा न। पिफर पूछते हैं-तुम कहते हो बीसों साल बे टिकट चले हो। कभी पकड़े नहीं गये।
यह सही है कि मैंने दर्जा-नौ से ही बेटिकट यात्राा की शुरूआत कर दी थी। यह हमारे क्षेत्रा के विद्यार्थियों के लिएकोई अनोखी बात नहीं थी। सभी बेटिकट चलते थे। टिकट लेना इन्सल्टिंग लगता था। किसी सत्ता के सामनेसरेन्डर करने जैसा। यह और बात है कि टिकट कटाने के लिए तब हमारी जेबों में चवन्नी भी नहीं होती थी।
मैं कहता हूँ-जब इतनी बड़ी गाड़ी है। जहाँ चाहो बैठो जहाँ से चाहो खिसक जाओ। नीचे उतर जाओ। दूसरे डिब्बे मेंद्घुस जाओ। काले कोट वाले को दूर से ही पहचान सकते हो तो उससे सामना होने की नौबत ही कैसे आएगी?
-तुम्हारी बात का कोई ठिकाना नहीं। पता नहीं कितना झूठ बोलते हो, कितना सही?
-लेखक तो झूठ का जहाज ही चलाता है संजीव भाई। सच्चे लेखक को सही झूठ में भेद करना शोभा नहीं देता।
लेकिन संजीव भाई झूठ नहीं बोल सकते। मजाक में भी नहीं। कई बार जीवन में ऐसे मौके आए जब मैंने उन्हेंअश्वत्थामा मरा’ कहने के लिए राजी करना चाहा, लेकिन हर बार असपफल रहा। पता नहीं कैसे कन्विंस किया थाकृष्ण ने युधिष्ठर को। इनकी एक नहीं तो हजार नहीं। सच्चाई के प्रति यह प्रतिब(ता कभी-कभी व्यवहारिकता कोभी अतिक्रमित कर जाती है। मान लीजिए किसी छोटे बच्चे को गोद में लिए पार्क में टहल रहे हैं। आसमान में चाँददेखकर बच्चा जिद करने लगे कि मुझे चाँद चाहिए तो संजीव भाई उसे खुश करने के लिए यह नहीं कह सकते किचलो द्घर से जूते कपड़े बदलकर ३०७ नंबर की बस पकड़ कर अभी चलते हैं चाँद लेने।

यशोदा की तरह यह कहकर भी नहीं भरमा सकते कि चाँद लेकर क्या करेगा? तेरे लिए नयी दुलहिया लाने चल रहाहूँ। सीधे-सीधे कह देंगे कि चाँद मांगना बेवकूपफी है। वह जमीन से इतने लाख किलोमीटर दूर है। वहाँ न हवा है नपानी है। उसका वजन ००० वगैरह।
एक बार मेरे द्घर आये। अभी कंधे का झोला टांगकर कुर्सी पर बैठे ही थे कि दिल्ली से बहू का पफोन आ गया-पापा, पोते की आवाज सुनिए। कह रहा है बाबा-बाबा।
संजीव भाई ने पफोन पर ही साइंस की किसी ब्रांच का हवाला देना शुरू किया। जिसका आशय यह था कि इस उम्रमें बच्चा म वर्ग या प वर्ग के अक्षरों से ही बोलने की शुरूआत करता है। अभी उसे रिश्तों की क्या जानकारी जो अभीबाबा-दादा कहेगा।
मैंने टोका-बहू तो आपको प्रसन्न होने के लिए यह सूचना दे रही है और आप हैं कि खुश होने के बजाय विज्ञान कीक्लास लेने लग गये।
वे नाराज होकर खड़े हो गये-मैं अभी तुरंत वापस चला जाऊँगा। आप हमेशा मुझे टोकते रहते हैं।

उनका आरोप सही है। संजीव भाई को कुछ ज्यादा व्यवहारिक, कुछ ज्यादा दुनियावी देखने के चक्कर में मैं कुछज्यादा ही टोका टाकी करने लगता हूँ। पत्नी भी मौके पर थीं उन्होंने कह सुनकर संजीव भाई का गुस्सा शांत कियाऔर मुझे अलग ले जाकर डाँटा-आप अपनी इस आदत से कब बा८ा आएँगे?
संजीव भाई सदैव जल्दी में रहते हैं जहाँ अभी पहुँचे भी नहीं होते वहाँ से जाने की जल्दी मच जाती है।
भोला भाई अपने कुल्टी वाले क्वार्टर के बाहर अहाते के कटहल के पेड़ के नीचे चारपाई पर बैठे हुए देखते हैं-संजीवभाई सामने की पगडंडी पकड़े चले आ रहे हैं। वे छोटे बेटे को कुर्सी लाने के लिए आवाज देते हैं। पिफर पत्नी को चायबनाने के लिए कहते हैं। और खुद गेट पर आकर स्वागत करते हैं-आइए मास्टर साहब, आइए।
-लेकिन मैं बैठूँगा नहीं। बहुत जल्दी है।
-इतनी जल्दी है तो मत आइए अंदर। गेट से ही लौट जाइए। भोला भाई चिढ़कर कहते हैं।
संजीव भाई गेट ठेलकर मुस्कराते हुए अन्दर आ जाते हैं-
बात यह है कि……..
-क्या होगा लिख-लिखकर? दुनिया अपने रास्ते से इंच भर भी हटने को तैयार नहीं दिखती। एक बार मायूसी भरेस्वर में कहा था संजीव भाई ने।
सुनकर डर गया। यह क्या सोचने लगे संजीव भाई।

कहीं पढ़ा था, बुढ़ापे में टाल्सटाय ने भी निराश होकर कुछ इसी तरह कहा था।
सपने तो सपने होते हैं। कुछ हकीकत में बदलते हैं तो कुछ टूटते भी हैं। लेकिन उम्र के इस पड़ाव पर अपने कर्म सेमोहभंग होना कितना बेचैन कर सकता है इसकी कल्पना कठिन नहीं है।
मैंने कहा-संजीव भाई, दुनिया कार तो है नहीं कि स्टीयरिंग द्घुमाया और रास्ता बदल गया। रातों रात परिवर्तन तोनहीं हो सकता। लेकिन जैसे जीव की उम्र बढ़ती है, पेड़ पौधे बढ़ते हैं, वैसे ही दुनिया भी बदल रही है। पहले सेबेहतर हो रही है। धीरे-धीरे ही सही, मनुष्य की जीवनस्थितियाँ सुधर रही हैं। यह सब क्या अपने आप हो रहा है।प्रारंभ तो विचार के स्तर पर ही होता है। इस विचार का जन्म हमेशा साहित्य की, कला की, विज्ञान की कोख सेहोता है। इन्हीं से प्रेरित प्रभावित होकर संविधान बनते हैं, कानून बनते हैं, सामाजिक आचार संहिता बनती है, जोमानव समूह की जीवन स्थितियों को प्रभावित और नियंत्रिात करते हैं। आपकी कहानियों और उपन्यासों ने, उनके पात्राों ने जाने कितनों को आशा से उत्साह से, साहस से भरा होगा, प्रेरित किया होगा, उनमें राजनीतिज्ञभी होंगे। समाज सुधारक भी होंगे। ऐसे युवा होंगे जो आगे चलकर जीवन के विभिन्न क्षेत्राों में प्रभावी भूमिकानिभाने वाले हैं। आप कितना जानते हैं? आज के समय में, जब ‘सरोकार’ शब्द धुंध में गायब होता दिख रहा है, आपका लेखन एक बड़े पाठक वर्ग के लिए आशा का दीप है।

कहते हैं कि कुम्भन दास या किन्हीं और दास की ख्याति सुनकर अकबर बादशाह या कोई और बादशाह उन्हेंअपना दरबारी बनाना चाहते थे या मनसबदारी देना चाहते थे। बुलवाया। वे गये। कई बार गये। इतनी बार गये किआते-जाते पनहियाँ द्घिस गयीं। लेकिन मनसबदारी नहीं मिली। क्यों नहीं मिली इसकी जानकारी हमें नहीं है। होसकता है लालपफीताशाही आड़े आ गयी हो, बादशाह से भेंट ही न हो पायी हो। या बादशाह का मन ही बदल गयाहो। हार कर कवि ने लिखा-
संतन को कहा सीकरी से काम
आवतजात पनहियाँ द्घिस गयी, बिसरि गयो हरिनाम।
लेकिन संजीव भाई तो कभी भी आज की ;पफतेहपुर सीकरीद्ध दिल्ली नहीं आना चाहते थे। एक तरह से पकड़करलाये गये।

मेरे गाँव के एक मित्रा हैं। वे शहर में रात्रिा विश्राम नहीं करते। शहर के कमोड में निवृत्त नहीं हो सकते। एक बारमेरी बेटी की शादी में इलाहाबाद आये तो बड़े सवेरे निवृत्त होने के लिए चार किलोमीटर दूर गंगा के किनारे गये।दुबारा किसी बेटी की शादी में नहीं आए। अपने बेटे को भेजते रहे। वे कहते हैं कि शहर मीलभर दूर रहता है तभीउस की बदबू से खोपड़ी भन्नाने लगती है। संजीव भाई बदबू की वजह से नहीं, डर की वजह से दिल्ली नहीं आनाचाहते थे। दिल्ली उन्हें डराती थी। उन्हें कुल्टी ही प्रिय थी। लेकिन कुल्टी छोड़ना पड़ा। वी.आर.एस. लेना पड़ा।कारखाना बन्द हो गया। कस्बा उजड़ने लगा। चोरी छिनैती की बाढ़ आ गयी। इस बीच प्रकाशन क्षेत्रा में क्रांति करनेका सपना लेकर अशोक भौमिक मिले और उन्हें दिल्ली खींच लाए। भौमिक जी के सपने के टूटते न टूटते यादव जीने उन्हें ‘हंस’ के लिए पकड़ लिया। जिस दिन से दिल्ली आए उसी दिन से कह रहे हैं कि दिल्ली से भागना है। ‘हंस’ सेभागने का मन बना रहे थे कि बेटा स्थानान्तरित होकर पत्नी बेटे के साथ दिल्ली आ गया। भागना स्थगित हो गया।पिफर सोचना शुरू किया तो गाँव से बीमार होकर पत्नी आ गयीं। पिफर सोचना शुरू करते इससे पहले खुद बीमारहो गये।

-सब को पता है कि दिल्ली एक बार पकड़ती है तो अंत तक नहीं छोड़ती। आप क्यों छूटना चाहते हैं?
दिल्ली मेरे जैसों के लिए नहीं है। बहुत ताक़त चाहिए दिल्ली में पैर टिकाने के लिए भाई। अब तक तो मन ही भागरहा था, अब तो शरीर भी जवाब दे रहा है।
-कहाँ जाएँगे?
-गाँव चले जाएँगे।
-पर गाँव जाकर करेंगे क्या। बिना मित्राों के गाँव में कितने दिन रह पाएँगे।
-अलग हो जाएँगे तो एक-एक करके सब भूल जाएँगे।
यह संजीव भाई के उदासी के दिन हैं। गहरी उदासी के। इसे दूर होने में कुछ समय लग सकता है।

११९, वाणिज्य कर विभाग, संयुक्त आयुक्त, गंगा शॉपिंग कॉम्प्लैक्स, सेक्टर-२९, नोएडा, गौतमबुद्धनगर ; ‌ ‘ ‘ ‘

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