हमारे गांव और किसान

अपने  समय में हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय रहे साप्ताहिक पत्र धर्मयुग में ग्रामीण संवेदना के प्रखर कथाकर शिवमूर्ति की लंबी कहानी कसाईबाड़ा छपी तो सारे देश में धूम मच गई थी,क्योंकि इस कहानी में कथाकार ने आपातकाल के दौरान गांव में हुए नारी जीवन के शोषण और उत्पीड़न को अत्यंत प्रभावशाली ढंग से रूपायित किया था। शयद इसीलिए बुंदेलखंड से शुरू हुई नई पत्रिका मंच ने अपना प्रवेशांक शिवमूर्ति पर केंद्रित कर अपने सफर का आगाज किया है। कसाईबाड़ा से भी बड़ी और बेहतर कहानी भरतनाट्यम के छपते ही शिवमूर्ति हिंदी कहानी के स्टार कथाकर बन गए थे। इसके बाद छपी तिरिया चरित्तर ने तो और भी कमाल कर दिया था, क्योंकि उस पर बासु भट्टाचार्य ने फिल्म बनाकर शिवमूर्ति को समकालीन कथाकारों का सिरमौर बना दिया। फणीश्वर नाथ रेणु, राही मासूम रजा और श्रीलाल शुक्ल के बाद ग्रामीण जीवन पर अपने लेखन के कारण कोई अन्य रचनाकार पाठकों का महबूब कथाकार बन सका, तो वे सिर्फ और सिर्फ शिवमूर्ति हैं। शायद इसलिए मंच के संपादक मयंक खरे ने बुंदेलखंड की पथरीली जमीन पर केदारनाथ अग्रवाल की किसान चेतना और उनकी प्रगतिशील दृष्टि को आगे बढ़ाने के लिए शिवमूर्ति को प्रतिनिधि कथाकार के रूप में चुनने का साहसिक निर्णय लिया। बस्ती और चित्रकूट जैसे छोटे-मोटे कस्बों में रहते हुए शिवमूर्ति वैश्विक और लोक विशेष, दोनों दृष्टियों से संपन्न रहे। सो, आठवें दशक की पीढ़ी में वे सबसे आगे निकल गए, सबसे कम लिखकर भी। मंच के इस विशेषांक में प्रकाशित विश्वनाथ त्रिपाठी, कमला प्रसाद, रवि भूषण, महेश कटारे, प्रेम शशांक, शशिकला राय, हरिश्चंद्र श्रीवास्तव तथा कमल नयन पांडेय के आलोचनापरक लेख इस बात को प्रमाणित करते हैं तो राजेंद्र राव,मदन मोहन, भीष्म प्रताप सिंह, जयप्रकाश धूमकेतु, भोलानाथ सिंह, दिनेश कुशवाह, संजीव तथा उत्तमचंद आदि के लेख शिवमूर्ति के ग्रामीण व्यक्तित्व को पाठकों के सामने साकार कर देते हैं। इन लेखों से पता चलता है कि उत्तर भारत के ग्रामीण जनजीवन, किसानों, मजदूरों,स्ति्रयों तथा दलितों की दयनीय स्थिति, शोषण एवं दमन को जिस कौशल से शिवमूर्ति रूपायित करते रहे हैं, उनका समकालीन कोई दूसरा कथाकार उस तरह नहीं कर पाया। घर से पलायन कर साधु बन गए पिता के कारण शिवमूर्ति ने बचपन से ही दो जून की रोटी के लिए कभी दर्जी का काम किया, तो कभी बीडि़यां बनाई, कैलेंडर बेचे, बकरियां पालीं, ट्यूशन पढ़ाया और मजमा लगाकर सामान भी बेचा। बावजूद इसके पढ़ाई करते-करते जब स्नातक हो गए तो उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग की परीक्षा में बैठकर पास भी हो गए और बिक्री कर अधिकारी बनकर सफल अफसर का जीवन जीते हुए जड़, जोरू और जमीन से जुड़ा लेखन भी करते रहे, जिसकी बानगी मंच के इस अंक में पाठक पा सकते हैं। शिवमूर्ति से गौतम सान्याल की बातचीत के अलावा संजीव-शिवमूर्ति के बीच हुआ मित्र संवाद भी इसमें है, जिससे शिवमूर्ति के रचनाधीन उपन्यास के बारे में जानकारियां भी पाठक को हासिल हो गई हैं। अब्दुल बिस्मिल्लाह, महीप सिंह, प्रहलाद अग्रवाल, सुशील कुमार सिंह, रामजी यादव तथा नंदल हितैषी आदि के लेखों और टिप्पणियों से सजा ढाई सौ पृष्ठ का यह अंक संग्रहणीय है|

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