लेखक की भूमिका योगी और भोगी की साथ साथ है ।

कथाकार शिवमूर्ति से यह साक्षात्कार उपन्यासकार तथा पत्रकार दयानंद पाँडे ने अक्टूबर 1991 में लिया था जो नवभारत टाइम्स लखनऊ के 21 नवम्बर अंक में प्रकाशित हुआ था। उक्त साक्षात्कार पाठकों के लिए तनिक परिष्कृत रूप में यहाँ प्रस्तुत है-
 
अठारह साल में कुल जमा छ: कहानियाँ लिखकर हिन्दी कहानी में महत्वपर्ण उपस्थिति दर्ज कराने वाले शिवमूर्ति पिछलें दिनों लखनऊ आये थे। उन दिनों वे ट्रान्सफर के भाड़ में भुज रहे थे। उसी समय उनसे यह बातचीत हुर्इ।
     11 मार्च 1950 में जन्मे शिवमूर्ति का विवाह 1957 में ही हो गया। उनका विवाह पहले हुआ और स्कूल वे बाद में जाना शुरू किए। सुल्तानपुर जिले के कुरंग गाँव में जन्में शिवमूर्ति की 6 बेटियाँ और एक बेटा है। पहले उन्होंने सुल्तानपुर में ही 1972 से 73 तक आसलदेव मा0 विद्यालय पीपरपुर में अध्यापन किया फिर दो वर्ष रेलवे की नौकरी की। 1977 से बिक्रीकर अधिकारी हैं। बचपन में फुफेरी बहन से सुने किस्सों से उनके मन में किस्सागोर्इ के बीज पडे़ तो वह किस्से कहानियों की दुनिया के हो कर रह गये। लेखक की भूमिका योगी और भोगी की एक साथ मानने वाले शिवमूर्ति से यह बहस तलब बात चीत पेश है:-
0    क्या आप नहीं मानते कि आज के दौर में कहानी लिखना काफी कठिन हो गया है?
मानता हूँ। कहानी लिखना पहले भी कठिन था। अब कर्इ कारणों से ज्यादा कठिन हो गया है। एक तो मंच नहीं रह गये हैं। पत्रिकाएं दिनों-दिन घटती जा रही हैं। दूसरे जो नयी पीढ़ी आ रही है, उनका प्रोत्साहन अन्य कारणों से भी नहीं हो रहा है। पारिश्रमिक आदि की स्थितियाँ नहीं रह गयी हैं। नये लेखकों का अनुभव संसार सीमित होता जा रहा है। आज के ज्यादातर कहानीकार चार पाँच कहानियाँ लिखते-लिखते चुक जा रहे हैं। जैसे शुरूआती पैदाइश के बच्चे पाँच पौड़ के होते हैं और चौथे पाँचवे नम्बर के बच्चे अंडरवेट हो जाते हैं। माँ एनीमिक हो जाती है। वही हाल कहानी और कहानीकारों का भी हो रहा है।
0    इसका मुख्य कारण क्या दिखता है?
पहली चीज तो फैशन है कि हम गाँव पर ही लिखेंगे या शोषित पीड़ित की ही कहानी लिखेंगे। प्रेम पर नहीं लिखेंगे। लिखेंगे तो कलावादी मान लिए जायेंगे। हम साम्यवादी कहानी ही लिखेंगे।
लेखक की भूमिका योगी और भोगी की साथ साथ है0    आपको नहीं लगता कि पहले रोटी दाल की समस्याएँ बहुत कम थीं। जरूरतें बहुत कम थीं। अब बढ़ गयी हैं। पहले कहानी कविता लिख कर जीवन यापन करना संभव था। अब सोच भी नहीं सकते।
पहले संयुक्त परिवार भी तो था। आप देखें कि ज्यादातर लेखक गांव से आये थे। तीन भार्इ हैं। एक खेती करने लगा। एक मास्टर हो गया। एक कवि या लेखक हो गया। तो उसके भी बाल बच्चे पल जाते थे। दोनों भार्इ यही सोच कर गर्व करते थे कि मेरा भार्इ बौद्धिक है। नाम कर रहा है। यही क्या कम है?
0    आप कहते हैं कि ज्यादातर साहित्यकार गांव से आये थे। लेकिन ऐसा नहीं है। हिन्दी के तीन चर्चित कहानीकार गांव से नहीं आये थे। न राजेन्द्र यादव न कमलेश्वर न मोहन राकेश।
हाँ, ए लोग नहीं थे।
0    आप निर्मल वर्मा को भी जोड़ लीजिए।
हाँ, निर्मल वर्मा भी। मन्नू भंडारी भी।
0    ऐसा क्यों हुआ? कहीं किसी गहरी साजिश के शिकार तो नहीं हो गये गाँव के लेखक?
हाँ, यह भी है। एक जमाने में गाँव पर लिखने वालों को लतियाने का व्यापक कार्यक्रम चला था। उसमें ए तीनों कहानीकार आगे थे।
0    सारिका बंद हो गयी। धर्मयुग बंदी के कगार पर है। इस बंदी का कारण क्या है?
एक कारण तो आर्थिक होगा। नीतिगत होगा। दूसरा कारण पाठकों की रूचि का खत्म हो जाना है। पहले ए पत्रिकाएँ बडे़ रचनाकार बनने का माहौल बनाती थीं। अब बोनसार्इ बनाने लगीं। बरगद को गमले में लगा कर आप अगली पीढ़ी को यह तो बता सकते है कि देखो ऐसी होती है बरगद की पत्ती। ऐसा रंग। इस रंग का तना। पर आप उसकी विशालता तो गमले में नहीं पैदा कर सकते। आक्सीजन देने का जो काम बरगद करता था वह बोनसार्इ तो नहीं करेगा।
पहले गुणग्राही और योग्य साम्पादक होते थे। वे नये लेखको की ग्रूमिंग करते थे। उनकी प्रतिभा उनकी संभावना पहचानते थे। अब संपादको की वह प्रजाति नहीं है।
0    कमलेश्वर जब संपादक थे सारिका के तो आप को याद होगा, बम्बइया कहानियों का चलन बढ़ गया था।
    हाँ, तब समांतर कहानी आन्दोलन चला था। प्लांड़ वे में।
0    और एक टारगेट के तहत। आलमशाह खान की कहानी ‘कोख’ को याद कीजिए। ‘मुहिम’ भी।
    हाँ, हजारों मील में जो गांव फैले हैं हिन्दुस्तान में, उनकी कहानियाँ कम आयीं।
0    पत्रकार जो गाँव छोड़ कर शहर आया हुआ है, तो पत्रकारिता पर भी कोर्इ अच्छी कहानी कहाँ आयी?   
    आप ठीक कहते हैं। पत्रकारिता करने वाले क्या कम संघर्ष कर रहे हैं। ठीक से उनका संघर्ष ”प्रोजेक्ट” किया जाय तो बेहतर कहानियाँ और उपन्यास आ सकते हैं।
0    यह जो कहानी के मंच खत्म होते जा रहे हैं, टी.वी. भी क्या उसका एक कारण है?
    टी.वी. कारण है लेकिंन यह बहुत बड़ा कारण नहीं है।
0    आखिर ऐसा क्यों है कि ज्यादातर पत्रिकाओं में अनूदित या रिप्रोडयूस कहानियाँ ही आ रही है? जैसे सारिका ने अनूदित कहानियों का बीड़ा उठा लिया था।
    देखिए, अच्छी रचना रोज-रोज नहीं लिखी जाती। अच्छी रचना पाने के लिए सम्पादक भी प्रयास करता है। नजर रखता है। और अच्छी रचना मिलने पर, यह सम्पादक से अपेक्षा होती है कि वह उस कहानी को प्रोजेक्ट करेगा। उस पर लोगों की नजर पड़े ऐसा उपाय करेगा। इसी में सम्पादक और लेखक दोनों का हित है। ऐसा अब कम हो रहा है।
0    मुदगल जी ऐसा नहीं कर पाये?
    मुदगल जी ने सेल बढ़ाने के लिए प्रयास किया। देह कथा विदेह कथा अंक निकाले लेकिन लेखकों से अच्छी कहानियाँ नहीं लिखवा पाये।
0    क्या आपको लगता है कि सर्जनात्मक कहानी लिखने और भाषण का भाषाजाल लिखने में फर्क है?
    बिल्कुल फर्क है। जब आप कहानी में भाषण लिखने लगेंगे तो संवेदना छूट जायेगी। भाषण या पत्रकारिता की रिपोर्ट से पता चलता है कि आप कितना जानते है। कहानी से पता चलता है कि आप को कितना अनुभव है।
0    आपको गाँव छोडे़ कितने दिन हो गये?
    यही सत्रह अठारह साल।
0     क्या इसीलिए आपकी सभी कहानियों में संवेदनाएँ और अनुभव वही होते हैं, सिर्फ कैनवस बदल जाता है।
    मेरे विचार से तो ऐसा नहीं है। आप मेरी ऐसी दो कहानियों का नाम लीजिए तो मैं कुछ स्पष्ट करूँ।
0    एक तो भरतनाट्‌यम?
    भरतनाट्‌यम की संवेदना तो दुबारा किसी कहानी में नहीं आयी।
0    सिरी अपमा जोग में आयी।
    नहीं। भरतनाट्‌यम बेरोजगार युवक की कहानी है जबकि सिरी उपमा जोग पति द्वारा ग्रामीण पत्नी व बच्चों को त्यागने की कहानी है। जिम्मेदारी से पलायन की कहानी है।
0    आपको अपनी सबसे अच्छी कहानी कौन सी लगती है।
    सिरी उपमा जोग। छोटी और करूणामय। दुख की बदली।
0    आपका कहना है कि गाँव छोडे़ अठारह साल हो गये फिर गाँव पर किस तरह लिखते हैं?
जाहिर है कि पीछे के अनुभव लिखेंगे। बाद का जीवन छूट जायेगा।
    गांव छोड़ने का यह मतलब नहीं है कि बिल्कुल छोड़ दिया है। वहाँ रहते नहीं लेकिन आना जाना तो लगा ही हुआ है।
0    आपको पता होगा कि गाँव इधर बड़ी तेजी से बदल रहे हैं।
    हाँ बदल रहे हैं।
0    तब आपकी कहानियों में यह बदलाव क्यों नहीं आ रहा है?
    आ रहा है। हमारे जिस उपन्यास की घोषणा हंस में हुर्इ है उसमें आ रहा है। अन्य रचनाओं में भी आ रहा है। प्रकाशित होने पर आप देखेंगे।
0    इस उपन्यास की विषय वस्तु क्या है?
    जतिवाद, भ्रष्टाचार और नैतिक मूल्यों का पतन। ए तीनों मिलकर गाँव की गरीबी में कोढ़ में खाज का काम कर रहे हैं। यही इस उपन्यास की विषयवस्तु है।
0    अमूमन एक कहानी पर आप कितने दिन लगाते हैं?
    एक कहानी में मुझे तीन-चार महीने लग जाते हैं। कभी-कभी ज्यादा समय भी लग जाता है। दरअसल एक बार में ही पूरी कहानी नही लिख पता। कभी तीन पेज तो कभी पाँच पेज।
0    आपको नहीं लगता कि बार-बार की सिटिंग से कहानी का तारतम्य टूटता है?
    नहीं। जब कहानी लिखना शुरू करते हैं तो उससे निरंतर पूरी तरह जुडे़ रहते हैं।
0    एक कहानी कितनी बार लिखते हैं?
    तीन बार तो जरूर।
0     ऐसा नहीं लगता कि जितनी देर में आप तीन चार ड्राफिंटग करते हैं। उतनी देर में तीन चार कहानियाँ तैयार हो सकती हैं?
    ऐसा नहीं है। कहानी को संवेदनात्मक और भाषायी दृष्टि से जितना घनीभूत करना होता है वह एक बार लिखने से नहीं हो पाता। एक ही ड्राफ्ट में सारी बात नहीं आ पाती। मुझे चिठ्‌ठी भी लिखनी हो और कायदे से लिखनी हो तो दो बार लिखता हूँ।
0    पर बहुत सारे लोग तो दुबारा पढ़ते भी नहीं और छपने के लिए भेज देते हैं।
    वे महान हैं। मुझे यह सिद्धि नहीं मिली है।
0    आप बार-बार लिखेंगे तो चीज हर बार बदलेगी ही।
    नहीं। चीज नहीं बदलती। कहने का तरीका, विन्यास बंदल जाता है। वाक्य बदल जाते हैं। तारतम्यता बदल जाती है। देखिए, मेरे लिए लिखना, कबाड़ खाने से साइकिल कसने की तरह है। जैसे मिस्त्री, अपने कबाड़ से पुराना फ्रेम, रिम, गियर, टायर, टयूब, हैंडिल वगैरह ढूँढ कर उससे साइकिल तैयार करता है उसी तरह। मेरे पास पूर्व निर्धारित ढाँचा या अंत नहीं रहता। जैसे पैकिंग से नये पुर्जे निकालकर घंटे भर में नर्इ साइकिल कस कर तैयार कर दी जाय वैसा मेरे साथ नहीं होता।
    जिस विषय पर लिखते हैं उसमे थोड़ा डूबना पड़ता है। तटस्थ होना पड़ता है। आपा धापी की जिंदगी के चलते इसमें भी कुछ ज्यादा समय लगता है।
0    यानी पहले से कोर्इ तैयार फ्रेम नहीं होता आपके दिमाग में?
    नहीं। पहले केवल धुँधली सी तस्वीर उभरती है। इसके मूल में कोर्इ संवाद या कोर्इ दृश्य, हो सकता है। उदाहरण के लिए बताता हूँ कि मैने केशर कस्तूरी कहानी कैसे लिखी? मेरे एक साढ़ू भार्इ हैं। उनकी बेटी है केशर। मेरी बेटियों की तरह मेरे घर में रही काफी समय तक। फिर अपनी ससुराल गयी। उसका पति उन दिनों बेरोजगार था। एक बार मैं उससे मिलने गया और वापसी में रस्म के अनुसार उसके हाथ पर सौ रूपये रखने लगा तो उसने सिर नीचा किए हुए, पैर के अँगूठे से जमीन कुरेदते हुए कहा- पैसा लेकर क्या करेंगे पापा। हमारे आदमी को भी कहीं दो रोटी का इंतजाम करा दीजिए। इससे भी कम शब्दों में, पाँच छ: शब्दों में उसने अपनी इच्छा जतार्इ थी। बस यही एक वाक्य इस कहानी को लिखने का आधार बना।
    इसी तरह बेरोजगारी झेलते हुए जो विचार आये वे भरतनाट्‌यम लिखने का आधार बने।
0    आपको नहीं लगता कि भरतनाट्‌यम का अंत थोड़ा भहरा गया है?
    नहीं। मुझे तो लगता है कि इससे बेहतर अंत हम दे ही नहीं सकते थे।
0    नहीं, जैसे मचान पर पीकर नाचने वाली बात। आप फ्रस्ट्रेशन दिखाना चाहते हैं। लेकिन बात बनती नहीं। वह ध्वनि नही मिल पाती फ्रस्ट्रेशन को।
    हो सकता है। लेकिन मैं उसका अंत प्रभावपूर्ण मानता हूँ। और वह मचान पर पीकर नहीं नाचता जैसा आप कह रहे हैं। खरबूजे के खेत में नाचता है।
0    शीर्षक के चुनाव में भी गलती कर दी।
    क्या कह रहे हैं आप। यह शीर्षक देकर मैने ‘भरतनाट्‌यम’ को नया अर्थ दिया है। जैसे ‘तिरियाचरित्तर’ शीर्षक से ‘तिरियाचरित्तर’ शब्द को नया अर्थ मिला है।
0    ‘तिरिया चरित्तर का अंत भी उसी तरह है। आप विमली को न्याय नहीं दिला पाते।
    कागज में न्याय दिलाने से कुछ नहीं होगा। ऐसा सुखद अंत फिल्मों के लिए ही सुरक्षित रहने दीजिए जिसमे एक नायक बीस लोगों को परास्त करके न्याय दिलाता है। सृजनात्मक साहित्य का काम बेचैनी पैदा करना है। पाठक को कुछ सोचने के लिये उद्वेलित करना है। पाठक को अंदर से बदलने का है। तिरिया चरित्तर कहानी का अंत यही करता है।
0    मैं बिल्कुल नये पाठक को ध्यान में रख कर यह बात कह रहा हूँ। या फिर वह पाठक जो गुलशन नन्दा को पढ़ता है। वह ऐसा शीर्षक देखकर पन्ना पलट देगा।
    मैं गुलशन नन्दा को पढ़ने वाले पाठक के मेच्योर होने का इंतजार करना ठीक समझूँगा न कि ऐसे इम्मेच्योर या नये पाठक की नासमझी को ध्यान में रखकर अपनी कहानियों का शीर्षक या अंत बदलना।
0    आपकी प्रति बद्धता नौकरी के प्रति ज्यादा रही है, लेखन के प्रति कम।
    मन से तो हम लेखक ही बनना चाहते थे लेकिन परिस्थितियों ने नौकरी ढूँढ़ने और करने को मजबूर किया। नौकरी के बिना भी गुजारा नहीं हो सकता। कोशिश कर रहा हूँ कि दोनों को एक साथ साध सकूँ।
0    परिस्थितियाँ तो हर हिन्दुस्तानी के साथ हैं बल्कि दुनिया के हर आदमी के साथ हैं। अकेले आप ही के साथ तो नहीं।
    यह मेरी कमी है कि मैं लेखन के लिए इन्हीं परिस्थितियों के बीच ज्यादा समय नहीं निकाल पाता हूँ। अब जैसे देखिए। साल भर में ही मेरा ट्रान्सफर हो गया। अब नयी जगह पर जाने के बजाय मैं इसे रूकवाने के लिए दौड़ रहा हूँ। नयी जगह पर काम कम है। लिखने का ज्यादा समय मिल सकता है फिर भी जाने के बजाय रूकने के लिए दौड़ रहा हूँ।
0    क्यों नहीं दौड़ना चाहिए?
    इसलिए कि यह समय की बर्वादी है। इसका उपयोग लिखने में करना चाहिए। मुझे पता है कि मैं निष्फल होकर लौटूँगा, लेकिन तब भी दौड़ रहा हूँ। इसका कारण व्यकितत्व की कमजोरी है। व्यकितत्व दो फाँकों में बटा हुआ है। उसी के चलते दौड़ रहे हैं। कहा गया है न कि जानामि योगम न च में प्रवृत्ति:। जानामि भोगम न च में निवृत्ति:। इसी भोगेच्छा के चलते दौड़ रहे हैं।
0     आपको नहीं लगता कि अगर पत्रिकाएं इसी तरह बंद होती रहीं तो धीरे-धीरे लिखना भी बंद हो जायेगा।
    बंद भले न हो जाय लेकिन मंद तो हो ही जायेगा। जब प्लेटफार्म ही नहीं रह जायेंगे तो कहाँ छपेगा।
0    आप गिनकर अपनी पसंद के तीन समकालीन कहानीकारों का नाम लेना पसंद करेंगें।
    केवल तीन?
 हाँ।
    संजीव, चन्द्रकिशोर जायसवाल और उदय प्रकाश।
0    आखिर क्या कारण है कि मात्र छ: कहानियाँ लिखकर चर्चा का जो शिखर आपने छुआ उसकी आलोचकों ने कोर्इ खास नोटिश नहीं ली?
    यह तो आलोचक ही जानें। बैसे जब आप कह रहे हैं कि मैने चर्चा का शिखर छुआ तो क्या यह अपने आप में संतुष्ट होने के लिए पर्याप्त नहीं है?
0    आपका कोर्इ संग्रह भी अभी तक नहीं आया।
    संग्रह इसी महीने राधाकृष्ण से आ रहा है।
0    अच्छा आपके साथ कहीं बनियाहट तो काम नहीं कर रही है कि कम माल देकर बाजार में अपना क्रेज बनाए रखें।
    नहीं ऐसा नहीं है। मैने लिखा तो ज्यादा है। उसमें से कुछ छप भी गया लेकिन उसका स्तर मुझे ठीक नहीं लगा तो उसे मन से उतार दिया। मेरी एक शुरूआती कहानी है- उड़ि जाओ पंछी। यह कहानी लखनऊ से प्रकाशित होने वाली कहानी पत्रिका ‘कात्यायनी’ के मर्इ 1970 अंक में प्रकाशित हुर्इ थी। यह अंक पत्रिका का ग्राम कथा विशेषांक था। विवेकी राय जी ने इस कहानी पर अपने शोधप्रबन्ध में विस्तार से लिखा है। उन्होंने इसे समकालीन यथार्थ की उल्लेखनीय कहानी कहा है लेकिन मुझे लगा कि इसका वह स्तर नहीं बन पाया जैसा मैं अपनी कहानियों का चाहता हूँ। इसलिए इसे अपने संग्रह में शामिल नहीं किया।
    इसी तरह मैने 400 पेज का एक उपन्यास लिखा- माटी की महक। सन 70 में जब मै बी.ए. में पढ़ रहा था। इसमें ऐसा कथ्य और घटना क्रम है जो सामयिक ग्रामीण उपन्यास की रचना के लिए बहुमूल्य है। लेकिन शुरूआती लेखन था। इसमें क्राफ्ट की दृष्टि से स्तरीयता की कमी है इसलिए इसे प्रकाशित नहीं कराया। रखा हुआ है। इसी से वक्त जरूरत कुछ कथानक लेकर एकाध कहानियाँ लिखी हैं। उसी के एक अंश से ‘तिरियाचरित्तर लिखी गयी।
    इंटर करने के साथ-साथ तय किया था कि सिर्फ लेखक बनूँगा और आजीविका के लिए खेतीबारी सँभालूँगा। कोर्इ नौकरी नहीं करूँगा। तब जिंदगी का कोर्इ अनुभव नहीं था इसलिए ऐसा सोचा था। बाद में जैसे-जैसे बेटियाँ पैदा होती गयीं, कमरी भीजती गयी, खुरदरे यथार्थ से परिचय होता गया, जीवन दृष्टि बदलती गयी।
0    यह बताइये कि आपको कभी फख्र नहीं होता कि 6 कहानियाँ लिख कर ही  चर्चा के शिखर पर आ गये।
    जिसे शिखर पर आना आप कह रहे हैं वहाँ तो तीन कहानियों से ही आ गये थे।
0    कायदे से तो एक ही कहानी से आ गये थे। कसार्इ बाड़ा से ही।
    हाँ, लेकिन इसमें फख्र जैसी बात नहीं सोचनी चाहिए क्योंकि कर्इ बार ऐसे संयोग घटित हो जाते हैं। असली बात है अपनी परवर्ती रचनाओं से शिखर पर बने रहना। इस सम्बन्ध में न आप आश्वस्त हो सकते हैं न कोर्इ भविष्य वाणी कर सकते हैं।
0    आपने कहा कि रेणु आपके आदर्श हैं। क्या प्रभावित करता है आपको रेणु का? जीवन दृष्टि, विचारधारा या शिल्प।
    मुझे रेणु का शिल्प सबसे अधिक प्रभावित करता है। शब्दों का चुनाव और उनके उपयोग में मितव्ययिता। मैला आँचल के अधिकाँश अध्याय चार पाँच पेज के हैं। इसी स्पेस में वे अपनी कहानी को मनचाही दूरी तक पाठक को विलक्षण जिज्ञासा की डोर में बाँध कर ले जाते हैं।
0    रेणु के साथ अपने पात्रों को लेकर तमाम दिक्कतें आयी। मुकदमे और मारपीट तक। क्या आपके साथ भी ऐसी दिक्कतें आयीं?
    रेणु के साथ मुकदमें या मारपीट की मुझे कोर्इ जानकारी नहीं है। मेरे साथ ऐसी कोर्इ दिक्कत नहीं आयी। मेरे यथार्थ का चेहरा कल्पना के साथ मिलकर इतना बदल जाता है कि वास्तविक जिंदगी के किसी पात्र को उसमें अपना प्रतिबिंब हुबहू दिखायी ही नहीं पड़ सकता। पात्र की ग्रूमिंग में चीजें ज्यादा पूर्ण और ज्यादा प्रभावी होकर निकलती हैं और ज्यादा बड़े वर्ग या क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने लगती हैं।
0    तो काल्पनिक चीजें आपकी कहानियों में ज्यादा है?
    दोनो की ब्लेंडिंग है। कल्पना और हकीकत की। ध्यान दीजिए, दोनों का मिश्रण नहीं। दोनों की ब्लेंडिग। मिश्रण और ब्लेंडिग की प्रक्रिया में अन्तर होता है।
0    कहानी में ‘मैं’ का शिल्प आसान होता है या ‘वह’ का।
    दोनों का अपना महत्व है। कहीं ‘मैं’ ज्यादा कम्यूनिकेटिव हो सकता है कहीं ‘वह’। पाठक को मैं ज्यादा अथेनिटक लगता है। जहाँ निजी अनुभव की शक्ल देकर आप चीजों को प्रस्तुत करना चाहते हैं वहाँ ‘मैं’ शैली सुगम व प्रभावी हो जाती है। दूरी और तटस्थता से देखना चाहते हैं तो ‘वह’ शैली का आती है।
0    आपकी कहानियों में ‘मैं’ ज्यादा है।
    नहीं, केवल दो कहानियों- ‘भरतनाट्‌यम’ और ‘केशरकस्तूरी’ में।
0    आगे क्या क्या लिखने की योजना है।
    योजनाएँ तो कर्इ उपन्यासों और कहानियों की है। तीन उपन्यास तो अधूरे हैं। ‘पगडंडिया’ लाठीतंत्र और एक आत्मकथा परक। ‘पगडंडियाँ’ के एक दो अंश तो वर्तमान साहित्य और एकाध अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुए हैं। पर मुझे अपने आप पर विश्वास नहीं कि इनमें से कितना लिख पाऊँगा। आलस्य मेरा स्थायी और प्रबल शत्रु है।

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