(शिवमूर्ति की पत्नी सरिता जी से दिनेश कुशवाह की बातचीत)
सरिता जी :– पांच-छह महिने बाद।
(सबकी सामूहिक हंसी।)
सरिता जी :- हमारे घर के पास के एक फरवाह (लोक नृत्यक) थे कन्हई यादव। उनका एक गीत गाते हैं- ‘पियरी भइउं मैं गुंइया पिया-पिया रटि के।
बावरी भइउं मैं बरसनवा मा बसि के।’
डॉ. दिनेश :– क्या मतलब?
सरिता जी:– मतलब गोपियां कहती हैं। कि बरसाने में बसने से मैं बावरी हो गई। पिया-पिया रटते-रटते मैं पीली पड़ गई।
डॉ. दिनेश :– वाह! और?
सरिता जी :- हमारे पड़ोस के एक कवि हैं जुमई खां आजाद। उनका गीत गुनगुनाते हैं- ‘बड़ी-बड़ी कोठिया उठाया पूंजीपतिया कि दुखिया कै रोटिया चोराइ-चोराइ। अपनी महलिया मा केहा तू अंजोरया कि झोपड़ी के दियना बुझाइ-बुझाइ।’
डॉ. दिनेश :– उदासी के गीत ही गाते हैं?
सरिता जी :- राग-रंग वाले गीत भी गाते हैं। ऐसे गीत भी जिन्हें औरतें ही गाती हैं शादी-ब्याह में। फूहड़ गालियां भी। पता नहीं कहां-कहां से इकट्ठा किए हैं। तिरिया चरित्तर, सिरी उपमा जोग, केशर-कस्तूरी आदि कहानियां लिखते समय निरंतर गाते या रोते रहते थे।
डॉ. दिनेश :– आजकल क्या लिखते हैं?
सरिता जी :- आजकल लिख कम रहे हैं। ज्यादातर अपनी गर्ल फ्रैंड के साथ बिताते हैं।
डॉ. दिनेश :– क्या?
सरिता जी :- हां, वही जिसके भौंकने की आवाज बीच-बीच में आ रही है। उसका नाम है लारा। उसको खिलाने-पिलाने, नहलाने-टहलाने में इतने मगन हैं इन दिनों कि बेटियां कहती हैं कि यह पापा की गर्ल फ्रैंड है।
डॉ. दिनेश :– संजीव भाई ने भी अपने एक संस्मरण में लिखा है कि शिवमूर्ति जी कुत्तों के प्रेमी हैं।
सरिता जी :– बहुत ज्यादा। बचपन में कुत्ते पालने के चलते बाप की मार खाए हैं। जब गांव में थे तो पूरे टोले के कुत्ते इनके प्रेमी थे। रेलवे की नौकरी में बाहर जाने के बाद चार-छह महीने में आते तो कुत्तों को गांव के बाहर ही पता चल जाता। एक देखता तो आवाज देकर दूसरों को बताता, फिर पूरा झुंड इनके साथ चलते हुए कूद-कूदकर इनके कपडे़ खराब करते हुए घर तक आता। बाहर नौकरी करते हुए भी कहीं-न कहीं से कोई पिल्ला-पिल्ली उठा लाते। पाल लेते। इलाहाबाद में एक थी उर्वसी। उसके पहले एक थी टीना। उसके भी पहले जाने कितने-कितनी। गांव में हमारे घर पर अभी भी चार-पांच कुत्ते हैं पहुंचते ही घेर लेते हैं।
डॉ. दिनेश :– किस्से भी बहुत सुनाते हैं छोटे-छोटे। कहां पाते हैं इतने किस्से?
सरिता जी :– पता नहीं। पहले से ही हैं इनके पास।
डॉ. दिनेश :– अच्छा यह बताइए, भाई साहेब को जब साहबी वाली नौकरी मिली, आप शहर आईं, तो कभी गहने वगैरह की फरमाइश किया इनसे?
सरिता जी :– फरमाइस तो बहुत पहले ही कर दिया था। रेलवे की नौकरी से लंबी छुट्टी लेकर चले आए थे। बहुत सारी किताबें लेकर सबेरे से शाम तक महुए के पेड़ के नीचे खटोला बिछाकर पढ़ते रहते थे। कहते थे कि बड़ी नौकरी के लिए पढ़ रहे हैं। बताए कि पांच-छह महीने बाद इम्तहान होगा। उसको देने के बाद ही रेलवे की नौकरी पर वापस जाएंगे। मैंने कहा कि दादा साधू होकर अपने गुरू महाराज के घर चले गए हैं। मैं ही खेती-बारी का आपका सारा काम निपटा रही हूं। जब भारी तनखाह वाली नौकरी मिल जाएगी तो मेरे लिए बहुत सारे गहने गढ़वाना होगा। तभी बचन ले लिए था।
डॉ. दिनेश :– तो गढ़वाया इन्होंने?
सरिता जी :– ए तो जब से मुझे शहर में लाए अपने पास कभी पैसा रखा ही नहीं। जो कुछ लाए मेरे हाथ पर रख दिया और कभी पूछा नहीं कहां खर्च किया? गहने भी मैंने खुद ही गढ़ाए। ए तो साथ भी नहीं जाते दुकान तक।
डॉ. दिनेश :– काली किनारी वाली साड़ी के बाद फिर कब साड़ी दिए?
सरिता जी :– बस दो बार आज तक साड़ी लाए हैं मेरे लिए। एक काली किनारी वाली गांव में और एक नीले रंग की जब गांव से शहर आना था उस समय।
डॉ. दिनेश :– भरतनाट्यम कहानी में तो बेटा पाने के लिए वह औरत खलील दर्जी के साथ भाग जाती है। आपने बेटा पाने के लिए क्या-क्या किया?
सरिता जी :– मैंने कुछ नहीं किया। मऊ में पोस्टिंग हुईं तब तक मेरे छह बेटियां हो चुकी थीं। मऊ में एक मिसराइन जी से हेल-मेल हो गया। उन्होंने कहा कि मार्कण्डे पुराण सुन लीजिए तो बेटा हो जाएगा। मैंने कहा ठीक है। बाद में उन्होंने कहा कि बनारस, के जो विद्धान पुराण सुनाएंगे वे सीधे आपको नहीं सुनाएंगे क्योंकि शूद्र लोग यह पुराण नहीं सुन सकते। हमारी जाति को शूद्र कहा जाता है। उन्होंने इसका उपाय बताया कि पुराण सुनाने का खर्च दे दीजिए। वे खुद यह पुराण सुनकर उसका पुण्य मुझे संकल्प कर देंगी, तो पुराण सुनने का फल मुझे मिल जाएगा। मैंने कहा कि जो पुराण मैं सुन नहीं सकती उसका पुण्य भी मुझे नहीं चाहिए।
डॉ. दिनेश :– सच? ऐसा कहा आपने? क्यों?
सरिता जी : आदमी-आदमी के बीच इतनी नीच-ऊंच की बात मुझे अच्छी नहीं लगी।
डॉ. दिनेश :– कि शिवमूर्ति जी ने इंकार करवा दिया था?
सरिता जी :– इनसे तो मैंने उस समय कुछ कहा ही नहीं। उसी बार बेटा हो गया। जब बेटा हो गया, उसके पांच-छह महीने बाद बताया कि ऐसा-ऐसा हुआ।
डॉ. दिनेश :– तो कैसे हुआ बेटा? आपने किसी देवी-देवता की मन्नत मानी थी?
सरिता जी :– मैं किसी देवी-देवता को नहीं मानती।
डॉ. दिनेश :– पूजा-पाठ, ब्रत-उपवास?
सरिता जी :– कोई पुजा-पाठ, ब्रत-उपवास आज तक मैंने नहीं किया। न किसी मंदिर में हाथ जोड़ने गई।
डॉ. दिनेश :– अरे आप तो पक्की कम्युनिस्ट हैं?
सरिता जी :– (हंसती हैं) हमारी सास भी ऐसी ही थीं। कभी ब्रत-उपवास, पुजा-पाठ नहीं किया। कहीं गंगा-जमुना स्नान करने नहीं गईं।
डॉ. दिनेश :– हद है। लेकिन आपके ससुर तो साधू थे?
सरिता जी :– हां, वे साधू थे। शाकाहारी थे। दिन-भर पूजा-पाठ करते थे लेकिन सास मांस-मछली खाती थीं। ए मां-बाप दोनों के लिए अलग-अलग इंतजाम करते थे। सास के लिए मछली-गोस और ससुर के लिए गांजा-भांग।
डॉ. दिनेश :- अच्छा, एक खास बात पूछना चाहते हैं। शिवमूर्ति जी ने कई जगह अपनी एक महिला मित्र शिवकुमारी का जिक्र किया है। जानती हैं?
सरिता जी :– हां-हां, वे तो हमारे ही गांव की हैं।
डॉ. दिनेश :–तो किस तरह की दोस्ती है इन लोगों की? सुनते हैं कि वे देह का पेशा करने वाली बिरादरी की हैं। कब से इनकी दोस्ती है?
सरिता जी :– बचपन से है। मेरे आने के पहले से।
डॉ. दिनेश :– आप आईं , आपको पता लगा तो कैसा लगा आपको?
सरिता जी :– इन लोगों की दोस्ती ऐसी नहीं है जिसमें कुछ बुरा लगे। मैं आई तो शिवकुमारी मेरी भी दोस्त हो गईं। इनकी तो पक्की दोस्त हैं। बहुत मदद किया है उन्होंने इनकी बचपन से। इनसे तीन-चार साल बड़ी हैं। जैसा कि उनके खानदान के बारे जानकर सब सोचते होंगे, इनकी दोस्ती का आधार देह नहीं है। यह बात मेरी समझ में भी धीरे-धीरे आई। गांव का जो मेरा कच्चा घर है, उसके बनने के दौरान शिवकुमारी ने भी महीने-भर मिट्टी ढोया है। दोस्ती में, बिना कोई पैसा-मजदूरी लिए। पैसे की उन्हें जरूरत भी नहीं थी। नाच-गाकर बहुत कमाती थीं। लेकिन सब कुछ छोड़कर जेठ की धूप में मिट्टी ढोने जैसा कठिन काम करने आईं तो जरूर बहुत पक्की दोस्ती रही होगी दोनों के बीच।
डॉ. दिनेश :– तो कैसे हुई इतनी पक्की दोस्ती?
सरिता जी :– आप तो गांव में हमारे घर गए हैं। शिवकुमारी के घर भी गए हैं। दोनों घरों के बीच काफी दूरी है लेकिन बचपन मे पिता के साधू हो जाने के चलते इनको कोई टोकने वाला नहीं था कि यहां जाओ, वहां न जाओ। न शिवकुमारी के घर में कोई रोकने वाला था कि कोई क्यों मिलने आया है। ए थोड़ा घूमते-घामने, संबंध बनाने में आगे हैं ही। तो आने-जाने लगे होंगे। धीरे-धीरे दोस्ती हो गई होगी। मेरी बड़ी बेटी का मुंडन कराने गंगा जी वही लेकर गईं थीं मुझे। जब ए रेल की नौकरी में गए तो उन्हीं का कंबल-अटैची लेकर गए।
डॉ. दिनेश :– तो अभी गांव में रहती हैं शिवकुमारी?
सरिता जी :– नहीं। इनके गांव छोड़ने के बाद वे भी बाहर चली गईं। पहले कलकत्ता रहती थीं। आजकल बंबई में रहती हैं। कभी-कभार आती हैं।
डॉ. दिनेश :– आपसे आखिरी बार भेंट कब हुई उनसे?
सरिता जी :– तीन महीने पहले गांव गए तो पता चला आई हैं मिलने के लिए गए तो पता चला कि आई थीं लेकिन हफ्ते-भर पहले फिर बंबई चली गईं। तो मिलना नहीं हो सका। इसके पहले जब बहुत बीमार होने के बाद ए ठीक हुए और गांव गए तो वे मिलने आईं थी। छह साल पहले।
डॉ. दिनेश :– इस तरह की दोस्ती या प्रेम को आप कैसा मानती हैं?
सरिता जी :– अच्छा मानती हूं। मेरे दिमाग में कभी नहीं आया कि एक नाचने-गाने वाली के साथ दोस्ती क्यों है। औरत-औरत बराबर होती है। जो जिस देश-समाज-जाति मे पैदा हो गई उसी के अनुसार उसे रहना है। बहुत लोग इस नजर से देखते हैं कि यह तो नाचने वाली हैं। पेशा करने वाली हैं। मैं नहीं देखती हूं। न ए देखते हैं। असल में आदमी और औरत के बीच की दोस्ती को लोग ऐसी ही नजर से देखते हैं, देह की लालच के नजर से। इसलिए ऐसी दोस्ती पर लोगों की नजर लग जाती है। ज्यादा चल नहीं पाती है। मुझे लगता है कि आगे के जमाने में ऐसी दोस्तियां ज्यादा होंगी। इनकी तो इस तरह की और भी दोस्तियां हैं। गांव जाते हैं तो मिलने जाते हैं। ए नहीं जा पाते तो वे लोग आ जाती हैं। एक यादव परिवार की भाभी हैं। इस समय 75 साल की होंगी। ए 40-42 साल से कहते हैं कि मेरी नजर में दुनिया की सबसे सुंदर महिला यही हैं। उनसे भी कहते हैं, उनके पति और उनके बेटों से भी कहते हैं। उनके बड़े बेटे को इन्होंने ट्यूशन पढ़ाया था। तब से कहते हैं। अभी पंचायत चुनाव के समय (अक्टूबर 2010) वे लाठी टेकते हुए मिलने के लिए मेरे घर आईं थीं। घंटों हम लोग बात करते रहे। इनको बहुत कुछ याद करती हैं। हमेशा पूछती हैं। और भी हैं। एक तो अब साधू हो गई हैं। गांव के पश्चिमी सिरे पर उनका घर है। आती-जाती हाल-चाल लेती रहती हैं।
एक और थीं। मनतोरा नाम था उनका। उनसे भी इनकी बहुत पटती थी। बहुत बोल्ड महिला थीं। किसी से डरती नहीं थीं। घर-बार अच्छी तरह संभालती थीं। ए उनकी हर जगह तारीफ करते थे। बीस-बाइस साल पहले सांप काटने से उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन ए अभी तक अक्सर उनको याद करते हैं। और भी कई हैं दूसरे गांव में। पहले शादी-ब्याह में जाते थे तो वहां भी इनके दोस्त-दोस्तिन बन जाते थे। ए हैं ही ऐसे। सबसे धाय के मिलते हैं तो उसी में नजदीकी हो जाती है।
डॉ. दिनेश :– शिवमूर्ति जी ने कहीं लिखा है कि इनकी दोस्ती किसी डाकू से भी थी। यह तो अच्छी बात नहीं है।
सरिता जी :– हां, उनका नाम नरेश था। लेकिन वे मजबूरी में डाकू बने थे। अपनी बहन की बेइज्जती का बदला लेने। इस तरह के लोग जो अन्याय के खिलाफ लड़ते हैं, इनको बहुत अच्छे लगते हैं। उस समय गांव में हमारी दुश्मनी भी बहुत थी। नरेश के कारण बहुत हिम्मत रहती थी।
डॉ. दिनेश :– आप मिली हैं उससे?
सरिता जी :– हां, एक-दो बार। फिर इमरजेंसी में उनका इंकाउंटर हो गया।
डॉ. दिनेश :– आप शाकाहारी हैं कि मांसाहारी?
सरिता जी :– शाकाहारी थी। दस-पंद्रह साल पहले तंदुरूस्ती के लिए अंडे खाने लगी। बच्चों ने दबाव बनाया तो इधर दो-तीन साल से मछली खाने लगी। इसके आगे नहीं। बच्चे अब और जोर दे रहे हैं कि चिकन भी खाओ लेकिन हम चिकन कभी नहीं खाएंगे। इसी को चाहे शाकाहारी, कहिए चाहे मांसाहारी।
डॉ. दिनेश :– आपके बच्चे, बेटे-बेटियां शिवमूर्ति जी के लेखन को किस रूप में लेते हैं?
सरिता जी :– सभी चाहते हैं कि पापा लिखें। सबको अच्छा लगता है लेकिन लिखने के लिए मैं उन पर ज्यादा जोर देती हूं तो बच्चे मेरा विरोध करते हैं। कहते हैं पापा 60 साल के हो चुके हैं, उन्हें अपने आप तय करने दीजिए कि कितना कब लिखना है, कितना कब घूमना है।
डॉ. दिनेश :– फिर घूमने की कोई योजना है?
सरिता जी :– ए तो नहीं जा रहे हैं। मैं बच्चों के साथ दस दिन के लिए जनवरी मे गोवा जा रही हूं।
डॉ. दिनेश :– ए क्यों नहीं जा रहे है?
सरिता जी :– बहुत भीड़ में इन्हें मजा नहीं आता। हमारा बड़ा परिवार है। कई बेटियां। उनके बच्चे। बीसों लोग। इसलिए ए नहीं जा रहे हैं।
डॉ. दिनेश :– अकेले में कहीं जाने की योजना है क्या?
सरिता जी :– अकेले नहीं। दोनों लोग जाएंगे यूरोप, मई में। उसके पहले शायद सिंगापुर , बैंकाक बगैरह।
डॉ. दिनेश :– शिवमूर्ति जी को अपने बहुत कुछ दिया। इन्होने आपको बहुत कुछ दिया। अब आप इनसे क्या चाहती हैं?
सरिता जी :– हमें सब कुछ मिला। अब सचमुच कुछ नहीं चाहिए। बस यही चाहती हूं कि ए अपनी सारी ताकत सारा समय लिखने में लगाएं। कोई यादगार उपन्यास लिखें।
डॉ. दिनेश :– जैसे?
सरिता जी :– (सोच में पड़ जाती हैं। थोड़ी देर बाद) अब जैसे क्या बताएं ।हम तो ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं।
डॉ. दिनेश :– जो पढ़ा है, उसी में से बताएं कि किस तरह की कहानी लिखें तो आपको अच्छा लगेगा?
सरिता जी :– गरीब दुखिया की, किसानी की, गांव-देश की कहानी लिखें तो अच्छा लगेगा। जैसे ढोढाय चरित मानस।
डॉ. दिनेश :–कोई कहानी जो पढ़ी हो और याद रह गई हो?
सरिता जी :– हां, एक कहानी थी-सतमी के बच्चे। आजमगढ़ के पंडित जी थे। कचेहरी के पास रहते थे। बुढ़ापे में अपना नाम-पता भूल गए थे। जिनकी एक पत्नी रूसी थीं, एक दार्जिलिंग में थीं। उनका नाम…… देखिए……
डॉ. दिनेश :– वो, राहुल सांस्कृत्यायन?
सरिता जी :– हां-हां, उन्हीं की कहानी थी। रूला देती है वह कहानी। कितनी भयानक गरीबी का जमाना था। एक और कहानी शायद प्रेमचंद की है- ठाकुर का कुंआ। कितनी छुआछूत थी। कितना अत्याचार किया है हिंदू धरम में लोगों ने अपने ही भाई-बंदों पर। इसीलिए मैं धरम-करम नहीं मानती।
डॉ. दिनेश :– आपके घर में भीड़भाड़ कुछ ज्यादा ही है। हम तो कहेंगे कि अगर चाहती हैं कि शिवमूर्ति जी सिर्फ लिखें तो इनको कहीं एकांत में भेज दीजिए, जहां डिस्टर्व न हो।
सरिता जी :– एकदम एकांत में रहेंगे तो रोते रहेंगे। लिखेंगे कम, रोएंगे ज्यादा। इसलिए एकदम अकेले नहीं छोड़ सकते। साठ पार करने के बावजूद मन से अभी बच्चे ही हैं। (आवाज को धीमी करके) मुझे तो डर लगता है कि ए भी अपने दादा की तरह साधू न हो जाएं। (मुस्कराती हैं)। :- मतलब गोपियां कहती हैं। कि बरसाने में बसने से मैं बावरी हो गई। पिया-पिया रटते-रटते मैं पीली पड़ गई।
डॉ. दिनेश :– वाह! और?
सरिता जी :– हमारे पड़ोस के एक कवि हैं जुमई खां आजाद। उनका गीत गुनगुनाते हैं- ‘बड़ी-बड़ी कोठिया उठाया पूंजीपतिया कि दुखिया कै रोटिया चोराइ-चोराइ। अपनी महलिया मा केहा तू अंजोरया कि झोपड़ी के दियना बुझाइ-बुझाइ।’
डॉ. दिनेश :– उदासी के गीत ही गाते हैं?
सरिता जी :– राग-रंग वाले गीत भी गाते हैं। ऐसे गीत भी जिन्हें औरतें ही गाती हैं शादी-ब्याह में। फूहड़ गालियां भी। पता नहीं कहां-कहां से इकट्ठा किए हैं। तिरिया चरित्तर, सिरी उपमा जोग, केशर-कस्तूरी आदि कहानियां लिखते समय निरंतर गाते या रोते रहते थे।
डॉ. दिनेश :– आजकल क्या लिखते हैं?
सरिता जी :– आजकल लिख कम रहे हैं। ज्यादातर अपनी गर्ल फ्रैंड के साथ बिताते हैं।
डॉ. दिनेश :– क्या?
सरिता जी :– हां, वही जिसके भौंकने की आवाज बीच-बीच में आ रही है। उसका नाम है लारा। उसको खिलाने-पिलाने, नहलाने-टहलाने में इतने मगन हैं इन दिनों कि बेटियां कहती हैं कि यह पापा की गर्ल फ्रैंड है।
डॉ. दिनेश :– संजीव भाई ने भी अपने एक संस्मरण में लिखा है कि शिवमूर्ति जी कुत्तों के प्रेमी हैं।
सरिता जी :– बहुत ज्यादा। बचपन में कुत्ते पालने के चलते बाप की मार खाए हैं। जब गांव में थे तो पूरे टोले के कुत्ते इनके प्रेमी थे। रेलवे की नौकरी में बाहर जाने के बाद चार-छह महीने में आते तो कुत्तों को गांव के बाहर ही पता चल जाता। एक देखता तो आवाज देकर दूसरों को बताता, फिर पूरा झुंड इनके साथ चलते हुए कूद-कूदकर इनके कपडे़ खराब करते हुए घर तक आता। बाहर नौकरी करते हुए भी कहीं-न कहीं से कोई पिल्ला-पिल्ली उठा लाते। पाल लेते। इलाहाबाद में एक थी उर्वसी। उसके पहले एक थी टीना। उसके भी पहले जाने कितने-कितनी। गांव में हमारे घर पर अभी भी चार-पांच कुत्ते हैं पहुंचते ही घेर लेते हैं।
डॉ. दिनेश :– किस्से भी बहुत सुनाते हैं छोटे-छोटे। कहां पाते हैं इतने किस्से?
सरिता जी :– पता नहीं। पहले से ही हैं इनके पास।
डॉ. दिनेश :– अच्छा यह बताइए, भाई साहेब को जब साहबी वाली नौकरी मिली, आप शहर आईं, तो कभी गहने वगैरह की फरमाइश किया इनसे?
सरिता जी :– फरमाइस तो बहुत पहले ही कर दिया था। रेलवे की नौकरी से लंबी छुट्टी लेकर चले आए थे। बहुत सारी किताबें लेकर सबेरे से शाम तक महुए के पेड़ के नीचे खटोला बिछाकर पढ़ते रहते थे। कहते थे कि बड़ी नौकरी के लिए पढ़ रहे हैं। बताए कि पांच-छह महीने बाद इम्तहान होगा। उसको देने के बाद ही रेलवे की नौकरी पर वापस जाएंगे। मैंने कहा कि दादा साधू होकर अपने गुरू महाराज के घर चले गए हैं। मैं ही खेती-बारी का आपका सारा काम निपटा रही हूं। जब भारी तनखाह वाली नौकरी मिल जाएगी तो मेरे लिए बहुत सारे गहने गढ़वाना होगा। तभी बचन ले लिए था।
डॉ. दिनेश :– तो गढ़वाया इन्होंने?
सरिता जी :– ए तो जब से मुझे शहर में लाए अपने पास कभी पैसा रखा ही नहीं। जो कुछ लाए मेरे हाथ पर रख दिया और कभी पूछा नहीं कहां खर्च किया? गहने भी मैंने खुद ही गढ़ाए। ए तो साथ भी नहीं जाते दुकान तक।
डॉ. दिनेश :– काली किनारी वाली साड़ी के बाद फिर कब साड़ी दिए?
सरिता जी :– बस दो बार आज तक साड़ी लाए हैं मेरे लिए। एक काली किनारी वाली गांव में और एक नीले रंग की जब गांव से शहर आना था उस समय।
डॉ. दिनेश :– भरतनाट्यम कहानी में तो बेटा पाने के लिए वह औरत खलील दर्जी के साथ भाग जाती है। आपने बेटा पाने के लिए क्या-क्या किया?
सरिता जी :– मैंने कुछ नहीं किया। मऊ में पोस्टिंग हुईं तब तक मेरे छह बेटियां हो चुकी थीं। मऊ में एक मिसराइन जी से हेल-मेल हो गया। उन्होंने कहा कि मार्कण्डे पुराण सुन लीजिए तो बेटा हो जाएगा। मैंने कहा ठीक है। बाद में उन्होंने कहा कि बनारस, के जो विद्धान पुराण सुनाएंगे वे सीधे आपको नहीं सुनाएंगे क्योंकि शूद्र लोग यह पुराण नहीं सुन सकते। हमारी जाति को शूद्र कहा जाता है। उन्होंने इसका उपाय बताया कि पुराण सुनाने का खर्च दे दीजिए। वे खुद यह पुराण सुनकर उसका पुण्य मुझे संकल्प कर देंगी, तो पुराण सुनने का फल मुझे मिल जाएगा। मैंने कहा कि जो पुराण मैं सुन नहीं सकती उसका पुण्य भी मुझे नहीं चाहिए।
डॉ. दिनेश :– सच? ऐसा कहा आपने? क्यों?
सरिता जी : आदमी-आदमी के बीच इतनी नीच-ऊंच की बात मुझे अच्छी नहीं लगी।
डॉ. दिनेश :- कि शिवमूर्ति जी ने इंकार करवा दिया था?
सरिता जी :– इनसे तो मैंने उस समय कुछ कहा ही नहीं। उसी बार बेटा हो गया। जब बेटा हो गया, उसके पांच-छह महीने बाद बताया कि ऐसा-ऐसा हुआ।
डॉ. दिनेश :– तो कैसे हुआ बेटा? आपने किसी देवी-देवता की मन्नत मानी थी?
सरिता जी :– मैं किसी देवी-देवता को नहीं मानती।
डॉ. दिनेश :– पूजा-पाठ, ब्रत-उपवास?
सरिता जी :– कोई पुजा-पाठ, ब्रत-उपवास आज तक मैंने नहीं किया। न किसी मंदिर में हाथ जोड़ने गई।
डॉ. दिनेश :– अरे आप तो पक्की कम्युनिस्ट हैं?
सरिता जी :– (हंसती हैं) हमारी सास भी ऐसी ही थीं। कभी ब्रत-उपवास, पुजा-पाठ नहीं किया। कहीं गंगा-जमुना स्नान करने नहीं गईं।
डॉ. दिनेश :– हद है। लेकिन आपके ससुर तो साधू थे?
सरिता जी :– हां, वे साधू थे। शाकाहारी थे। दिन-भर पूजा-पाठ करते थे लेकिन सास मांस-मछली खाती थीं। ए मां-बाप दोनों के लिए अलग-अलग इंतजाम करते थे। सास के लिए मछली-गोस और ससुर के लिए गांजा-भांग।
डॉ. दिनेश :– अच्छा, एक खास बात पूछना चाहते हैं। शिवमूर्ति जी ने कई जगह अपनी एक महिला मित्र शिवकुमारी का जिक्र किया है। जानती हैं?
सरिता जी :– हां-हां, वे तो हमारे ही गांव की हैं।
डॉ. दिनेश :–तो किस तरह की दोस्ती है इन लोगों की? सुनते हैं कि वे देह का पेशा करने वाली बिरादरी की हैं। कब से इनकी दोस्ती है?
सरिता जी :– बचपन से है। मेरे आने के पहले से।
डॉ. दिनेश :– आप आईं , आपको पता लगा तो कैसा लगा आपको?
सरिता जी :– इन लोगों की दोस्ती ऐसी नहीं है जिसमें कुछ बुरा लगे। मैं आई तो शिवकुमारी मेरी भी दोस्त हो गईं। इनकी तो पक्की दोस्त हैं। बहुत मदद किया है उन्होंने इनकी बचपन से। इनसे तीन-चार साल बड़ी हैं। जैसा कि उनके खानदान के बारे जानकर सब सोचते होंगे, इनकी दोस्ती का आधार देह नहीं है। यह बात मेरी समझ में भी धीरे-धीरे आई। गांव का जो मेरा कच्चा घर है, उसके बनने के दौरान शिवकुमारी ने भी महीने-भर मिट्टी ढोया है। दोस्ती में, बिना कोई पैसा-मजदूरी लिए। पैसे की उन्हें जरूरत भी नहीं थी। नाच-गाकर बहुत कमाती थीं। लेकिन सब कुछ छोड़कर जेठ की धूप में मिट्टी ढोने जैसा कठिन काम करने आईं तो जरूर बहुत पक्की दोस्ती रही होगी दोनों के बीच।
डॉ. दिनेश :– तो कैसे हुई इतनी पक्की दोस्ती?
सरिता जी :– आप तो गांव में हमारे घर गए हैं। शिवकुमारी के घर भी गए हैं। दोनों घरों के बीच काफी दूरी है लेकिन बचपन मे पिता के साधू हो जाने के चलते इनको कोई टोकने वाला नहीं था कि यहां जाओ, वहां न जाओ। न शिवकुमारी के घर में कोई रोकने वाला था कि कोई क्यों मिलने आया है। ए थोड़ा घूमते-घामने, संबंध बनाने में आगे हैं ही। तो आने-जाने लगे होंगे। धीरे-धीरे दोस्ती हो गई होगी। मेरी बड़ी बेटी का मुंडन कराने गंगा जी वही लेकर गईं थीं मुझे। जब ए रेल की नौकरी में गए तो उन्हीं का कंबल-अटैची लेकर गए।
डॉ. दिनेश :– तो अभी गांव में रहती हैं शिवकुमारी?
सरिता जी :– नहीं। इनके गांव छोड़ने के बाद वे भी बाहर चली गईं। पहले कलकत्ता रहती थीं। आजकल बंबई में रहती हैं। कभी-कभार आती हैं।
डॉ. दिनेश :– आपसे आखिरी बार भेंट कब हुई उनसे?
सरिता जी :– तीन महीने पहले गांव गए तो पता चला आई हैं मिलने के लिए गए तो पता चला कि आई थीं लेकिन हफ्ते-भर पहले फिर बंबई चली गईं। तो मिलना नहीं हो सका। इसके पहले जब बहुत बीमार होने के बाद ए ठीक हुए और गांव गए तो वे मिलने आईं थी। छह साल पहले।
डॉ. दिनेश :– इस तरह की दोस्ती या प्रेम को आप कैसा मानती हैं?
सरिता जी :– अच्छा मानती हूं। मेरे दिमाग में कभी नहीं आया कि एक नाचने-गाने वाली के साथ दोस्ती क्यों है। औरत-औरत बराबर होती है। जो जिस देश-समाज-जाति मे पैदा हो गई उसी के अनुसार उसे रहना है। बहुत लोग इस नजर से देखते हैं कि यह तो नाचने वाली हैं। पेशा करने वाली हैं। मैं नहीं देखती हूं। न ए देखते हैं। असल में आदमी और औरत के बीच की दोस्ती को लोग ऐसी ही नजर से देखते हैं, देह की लालच के नजर से। इसलिए ऐसी दोस्ती पर लोगों की नजर लग जाती है। ज्यादा चल नहीं पाती है। मुझे लगता है कि आगे के जमाने में ऐसी दोस्तियां ज्यादा होंगी। इनकी तो इस तरह की और भी दोस्तियां हैं। गांव जाते हैं तो मिलने जाते हैं। ए नहीं जा पाते तो वे लोग आ जाती हैं। एक यादव परिवार की भाभी हैं। इस समय 75 साल की होंगी। ए 40-42 साल से कहते हैं कि मेरी नजर में दुनिया की सबसे सुंदर महिला यही हैं। उनसे भी कहते हैं, उनके पति और उनके बेटों से भी कहते हैं। उनके बड़े बेटे को इन्होंने ट्यूशन पढ़ाया था। तब से कहते हैं। अभी पंचायत चुनाव के समय (अक्टूबर 2010) वे लाठी टेकते हुए मिलने के लिए मेरे घर आईं थीं। घंटों हम लोग बात करते रहे। इनको बहुत कुछ याद करती हैं। हमेशा पूछती हैं। और भी हैं। एक तो अब साधू हो गई हैं। गांव के पश्चिमी सिरे पर उनका घर है। आती-जाती हाल-चाल लेती रहती हैं।
एक और थीं। मनतोरा नाम था उनका। उनसे भी इनकी बहुत पटती थी। बहुत बोल्ड महिला थीं। किसी से डरती नहीं थीं। घर-बार अच्छी तरह संभालती थीं। ए उनकी हर जगह तारीफ करते थे। बीस-बाइस साल पहले सांप काटने से उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन ए अभी तक अक्सर उनको याद करते हैं। और भी कई हैं दूसरे गांव में। पहले शादी-ब्याह में जाते थे तो वहां भी इनके दोस्त-दोस्तिन बन जाते थे। ए हैं ही ऐसे। सबसे धाय के मिलते हैं तो उसी में नजदीकी हो जाती है।
डॉ. दिनेश :– शिवमूर्ति जी ने कहीं लिखा है कि इनकी दोस्ती किसी डाकू से भी थी। यह तो अच्छी बात नहीं है।
सरिता जी :– हां, उनका नाम नरेश था। लेकिन वे मजबूरी में डाकू बने थे। अपनी बहन की बेइज्जती का बदला लेने। इस तरह के लोग जो अन्याय के खिलाफ लड़ते हैं, इनको बहुत अच्छे लगते हैं। उस समय गांव में हमारी दुश्मनी भी बहुत थी। नरेश के कारण बहुत हिम्मत रहती थी।
डॉ. दिनेश :– आप मिली हैं उससे?
सरिता जी :– हां, एक-दो बार। फिर इमरजेंसी में उनका इंकाउंटर हो गया।
डॉ. दिनेश :– आप शाकाहारी हैं कि मांसाहारी?
सरिता जी :– शाकाहारी थी। दस-पंद्रह साल पहले तंदुरूस्ती के लिए अंडे खाने लगी। बच्चों ने दबाव बनाया तो इधर दो-तीन साल से मछली खाने लगी। इसके आगे नहीं। बच्चे अब और जोर दे रहे हैं कि चिकन भी खाओ लेकिन हम चिकन कभी नहीं खाएंगे। इसी को चाहे शाकाहारी, कहिए चाहे मांसाहारी।
डॉ. दिनेश :– आपके बच्चे, बेटे-बेटियां शिवमूर्ति जी के लेखन को किस रूप में लेते हैं?
सरिता जी :– सभी चाहते हैं कि पापा लिखें। सबको अच्छा लगता है लेकिन लिखने के लिए मैं उन पर ज्यादा जोर देती हूं तो बच्चे मेरा विरोध करते हैं। कहते हैं पापा 60 साल के हो चुके हैं, उन्हें अपने आप तय करने दीजिए कि कितना कब लिखना है, कितना कब घूमना है।
डॉ. दिनेश :– फिर घूमने की कोई योजना है?
सरिता जी :– ए तो नहीं जा रहे हैं। मैं बच्चों के साथ दस दिन के लिए जनवरी मे गोवा जा रही हूं।
डॉ. दिनेश :– ए क्यों नहीं जा रहे है?
सरिता जी :– बहुत भीड़ में इन्हें मजा नहीं आता। हमारा बड़ा परिवार है। कई बेटियां। उनके बच्चे। बीसों लोग। इसलिए ए नहीं जा रहे हैं।
डॉ. दिनेश :– अकेले में कहीं जाने की योजना है क्या?
सरिता जी :– अकेले नहीं। दोनों लोग जाएंगे यूरोप, मई में। उसके पहले शायद सिंगापुर , बैंकाक बगैरह।
डॉ. दिनेश :– शिवमूर्ति जी को अपने बहुत कुछ दिया। इन्होने आपको बहुत कुछ दिया। अब आप इनसे क्या चाहती हैं?
सरिता जी :– हमें सब कुछ मिला। अब सचमुच कुछ नहीं चाहिए। बस यही चाहती हूं कि ए अपनी सारी ताकत सारा समय लिखने में लगाएं। कोई यादगार उपन्यास लिखें।
डॉ. दिनेश :– जैसे?
सरिता जी :– (सोच में पड़ जाती हैं। थोड़ी देर बाद) अब जैसे क्या बताएं ।हम तो ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं।
डॉ. दिनेश :– जो पढ़ा है, उसी में से बताएं कि किस तरह की कहानी लिखें तो आपको अच्छा लगेगा?
सरिता जी :– गरीब दुखिया की, किसानी की, गांव-देश की कहानी लिखें तो अच्छा लगेगा। जैसे ढोढाय चरित मानस।
डॉ. दिनेश :–कोई कहानी जो पढ़ी हो और याद रह गई हो?
सरिता जी :– हां, एक कहानी थी-सतमी के बच्चे। आजमगढ़ के पंडित जी थे। कचेहरी के पास रहते थे। बुढ़ापे में अपना नाम-पता भूल गए थे। जिनकी एक पत्नी रूसी थीं, एक दार्जिलिंग में थीं। उनका नाम…… देखिए……
डॉ. दिनेश :– वो, राहुल सांस्कृत्यायन?
सरिता जी :– हां-हां, उन्हीं की कहानी थी। रूला देती है वह कहानी। कितनी भयानक गरीबी का जमाना था। एक और कहानी शायद प्रेमचंद की है- ठाकुर का कुंआ। कितनी छुआछूत थी। कितना अत्याचार किया है हिंदू धरम में लोगों ने अपने ही भाई-बंदों पर। इसीलिए मैं धरम-करम नहीं मानती।
डॉ. दिनेश :- आपके घर में भीड़भाड़ कुछ ज्यादा ही है। हम तो कहेंगे कि अगर चाहती हैं कि शिवमूर्ति जी सिर्फ लिखें तो इनको कहीं एकांत में भेज दीजिए, जहां डिस्टर्व न हो।
सरिता जी :– एकदम एकांत में रहेंगे तो रोते रहेंगे। लिखेंगे कम, रोएंगे ज्यादा। इसलिए एकदम अकेले नहीं छोड़ सकते। साठ पार करने के बावजूद मन से अभी बच्चे ही हैं। (आवाज को धीमी करके) मुझे तो डर लगता है कि ए भी अपने दादा की तरह साधू न हो जाएं। (मुस्कराती हैं)।