जीने का शिवमूर्तियाना अंदाज : (संजीव)

      शिवमूर्ति पर लिखा यह आलेख नया ज्ञानोदय व मंच के अंको में पूर्व प्रकाशित है। पाठकों के लिए पुन: संयोजित।

                                                        शिवमूर्ति यानी शिव की मूर्ति!

 

अनेकानेक नंदियों-भृंगियों भूतों-पिशाचों डाकिनियों-शाकिनियों रोगियों-अपरिहतों नंगों चंद्रमाओं और परस्पर विरोधी मिथकों के जटाजूट में कल्याणी गंगा को भरमाए हुए महाकाल! जी मैं कोई शिवस्वोत्रा का पाठ नहीं कर रहा मैं तो महज उन अतियों और अंतर्विरोधों की ओर इशारा भर कर रहा हूं जो शिवमूर्ति में हैं। अवध राम का क्षेत्र है ओर शिवमूर्ति की जन्मस्थली-अमेठी (सुलतानपुर) (अब छत्रपति साहूजी नगर)। ठहरा ठेठ अवध जहां राम का नाथ-पगहा लगाए बगैर कोई भी नाम पूरा नहीं होता। पहली बगावत यहीं से नाम से राम नहीं शिव’! आर्यो नहीं अनार्यो और द्रविड़ों के देवता। शिव की ही तरह शिवमूर्ति के हजार किस्से हैं! परस्पर विराधी किस्से! समझ में नहीं आता कितना सच है कितना झूठ!ई

अवध के ग्रामीण अंचल के सबसे चौकन्ने इस कथाकार केपीछे ढेरों कथानक भौंकते हुए पीछा करते रहते हैं, पर शिवमूर्ति हैं किपल्ला छुड़ाकर भागते चलते हैं। लेखनेतर मामलों में बेहद कर्मठ पर लिखने मेंउतने ही काहिल। काहिली का यह आलम है कि एक बार कोई पैम्पलेट लिखना था, संयोगवष मैं वहीं था, सो उन्होंने मुझे ही आगे कर दिया, ”आप ही लिख दोपार्टनर!शुक्र है कि उनके प्रेमपत्र लिखने के दिनों में मैं उनके साथनहीं था। (कहानी पढ़ने में भी वही अवरोध। आप ही पढ़ दो न पार्टनर!) मैंकुढ़कर रह जाता-खाएं भीम, हगें शकुनी! अगर शिवमूर्ति को हाथ से लिखना नपडे़ और उनकी कथा सुन-सुनकर कोई लिखने वाला मिल जाए तो कमाल हो जाए। आपनेशुरूआती कसाईबाड़ा‘, ‘अकालदंडऔरभरतनाट्‌यमलिख तो लीं मगर छपवाने मेंफिर वही गतिरोध। तीनों कहानियां लेकर याचक की तरह जा पहुंचे कथाकार मित्रबलराम के पास, ”सुना है, आपकी चीजें पत्र-पत्रिकाओं में छपती रहती हैं।देखिए, ये अगर ठीक लगें तो इन्हें भी अपने नाम से छपवा लें!यह कानपुर काकिस्सा है। इसके एक-आध वर्ष के बाद बलराम सारिकाके उपसंपादक बनकरदिल्ली आ गए। भला हो बलराम का कि उन कहानियों को उन्होंने उपने नाम से नहींछपवाया, वरना क्या होता!

    ‘कसाईबाड़ाको बलराम नेभारती जी को भेज दिया, ‘अकालदंड‘ ‘काफिलामें छपी और भरतनाट्‌यमकाफीबाद में सारिकामें। जनवरी, सन 1980 में धर्मयुगमें छपकर कसाईबाड़ाने जो शोहरत हासिल की, वह बिरली ही कहानियों को प्राप्त हुई। संतोखी काका (संवाद-प्रतियोगिता दिनमान‘) की तरह ही। कसाईबाड़ापढ़कर अपने अंचल कीखुशबू से मैं गदगद था। सोचा, होगा कोई धाकड़ लेखक, पर सन 81 में जब शिमलामें पहली बार मिला तो शिवमूर्ति को देखकर मेरी भावमूर्ति भरभरा गई- यह तोएक दुबला-पतला लड़का है। कसाईबाड़ाके सैकड़ों मंचन हुए और शिवमूर्तिबतौर कहानीकार स्थापित हो गए। लेकिन बनने और अपनी कहानीयों को छपा हुआदेखने के इच्छुक शिवमूर्ति को धर्मयुगके लिए कहानी भेजने के खत भारती जीभेजते रहे, पर शिवमूर्ति से न लिखा गया तो न ही लिखा गया। दूसरों को जगजीतलेने के लिए ललकारते रहने वाले शिवमूर्ति कब स्वयं हाइबरनेशन में चलेजाएंगे और उस शाप से इन्हें कब मुक्ति मिल पाएगी-कोई नहीं जानता। जग भी गएतो जाहिरा तौर पर अपनी रचनाओं के प्रति कोई विशेष उत्साह नहीं प्रकटकरेंगे। यह उदासीनता गुल्ली डंडा‘ (प्रेमचन्द) के उस्ताद की उदासीनता है।सन 1982 में मुझसे कहा था, ”ज्यादा नहीं लिखना है। मैं तो बस यूंही….एक-दो फिल्म बन जाएं-यही सोचकर लेखन में आया था।उनकी यह मुराद भीपूरी होती रही। पंजाब में रेलवे की नौकरी करते समय लिखा गया पहला हीउपन्यास (जो उनकी रचनाओं की सूची से खारिज है) फिल्म के लिए स्वीकृत हुआथा, ‘कसाईबाड़ापर भी फिल्म बनी, तिरिया चरित्तरपर भी, और अब तर्पणपरभी बन रही है।

     इस उदासीनता का विश्लेषण मित्रअपने-अपने ढंग से करते हैं। प्रियंवद कहते हैं, ”रह-रह कर इनको कुछ होजाता है। कहेंगे, बुखार है, खाना नहीं खाएंगे। रजाई, कंबल ओढ़कार लेटजोएंगे… और वाकई इनको वह सब हो जाएगा।

     ‘लोप्रेशर’ के मरीज! चाहे बज्जर की गरमी पड़ रही हो, सोते समय पंखा नहीं चलनेदेंगे। गर्मी हो या सर्दी, आठ-नौ बजे शाम से ही नींद घेरने लगेगी। अलबत्तासुबह 4-5 बजे उठ जाएंगे। दो-तीन बार में निबटान पूरा होगा, फिर व्यायाम, बीच-बीच में अखबार भी, फोन भी और बच्चों को सुझाव-परामर्श भी।

वैसे तो बेटा मोनू भी है, नौकर भी, ड्राइवर भी, खुद भी, पत्नी भी, मगरशिवमूर्ति का घर मुख्यत: बचिचयों का घर है, बेटियां, नाती-नातिन, केशर सेलेकर उमा-कला तक, कभी-कभी मेरी बेटियां मंजु और अनीता भी। इस बड़े परिवारमें गाय और बछिया भी काफी दिनों से सदस्य रहीं, एक लावारिस कुतिया ‘टीना’ भी। शिवमूर्ति बताते हैं। कि कभी कोई लाली गाय और मकरा बैल परिवार के सदस्यहुआ करते थे, सांप-वांप भी, वह परंपरा अभी पिछले दिनों तक कायम रही।

पिता पहले दर्जे के अक्खड़। जीवित मेमना लड़कर छीन लाए भेड़िये से और बादमें काहिल ऐसे कि बेटे से भी बेटे का ग्रास छीन लेते। पहले पहलवानी की, लाठी चलाई, ठाकुरों से मोर्चा लिया, फिर साधु हो गए। अध्यात्म की हेरा-फेरीकरते-करते कबीरपंथी हुए। मृत्युपर्यंत आयु के अंतिम पड़ाव पर बेटे के साथही रहते थे। शिवमूर्ति ने पिता से अक्खड़ता ली। पिता के विररीत मां-पक्कीयथार्थवादी-श्रम और कष्ट-किलष्ट जीवन! बहुत बीमार थीं तो बेटे के पास थीं।शिवमूर्ति ने मां से यथार्थवाद लिया। घर का वातावरण उदार है, जहां महमूद (त्रिशूल का महमूद) जैसों की भी गुजर-बरसर हो जाती थी, ब्राम्हण और वैष्णवमित्रों की भी। घर-परिवार की निगहबानी पत्नी सरिता जी के हाथों में रहतीहै- बालिका-बधू से अब पौढ़ पत्नी के लम्बे सफर में शिवमूर्ति की बाकईहमसफर!

परवर्ती दिनों में तो शिवमूर्ति के पास सेल्सटैक्स की संपन्नता के क्रमश: आगमन से दिन बदलने लगते हैं, पर कभीफाकाकशी  के भी दिन थे। उन दिनों की दास्तान शिवमूर्ति और गौतम सान्याल ने विस्तारसे लिखी है। पैसे उगाहने के लिए पुंसत्व और गर्भनिरोधक गोलियां बनाना औरमेले-ठेले में मजमा लगाकर बेचना और खरीदने वाले वही साधु-संत! ठगों के साथठगी। साधुओं ने शिवमूर्ति के परिवार को खूब लूटा था, ब्याज समेत वसूल लियाशिवमूर्ति ने। राजेन्द्र यादव कहते हैं कि जो जितना बड़ा कमीना होता है, उतना बड़ा लेखक होता है। उदाहरण के लिए पहले अमरकांत का नाम लेते थे, बादमें शिवमूर्ति का भी लेने लगे।

      शुक्र है, सेल्सटैक्स की प्रतियोगिता की पगडंडी मिल गई। प्रतियोगिता के लिए एकांत मेंपढ़ना चाहिए, सो जा चढे़ पेड़ पर-चौदह-चौदह घंटे पेड़ पर पढ़ना (शिवमूर्तियाना अंदाज)! जिम्नासिटक्स स्टार नादिंया कोमांसी भी पेड़ पर जाचढ़ती थी। अज्ञेय तो बाकायदा पेड़ पर घोंसला ही बनाने का ख्वाब देखते रहे।लेकिन यह एकाग्रता और निश्चिंतता न मिलती, अगर सरिता जी, पड़ोसियों सेमांग-जाच कर पेड़ पर ही भोजन न पहुंचा देतीं। पता चला है, उन दिनोंसप्ताहांत में मात्र एक बार उन्हें छूनेकी इज़ाज़त थी! छह दिन कल्पवास!लक्ष्मण जी से भी कठोर ब्रम्हचर्य!

     दो-दो बेटियां होचली थीं, बेटा एक भी नहीं। पिता अंदर ही अंदर ठाने रहते। भरतनाट्‌यमएकतरह से उन दिनों की छाया-सी है, जिसमें पिता, जियावन दर्जी, पत्नी, मां, गांव के लोग (संभवत: मामा भी बडे़ भाई के रूप में), बेकारी के दिन, कथात्मकमुखौटा लगा-लगाकर स्लो मोशन में आते-जाते रहते हैं। शिवमूर्ति का कथाकारअपने किसी पात्र को नहीं बख्शता।

     पिता- सालाशाम होते ही मेहरारू की टांगों में घुस जाता है। चार साल में तीन पिल्लियानिकाल दीं! खबरदार! अगर चौथी बार मूस भी पौदा हो गया तो बिना खेती-बाड़ीमें हिस्सा दिए अलग कर दूंगा!

     या फिर पिता-पुत्र संवाद-

ज्ञान अपनी पत्नी को बेटा नहीं दे पाता, पत्नी दर्जी के साथ भाग जाती है। 

     पिता दांत पीसते हुए कहते हैं, ”क्यों रे कुत्ते! नाक कटवा ली न!

     ”नाक है आपके?” मैं पिताजी की आंखों में आंखे डालकर निर्भय और शांत प्रश्न करता हूं।

     ”नाक नहीं है रे मरे! मेरे नाक नहीं है!पिता का एक झापड़।

     ”पता नहीं, मेरे तो नहीं है।

     ”हिजडे़, जनखे! बूत नहीं था तो मुझसे कहा होता। मुझे भी नामर्द समझ लिया था क्या?”

     पहली बार पिता के आगे चीखता हूं,

     ”मैंने आपको मना किया था क्या?”

     वाकई! ज्ञान किसी को भी मना नहीं करता, बडे़ भइया हों, पिता हों या खलील दर्जी, जो चाहे बेटा पैदा करा दे पत्नी से।

     यह पिताज्ञानरंजन के पिताऔर दुसरे सभी लेखकों के पिताओंसे भिन्नहै, मौलिक है, अकृत्रिम और अनूठा है। कहते हैं, साहित्य में हर पीढ़ीपितृहंता हुआ करती है। शिवमूर्ति उसके जीते-जागते विद्रूप हैं (यह अलग बातहै कि नींद लग जाने के चलते सिरहाने के नीचे का रखा गया गंड़ासा धरा का धरारह गया और पिता बच गए)।

     और पत्नी…..? जैनेन्द्रकी पत्नी‘, विजय की वो सुरीली‘, शैलेश मटियानी की अर्द्धागिनीसे अलग, माटी से उपजी, दुख में तपी, माटी की मूरत हैं। ब्याह के समय कान छेदवाने सेबचने के लिए शिवमूर्ति भागते हैं, पकड़कर बालिका-वधू सरिता जी के पास लाएजाते हैं- बोलिए महारानी, क्या सलूक किया जाय आपके इस भगेडू महाराज से?”

    और महारानी का मुक्का जा बैठता है शिवमूर्ति के जबड़े पर-बोल फिर भागेगा?”

नहीं।

कभी नहीं?”

कभी नहीं?”

     सच, फिर न कभी शिवमूर्ति ने भागने की, न सरिता जी के डांटने की नौबत आई।शिवमूर्ति, शिवमूर्ति न होते, अगर सरिता जी जैसी पत्नी का संग-साथ उन्हें नमिला होता। ऐसी पत्नी दुर्लभ है। शिवमूर्ति  मानते भी हैं। मानने की एकबड़ी वजह यह भी है कि सरिता जी ने पति को उन चीजों के लिए भी क्षमा करदिया, जिनके लिए पत्नियां पतियों को कभी क्षमा नहीं करतीं।

शिवमूर्तिको मैत्रेयी जी की तरह उत्तर-आधुनिकता, मैजिक रियलिज्म आदि भले ही अटपटालगे मगर जब सरिता जी उन्हें भाखामें समझाती हैं तो पलक झपकते ही समझजाते हैं-

दमड़ी के तेल लायौं, अर्र पोयों,

बर्र पोयों

सैंया की टंगरिया लगायौं,

थोर के अड़ाइगा

नदी नार बहिगा

टिकुली के भाग से 

सैंया मोरा बचिगा।

     (एक दमड़ी का तेल लाई, अरा पोई, बरा पोई, सैंया की टांग में लगाया, इसीमें जरा-जरा तेल ढरक भी गया। उस ढरके तेल से नदी-नाले बह गए, अग-जग डूबनेलगा मगर मेरा सैंया नहीं बहा। मेरी टिकुली के भाग से बच गया मोरा सैंया!)

     मैंने कभी दिनेश कुशवाहा से सरिता जी कि बाबत कहा भी था, ” दुनिया मेंऐसा कहां सबका नसीब है, कोई-कोई अपनी सियाके करीब है।

     अवधी का एक बिरहा है-

बिरहा गावैं निरहू गडे़रिया

जेकर मेहरि दुर चार।

एक कूटै, एक पीसै

और एक भेड़िया चरावे जाय।।

     शिवमूर्ति बिरहा गाते रहे, कूटने-पीसने का फ्रंट संभाला सरिता जी ने। मगर वह तो कुल जमा एक ही मेहरि हुईं, बाकी……?

क्या पतुरिया शिवमूर्ति?

     शिवमूर्ति और शिवकुमारी। हीरामन और हीराबाई। मीता! शिवकुमारी के कई एहसासस्वीकारे हैं शिवमूर्ति। कई बार आपदा-विपदा में बचाया था उसने। घर बनवानेके लिए मजदूरों के भाग जाने पर पत्नी के संग-संग मिट्‌टी भी ढोई, पहलीनौकरी पर उसी की अटैची, कंबल काम आया था। पर शिवमूर्ति इस रिश्ते कोसंज्ञायित नहीं कर पाते। मुझे गोर्की के बचपन की वह वेश्या याद आती हैजिसने भीषण शीत में जमती हुई नदी के किनारे गोर्की को किसी जहाज पर अपनेआगोश में छुपाकर अपने मुंह का निवाला और आपने बदन की गर्मी देकर बचाया था।तो अगर शिवकुमारी दूसरी हुईं तो तीसरी या चौथी-पांचवीं भी होंगी। इन्हेंफिलहाल यहां छोड़ भी दें तो शिवमूर्ति की माइ वूमेनकी सूची खासी लंबीहै- एक से बढ़कर एक चरित्र! राजेन्द्र यादव कभी बृज और बीहड़ की औरतों कीमिलिटेंसी की तारीफ करते नहीं अघाते तो कभी हरियाणा की कल्पना चावला जैसीडाइनामिक औरतों की। गोरख पांडेय की पसंद अलग थी। कैथर कलां की जांबाजऔरतें! मगर शिवमूर्ति की औरतें शिवमूर्ति की औरतें हैं।

     शिकुमारी से भी ऊपर जिस औरत का नाम आएगा, वे थीं शिवमूर्ति की मामीजिन्हें मायका भी संभालना था, ससुराल भी। तय हुआ कि मामा अपना पैतृक घरसंभालें, मामी अपना लेकिन पति-पत्नी ठहरे। ससुराल और मायके के बीच कोस-भरकी दूरी। मामी ही आती दूरियां नापकर अमावस्या और पूर्मिमा को मामा गांव केबाहर पशुओं के साथ छनउरकरते हुए माचे पर सो रहे होते। मामी अपने पिता (तथा बाद में बेटों) को खिला-पिलाकर, सुलाकर लाठी लेकर घर से निकलपड़तीं-जंगल, ऊसर, कांटा, कुश, आदमखोंरों से बचने-बचाने। माचे पर मिलन, भोरहोते-होते वापस फिर अपने मायके।

सूली ऊपर सेज पिया की….!

     मेरी अपनी कल्पना में वे द वुदरिंग हाइटसकी नायिका की जीवंत मूर्ति-सीलगती हैं, जो मामीतक आते अवरोधों को अपने पदाघात से धूलिसात कर चुकीहैं।

     नदियां जिस तरह मैदानों की उर्वरा जमीन तैयारकरती हैं, उसी तरह इन स्त्रियों ने कितने ही लेखकों की जमीन तैयार की। वहकरूणा, वह भावुकता, वह चातुरी, वह लुकाछिपी, वह समर्पण। उनके नामरूपहैं-नानी, मामी, माई, भौजी, सखी, बहन भी, बेटियां भी, मित्रों की पत्नियांभी, प्रिया भी, पत्नी भी। शिवमूर्ति के त्रिपार्श्व से गुजरकर हर स्त्रीअलग-अलग रंगों, रूपाकारों में खिल उठती है और देखते ही देखते स्त्री केरगों की प्रभाव-छाया उनके जीवन और रचना के विशाल फलक पर फैल जाती है। येअपराहन के जंगल के रंग हैं। स्मृति-वितानों की तरह पकी गंध में नि:शब्दउमड़ते हुए। मुझे तीन ही रंग चटक दिख रहे हैं। इस वर्णपट में-अकालदंडऔरकसाईबाड़ामें आक्रोश का लाल, और सिरी उपमा जोग‘, ‘केषर-कस्तूरीमेंकरूणा, ‘तिरिया चरित्तरमें करूणा को ढंकता यौनीछ्‌छीपन का रंग…. औरयहीं मैं गड़बड़ाने लगाता हूं। जब भी शिवमूर्ति घेराए, चट कोई गवाह खड़ा करदिया निर्दोषिता सिद्ध करने के लिए। गोरखपुर और अहमदाबाद में तिरियाचरित्तरकी नायिका बिमली के बारे में बोलते हुए भावुक होकर रोने लगे।

(आंसुओं की गवाही!)

    निराला ने अपनी बेटी सरोज की मृत्यु पर सरोज-स्मृतिलिखते समय सरोज कीयुवा होती देह का तटस्थ वर्णन किया है। तो क्या बिमली को सरोज के समांतरखड़ा किया जा सकता है? ध्यातव्य है कि अहमदाबाद में उन्होंने बिमली को अपनीममेरी बहन बताया था। पाठकों के कठघरें में, सवालों से बचने के लिए, उस पाकरिश्ते के अभय लोक का आश्रय?

    इसी तरह कसाईबाड़ाजैसी चोखी कहानी में गांव की लड़कियों के सामूहिक विवाह के प्रकरण में जातिके मुद्‌दे को जितने हल्केपन से लिया गया है, वह उनके गांव की पहचान पर हीप्रश्नचिन्ह लगाता है। जाति को छोड़कर आज भी कोई बात नहीं होती, प्रकट होया गुप्त! ग्राम्य जीवन के इस अदभुत चितेरे ने जीती मक्खी कैसे निगल ली? खोजने पर पता चला कि वह रेणु का प्रभाव है। शुरूआती दौर में वे रेणु सेअभिभूत थे। रेणु के भुत ने उनका वर्षों तक पीछा किया। रेणु की जीवन-शैली, लेखन-शैली …कुछ मोटी सच्चाइयों से आंख चुराते हुए अपनी रौ में बहते जानाऔर रेणु का सेक्स और प्रेम। रेणु का दिलफेंक नायक आम की बिजली उंगलियों मेंदबाकर पूछता है-बिजली का मायका। बिजली जिधर छिटककर जाती है, नाक की सीधमें उसी दिशा में चल पड़ता है। आगे जाकर मिलती है चाय-पकौडे़ वाली! सड़क केउस पार नायिका है, इस पार नायक-एक घर बनाऊंगा तेरे घर के सामने और वहींअपनी झोंपड़ी डाल लेता है।

    वह पौकोड़ी वाली रेणु कीकहानियों से उतरकर शिवमूर्ति के साथ हो लेती है। लेखक मर जाता है पर उसकेपात्र नहीं मरते, वे अजर-अमर होते हैं। यह रहस्य जाने कोऊ-कोऊ मैं यह रहस्यइसलिए जानता हूं कि भुक्तभोगी हूँ चित्रकूट की पयस्विनी नदी के पश्चिमीघाट पर जहां तुलसीदास चंदन घिसा करते और राम-लक्ष्मण तिलक देने आते थे, हमदोनों खड़े थे। सामने वही, पकौड़ी वाली, काली-काली कड़ाही में पकौड़ीयां तलरही थी। हमने एक-दूसरे को ताड़ा और तुलसी को तजकर पकौड़ी वाली तक पहूँचे।दो-दो रूपए की पकौड़ी। मुंह में रखते ही मिलावटी सड़े तेल की बू। उस पकौड़ीसे मेरा पेट जो खराब हुआ कि इलाहाबाद और कुलटी तक आते-आते बुरा हाल। बादमें हमने शिवमूर्ति को बताया तो बोले, ”हां पार्टनर, मेरा भी पेट खराब होगया था। पकौड़ी वाली तो अच्छी थी लेकिन उसकी पकौड़ीयां….?” आवाज मेंकराह भी, कशिश भी? मारे गए गुलफाम!

    शुक्र है, दलित-पिछड़ी जातियों, निम्न वर्ग के ऊपर होने वाले अत्याचारों और अनकीअसिमता के अभारों ने रेणु का जाला धीरे-धीरे साफ कर डाला है।

    अवध के गांवों के विरल और विशिष्ट अनुभवों का जखीरा है शिवमूर्ति केपास-परधानी का चुनाव, चकबंदी, मुकदमेबाजी, ईंट के भटठे, अगडे़-पिछड़े, दलित-सवर्ण, बिरादरी के बखेडे़, पटीदारी के रगड़े-झगडे़, नहर, ताल, पोखर, ऊसर, जंगल, माल-मवेशी। व्यकितगत स्तर पर मौत कई बार उन्हें सूंघ चुकी है।लेखन के लिए आधुनिक सारी सुविधाएं भी हैं, मगर कहीं कोई जड़ता है तो उन्हेंहिमायित किए रहती हैं। ऐसा भी नहीं कि वे चरित्र और घटनाएं उन्हें भूल गईहों। चरित्र उन्हें घेरते रहते हैं-चना जोर गरमगा-गारकर भीख के पैसे सेमुकदमें लड़ने वाले और हर पेशी पर रास्ता बदल देने वाले संतोखी काका, जीते-जी मरा घोषित कर दिए गए मृतक बिहारीलाल और उनके मृतक संघके घनघनातेफोन (प्रेत बोलते हैं!), नानी, मामा, मामी आदि की परछाइयां, मगर शिवमूर्तिका कथाकार दुविधाग्रस्त। टेबल-टाक करनी हो तो शिवमूर्ति पूरे उत्साह सेबता डालें लेकिन लिखना….? ही नहीं, जटिलता और गंभीरता में जाना भी। विषयअगर शब्दावलियों या दर्शन के चलते गूढ़ है तो सगीना महतो की तरह कन्नी काटलेंगे। एक बार जन संस्कृति मंच के द्वितीय राष्ट्रीय अधिवेशन के दौरान हमकई मित्र अवधेश प्रीत के घर डेरा डाले पड़े थे। तय हुआ कि कल के सत्र मेंजिस पर्चे पर चर्चा होनी है, उसको पढ़कर रात में ही समझ-बूझ लिया जाय।प्रफुल्ल कोलख्यान को पर्चा पढ़ने को कहा गया। थोड़ी देर तक पढ़ने के बादपर्चे की गरिष्ठता से हमार धैर्य चुकने लगा। यार यह तो…जरा डाइल्यूटकरके लिखा गया होता तो सबकी समझ में आता।हममे से किसी ने भन्न-से कहा।शिवमूर्ति जैसे इसी पहल का इंतजार कर रहे थे, तपाक-से बोले, ”इसे तैयारकरने वाला चूतिया, पढ़ने वाला चूतिया।प्रफुल्ल ने धीरे से रख दियापर्चा, ”मुझे बख्श दें, अभी आधा ही बना हूं।

    भावुकता का वह आलम है कि किसी भी मुसीबतजदा पर रो पडेंग़े और उसकी हर संभवसहायता के लिए आगे आ जाएंगे, उस वक्त उनका धैर्य देखते बनता है। एक बार हमदोनों ही ट्रेनों के मच्छरों की नियति पर गमगीन हो चले थे, ‘कहां के मच्छरबेचारे अपने घर-परिवार, रिश्तों-नातों से दूर, कहां चले हैं!ट्रेनेंजोड़ती ही नहीं, जुदा भी करती हैं। सरिता जी हम दोनों बौड़मों के वार्तालापकपार ठोंक रही थीं और मच्छर उड़ा रही थीं। शत्रु को भी मित्र बनाने कीदुनियादारी सीखनी हो तो कोई शिवमूर्ति से सीखे। वैसे वे जिन मनोभावों कोछुपाते हैं, उनके हावभाव उसकी चुगली करते रहते हैं। किसी का मूल्यांकन करतेसमय पहले चेहरा-मोहरा देखते हैं, फिर उसके गुणों-अवगुणों को ! तेज-तर्रार, डायनामिक लोग उन्हें ज्यादा पसंद हैं, लद्‌धड़, ढीले नहीं, लेकिन सबसेज्यादा पसंद हैं क्रांतिकारी, वैज्ञानिक और तलछट से ऊपर आते लोग।स्त्रियोंके सेक्स को उनके गुणों से अलग कर नहीं देख पाते सुंदर देहयष्टि और जवानकसी हुई काया को ज्यादा नंबर दे बैठने के पक्षपात से आप उन्हें रोक नहींसकते। इत्ती-सी रेणु-ग्रंथि जाते-जाते रह गई है।

    कईबातें, जिन्हें लोग बोलने में संकोच करते हैं, शिवमूर्ति बिना झिझक बोलडालते हैं, मसलन-स्तन। खजुराहो, रसलीन, मृदुला जी, यशपाल जी और दिनेशकुशवाहा तक स्तन-चित्रण की कड़ी शिवमूर्ति को बिना शामिल किए पूरी नहींहोती। गौरतलब है, इनके माडलों में कई लेखिकाएं भी हैं। थाने का चित्रण जैसाशिवमूर्ति करते हैं, वह बेजोड़ है। इसी तरह तिरिया चरित्तरमेंकठजामुनों का जंगल या कसाईबाड़ा- में बनमुर्गियों के शिकार के चित्रबेजोड़ हैं। सीधे-सीधे साकार कर देना इसी को कहते हैं। व्यंग्य-मिश्रितकथारस। गजब की पठनीयता। संवादों के माने में उनका मजमेबाज अपने शबाब परहोता है।

    दरोगा (लीडर से) – सरकार का तख्ता पलटनेकी साजिश करने वाले आप! इल्ल्टिरेट मास में ट्‌यूमर फैलाने वाले आप।वायलेंस और डिस्टरबेंस करवाने वाले आप! आप नहीं तुम, तुम्म! सकारी नीतियोंके खिलाफ तुम्म! थाने के खिलाफ तुम्म! आपके….. नहीं, तुम्हारे घर सेगांजा हम निकालेंगे। अफीम हम निकालेंगे। छोकरी हम निकालेंगे। तुम्हारीलीडरी लील सकते हैं। मास्टरी चाट सकते हैं। करेक्टर गोड़ सकते हैं। फ्यूचरलीप सकते हैं….

(कसाईबड़ा)।

    ऐसेही जीवंत संवाद भरतनाट्‌यंममें भी हैं जो हिंदी के ग्रामांचल की सबसेआधुनिक कथा है। बातें फैलाते-फैलाते शिवमूर्ति दूर तक चेले जाते हैं, सोकहानियां अक्सर लंबी या औपन्यासिक हो जाती हैं।

    गीतांजलिश्री शिवमूर्ति पर रश्क करते हुए कहती हैं, ”शिवमूर्ति की जो जमीन है, जो अनुभव हैं, मैं उनसे वंचित हूं।

    राजेन्द्र जी कहते हैं, ” शिवमूर्ति मेथाडिकल है।

    कपिलदेव कहते हैं, ” शिवमूर्ति नाटकीय हैं

    2004 का संगम था, चूरू (राजस्थान) में, और शिवमूर्ति खुद बीमार पडे़ थेदिल्ली के एस्कोर्टअस्पताल में। राजेन्द्र जी और मैं उन्हें देखनेपहुंचे। संकट प्रति पल गहरा रहा था। मैंने कहा, ‘आत्मबल रखिए, आत्मबल! जबकोई दवा-दुआ काम नहीं आती तो आत्मबल ही काम आता है।शिवमूर्ति ने कहा, ‘आत्मबल तो है पार्टनर!स्वर में वही ताब था, वही तेवर। और लीजिए, डाक्टरों की दवा, परिवार, मित्र शुभचिंतकों की दुआ और अपने आत्मबल सेशिवमूर्ति फिर उठ खड़े हुए। न सिर्फ खडे़ हुए बल्कि जोश जगा इतना कि तन-मनमें न समाए।

    और इस प्रकरण का शेष चरण-आवाज मरी-मरी-सी और बदन ढीला-ढीला।

    ”का भवा?” हम पूछते भए।

    ”दो-ढाई लाख फुंक गए। बीमार न पड़ा होता काश!

    पता नहीं, यह मलाल दो लाख के फुंक जाने के थे, स्टेरायेड के शेष होते असरके या किसी और ही फ्रंट की नाकामयाबी उन्हें कचोट रही थी? ग्राफ कब ऊपरउठते-उठते कबूतर की कलाबाजी खाकर बुड़की मार देगा-कोई नहीं जानतां सन 1987 में कथाकार सृंजय पंद्रह दिनों से उनके साथ गोवा जाने को बस्तीमेंप्रतीक्षा करते रहे। आज नहीं कल, कल नहीं परसों, करते-करते शिवमूर्ति नहींही गए गोवा उस साल। और एक दिन अचानक फोन आया- अंडमान से बोल रहा हूं। फिरअचानक पता लगा लद्‌दाख घूम रहें हैं। अभी एक दिन फोन आया- रोम के कोलोजियममें खड़ा हूं।

    पर यह सारा कुछ टुकडे़-टुकडे़ मेंआकलन है, शिवमूर्ती की कितनी मूर्तियां हैं कोई नहीं जानता। ऊपर से भोले औरसरल ग्रामीण-से दिखने वाले, अंदर से बेहद सजग और चतुर और चौकन्ने हैं।शिवमूर्ति जितने व्यावहारिक और प्रत्युत्पन्नमति हैं, मैं उतना हीगैर-व्यावहारिक और मूढ़मति। बानगी के लिए आरा का एक प्रकरण ही काफी होगा।बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान समारोह में एक बार आरा (भोजपुर) जाना हुआ।दिव्य निबटान के लिए कहां जाना ठीक होगा? नहर! सो आरा की नहर तक हम गए।उ.प्र. में हमारे इलाके की नहरें अमूमन साफ होती हैं मगर वहां…। नहर मेंपानी का नामोनिशान नहीं। चारों तरफ गंदगी का आलम। क्या किया जाय, लौट चलाजाय?

    शिवमूर्ति ने कहा, ”आप चलकर उस पेड़ की ओट में बैठ जाओ।

    ”बौठ तो जाऊं मगर पानी….?”

    ”शौच में निबटान जरूरी होता है, न कि पानी।

    मैं कसमसा रहा था। उन्होंने कहा, ”आप बैठ तो जाओ, पानी का जुगाड़ हो जाएगा।

    असमंजस में मैं बैठ तो गया मगर मेरी समझ में यह नहीं आ रहा था कि पानी आएगा कहां से। सड़क पर ट्रक खडे़ थे।

    अचानक मैंने देखा, किसी ट्रक का खलासी डब्बा भरकर बीड़ी सूटते हुए निबटानके लिए जा रहा था। शिवमूर्ति ने आगे बढ़कर उसका डब्बा लपक लिया और पेड़ केपास दौड़कर रख आए। वह व्यक्ति झगड़ते हुए डब्बा लेने उनके पीछे-पीछेदौड़ा। उन्होंने उसे पकड़ लिया और मुझसे कहा, ”जल्दी करो पार्टनर, मैं इसेपकडे़ हुए हूं। इससे पहले कि यह मेरी गिरफ्त से छूट जाए, आप…

    बाद में उसे समझा-बुझाकर शांत कराया, ”आप तो अभी मूड बना रहे थे और ये निबट चुके थे। आपकी जरूरत तो निबटने के बाद आती न!

    ”और मैं पानी कहां से लाऊ?”

    ”वहीं से, जहां से पहले ले आए थे।

    पाठको, आपको पता न होगा कि उर्वशी भी शिवमूर्ति की प्रेमिका रही होगीकभी। इलाहाबाद से लखनऊ आए तो उर्वशी अपने पुरूरवा को छोड़कर स्वर्ग सिधारचुकी थी। उसका स्थान ले लिया नई प्रेमिका लारा ने। शिवमूर्ति को न देख पाएतो खाना-पीना छोड़ दे। मान कर बैठी रहे मानिनि। जैसे ही शिवमूर्ति दिख गए, भूंकते हुए देह पर चढ़कर जीभ से चाटने और पंजों से टटोलने-खखोरने लगे। उसकेप्यार का परिणाम यह होता है कि प्रेमी-प्रेमिका दोनों को सूइयां लेनीपड़ती हैं। सरिता जी का तो यहां तक कहना है कि आप अपनी गर्लफ्रेंडके साथरातें बिताया करें, मुझे भी थोड़ी राहत रहे।

    मजाक-मजाक में कहते हैं, ”झूठ बोलने में मुझे जरा भी वक्त नहीं लगता, जबकि आपसे झूठ बोला ही नहीं जाता।अपनी आत्मकथा में पास के जंगल मेंसांपो का जिक्र करते हुए कहते हैं, ”लंबे-लंबे सांप एक पेड़ से दूसरे पेड़पर यूं झूल जाते मानो फलाइंग ट्रैपीज खेल रहे हों।ऐसी ही अतिशयोक्तिमें ताराशंकर बंद्योपाध्याय अपने अपन्यास नागिनी कन्यामें हिजिलबिलकाचित्रण करते हैं। लेकिन ऊपर के मिथकों के जटाजूट को हटा दें तो शिवमूर्तिके अंदर एक शिवमूर्ति और है-मेले में खोया बच्चा, जिसका हिया रोता है-

    ”पिछड़ाभी हूं, भूमिहीन भी और बचपन से सवर्णो की ज्यादती झेलता, भागता, देखता भीरहा हूं। मुझसे उपयुक्त व्यक्ति कौन था इस दलित उभार को वाणी देने वाला? फिर क्यों मैं दोयम प्राथमिकता वाली समस्याओं में मगन रहा? सन 68 में तो यहआग थी ऐसी कि छू दो तो जल जाओ, फिर यह नेपथ्य में क्यों चली गई? इसकेअतिरिक्त और क्या कारण हो सकता है कि जिंदगी में जैसे-जैसे सुख-सुविधाबढ़ती गई, उस आग पर राख पड़ती गई।” (समकालीन जनमत)

    इस कनफेशन के बाद ही तर्पणआया था।

    मगर हम अभी भी आश्वस्त नहीं हैं, आश्वस्त इसलिए नहीं है कि क्या पता कलकोई और बयान आ जाय! व्यक्ति शिवमूर्ति का यह कनफेशन हो सकता है। लेकिनकथाकार शिवमूर्ति का यह कनफेशन नहीं हो सकता। हो भी नहीं सकता, वहां तो एकमजमेबाज ही मौजूं है। लेकिन फिर वे जीवंत चरित्र वरसाती पासी, नरेशगडे़रिया, जंगली अहीर क्या झूठ हैं? दलित लोकगायक चैतू (जो उनके त्रिशूलमें पालेमें कायांतरित हुआ है) झूठ है? पिछले वर्षो उभरे दलित युवकजंगू, जो अपराधियों-आतताइयों के हाथ-पांव पेड़ की जड़ में फंसाकार तोड़डाला करता था, झूठ है? ‘चना जोर गरमगा-गाकर भीख मांगकर अपना मुकदमा लड़नेवाले संतोखी काका झूठ हैं? मामा, नानी, मामी, पिता, माता, बहनें, मकराबैल, लाली गाय क्या झूठ हैं? नहीं, यकीन नहीं आता।

    लेकिनवहीं उनका दूसरा स्पष्टीकरण…नानी सगी नानी नहीं, मामा सगे मामानहीं,” (यहां तक तो चल जाएगा। लेकिन इसके आगे) पिता भी सगे पितानहीं….?” (समय ही असली स्रष्टा है-कथादेश‘)

    क्या मतलब…? कबीरपंथी पिता को कबीर की ही उलटबांसी!

    सच हिन्दी में शिवमूर्ति अपने ढंग के अकेले लेखक हैं। शिवमूर्ति जैसा कोई नहीं।

 

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