देवि माँ सहचरि प्राण : (सुशील सिद्धार्थ )

लमही पत्रिका के शिवमूर्ति विशेषांक के लिए इसके अतिथि सम्पादक सुशील सिद्धार्थ ने मेरी मित्र शिवकुमारी जी का साक्षात्कार लिया था जो पाठकों के लिए प्रस्तुत है-

देवि मां सहचरि प्राण !

सचमुच, उस समय कबीर की ये पंक्तियां मन में जाग गईं:

’तू कहता कागद की लेखी

मैं कहता आंखिन की देखी।’

और मु-हजये ही क्यों, स्वयं शिवमूर्ति को भी कबीर याद आए थे। जब उन्होंने गौतम सान्याल से कहा था, ’आपको उसकी प्रतिभा का अंदाजा नहीं गौतम, वह भले ही निरक्षर है मगर जीवन के आखर उसने कबीर की तरह खूब प-सजय़े हैं।’ उसने यानी शिवकुमारी ने।

शिवकुमारी का नाम शिवमूर्ति के वृतान्त में एक सहज अनिवार्यता प्राप्त कर चुका है। दोनों के नाम का आरम्भ शिव से। इससे भी एक सुविधा मिली संस्मरणकारों मित्रों को। एक विख्यात जोड़ा उठाया ’तीसरी कसम’ से। शिवमूर्ति फणीश्वरनाथ रेणु के अनन्य भक्त! तो उनके पात्रों को आत्मसात कर लिया होगा। लिहाजा रूपक उभरा ’हीरामन-ंउचयहीराबाई’। शिवमूर्ति हीरामन और शिवकुमारी हीराबाई। और इस हीरामन हीराबाई की कथा मित्र लेखकों ने इतनी बार सुनाई कि मन में एक धारणा बन गई। धारणा के आधार को पुख्ता करते कुछ वाक्य……..कुछ निष्कर्ष:

1.    ’जीने की शिवमूर्तियाना अंदाज’ में कथाकार संजीव प्रसंग आने पर अवधी का बिरहा उद्धृत करते हैं। मतलब निरहू गड़रिया इसलिए बिरहा गा रहे हैं क्योंकि ’जेकर मेहरि दुई चार।’ उद्धरण के बाद संजीव का विश्लेषण, ’शिवमूर्ति बिरहा गाते रहे, कूटने पीसने का फ्रंट संभाला सरिता जी ने। मगर वह तो कुल जमा एक ही मेहरि हुई, बाकी……..? क्या पतुरिया शिवकुमारी?’

2.    ’कसाईबाड़े में बुद्ध’ में कथाकार-ंउचयपत्रकार राजेन्द्र राव भी असमंजस में हैं कि ’गंवई पतुरिया’ शिवकुमारी के साथ ’क्या था इस अनाम रिश्ते का आधार जो कई दशक बीतने के बावजूद अभी भी कायम है।’

3.    शिवमूर्ति से की गई बातचीत में गौतम सान्याल लिखते हैं कि शिवकुमारी के कमरे में क-सजय़ाई के नमूनों की तरह दो तस्वीरें टंगी रहती थीं। एक में सरस्वती की आकृति थी तो दूसरे में जॉन कीट्स की काव्य पंक्ति दर्ज थी, जिसका अर्थ है-ंउचय सबसे प्यारा होता है, जब वह आंसुओं से ओतप्रोत होता है। इस पर गौतम की मार्मिक टिप्पणी है, ’……. ये पहले तकिए की खोल पर का-सजय़े गए थे, बाद में शिवकुमारी ने इसे तकिए से उतारकर फ्रेम में म-सजय़ दिया था?

4.    अपने पुनः पुनः प्रकाशित चर्चित संस्मरण में दिनेश कुशवाह लिखते हैं, ’शिवमूर्ति मु-हजये उनसे मिलाने ले गए थे। मैंने देखा कि वह गरीब दुखियारिन शिवमूर्ति की फ्रेंड, फिलॉसफर, गाइड तीनों हैं।’

इन सबके साथ ’मैं और मेरा समय’ में शिवमूर्ति ने स्वयं अपनी दोस्त शिवकुमारी के विषय में बेहद संवेदनशीलता के साथ लिखा है। उन्होंने कई रिश्तों को नाम देते हुए यहां एक असमर्थता भी प्रकट की, ’पर शिवकुमारी के साथ पनपे रिश्ते को मैं आज तक कोई नाम नहीं दे पाया। दोस्ती शब्द एकदम अपर्याप्त है पर काम इसी से चलाना होगा। कब हुई शिवकुमारी से जानपहचान? कब हम नजदीक आए? कुछ अता पता नहीं! लगता है पैदा होने के दिन से ही परिचित थे।’

तो इतना सब प-सजय़ने और कितना सब सुनने के बाद यह जिज्ञासा सहज थी कि आखिर इस शिवपुराण में शिवकुमारी का मिथक है क्या? जिज्ञासा पनपती रही और मिथक गा-सजय़ा होता रहा।

तभी शिवमूर्ति को ’लमही सम्मान’ देने की घोषणा हुई। भाई विजय राय ने घोषणा में इतना और जोड़ा कि इस अवसर पर लमही का शिवमूर्ति विशेषाांक प्रकाशित होगा। फिर उन्होंने मु-हजये सूचित किया कि आप इस विशेषांक के अतिथि सम्पादक होंगे। इससे पहले मैं लमही का ’कहानी एकाग्र’ अंक सम्पादित कर चुका था। जब यह सूचना कुछ चतुर सुजान लोगों तक पहुंची तो उनमें से एक अति चतुर ने विजय राय से फोन कर पूछा कि क्या सुशील सिद्धार्थ लमही के ’स्थाई अतिथि सम्पादक’ हो गये हैं। विजय राय ने उत्तर दिया कि नहीं, अभी वे परिवीक्षण पर हैं। बहरहाल, सम्पादक की जिम्मेदारी आते ही जो बातें तय कीं, उनमें से एक यह भी कि अब शिवकुमारी से मुलाकात करनी ही करनी है।

पता लगाया तो मालूम हुआ कि शिवकुमारी अपने परिवार के बीच मुम्बई में हैं। कोई बात नहीं! मुम्बई जाएंगे। विजय राय भी तैयार। तभी शिवमूर्ति ने एक दिन फोन किया कि पार्टनर! मुम्बई जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। शिवकुमारी कुरंग आई हुई हैं। वाह! संयोग हमारी अगुवाई कर रहा है। यह तो बाद में कुरंग में खुद शिवकुमारी जी ने बताया कि वे हमसे बातचीत करने के लिए ही यहां आई हैं। कुछ घरेलू मसले भी थे। जो इस बहाने साथ जुड़ गए थे।

हमने कभी शिवमूर्ति का गांव नहीं देखा था, जिसके बारे में उनके मित्र बताते हैं ’अवसि देखियइ देखन जोगू।’ कुछ ही दिन पहले लता शर्मा और राजेंद्र राव कुरंग गए थे। दोनों के संस्मरण उत्सुकता ब-सजय़ाने वाले थे। बहरहाल, शिवमूर्ति, सरिता जी, विजय राव और मैं 18 मई 2012 को कुरंग पहुंच गए।

और 18 मई की शाम शिवकुमारी जी से मुलाकात हुई। 19 मई को उनसे लम्बी बातचीत हुई। शिवमूर्ति ने सही कहा था कि उन्होंने जीवन के आखर खूब प-सजय़े हैं। दो दिन की मुलाकात और बातचीत ने उनके प्रति मेरे मन पर जो प्रभाव डाला वह अद्भुत है। पहले की सारी धारणाएं ध्वस्त हो गईं। रूपकों उपमाओं के किले

शिवकुमारी जी से जो बातचीत हुई, वही इस आलेख का आधार है। उनको देखते सुनते बोलते बतियाते जो अनुभव मिला उसने बताया कि ’हीरामन हीराबाई’ की तुलना कितनी ओछी और अर्थहीन है। हीराबाई क्या इसलिए कि शिवकुमारी बेड़िन जाति में जनमी थीं! क्या इसलिए कि वे शुरुआत में नाचने गाने का काम करती थीं! क्या इसलिए कि इस पेशे के अन्य निहितार्थ भी थे। स्त्री-ंउचयपुरुष सम्बन्धों से केवल श्रृंगार रस निचोड़ने वाले ही ’हीरामन हीराबाई’ का रूपक खड़ा कर सकते थे। इन्होंने शिवमूर्ति के ये वाक्य प-सजय़ कर भी नहीं प-सजय़े, ’पतुरिया, वेश्या, बेड़िन! ये शब्द पूरे देश में अपमान और तिरस्कार के प्रतीक हैं। इन्हें देखने की मेरी दृष्टि में जो परिष्कार हुआ है वह शिवकुमारी के सान्निध्य के अभाव में शायद कभी न होता।’

आखिर क्या है इस सान्निध्य का अर्थ? जिसे सम-हजयने में अक्सर लोग चूकते रहे। जिसे शिवकुमारी जी से मिले बिना……..उनसे बात किए बिना  सम-हजया ही नहीं जा सकता। उनसे मिल कर…….उनका साक्षात्कार लेकर जो सम-हजय पाया वह पाठकों के लिए प्रस्तुत है।

’अम्मा! देखो मास्टर साहब आए हैं।’ जब हम शिवकुमारी जी के घर पहुंचे तो उनकी बेटियां और बेटियों के परिवार के कुछ सदस्य खुले खुले आंगन मंे मौजूद! परिवेश में एक हड़बड़ी, क्रोध और असुरक्षा का एहसास। पता चला मकान कि जमीन को लेकर पड़ोसियों से एक दो दिन पहले ही -हजयगड़ा हो चुका है। एक बेटी के हाथ पर प्लास्टर बंधा था। चारों ओर तनाव की छाया। ….. हम एक बड़े से कमरे में पहुंचे, जिसमें प्लास्टर वगैरह होना बाकी था। तभी एक ओर से शिवकुमारी जी ने प्रवेश किया। शरीर पर सामान्य सी साड़ी…..आंखों पर चश्मा। शिवमूर्ति को देखते ही उनका मन और चेहरा खिला उठा। शिवमूर्ति ने हमारा परिचय कराया। ये हैं विजय राय…….ये हैं सुशील सिद्धार्थ। उनको हमारे आने का प्रयोजन मालूम था। बताने लगीं कि आते ही जगह जमीन का -हजयगड़ा शुरू हो गया। मारपीट हुई। थाना चौकी की नौबत आ गई। फिर वे कुछ लोगों का नाम लेकर विवरण देने लगीं। परिवार के बाकी सदस्य छूट रहे प्रसंगों को जोड़ रहे थे। मैं शिवकुमारी जी को देख रहा था। क्या बातें हो रही हैं, इसे एक पार्श्व कोलाहल की तरह अनुभव कर रहा था। अगले दिन मिलने की बात तय कर हम वहां से चले।…..अगले दिन शिवमूर्ति के घर पर शिवकुमारी जी से बातचीत हुई। ऐसी बातचीत जिसने जीवन में छिपे जीवन को देखने की मेरी दृष्टि बदल दी।

शिवकुमारी शिवमूर्ति को मास्टर साहब कहती हैं। सच इसके विपतरीत है। कायदन शिवकुमारी शिवमूर्ति की मास्टर साहब हैं। जीवन की शुरुआती पाठशाला में संघर्षों से जू-हजयने का जो पाठ शिवमूर्ति प-सजय़ रहे थे, उसका मार्गदर्शन किसने किया होगा! अगर एकाधिक नाम रहे होंगे तब भी एक नाम शिवकुमारी का रहा होगा। कहती हैं वे, ’इनसे तो हमार दोस्ती का नाता है। दोस्ती भी बहुत पुरानी।’ शिवमूर्ति जन्म के दिन से मानते हैं, ऐसा ही सही।

तब सामाजिक परिस्थितियां इतनी भिन्न थीं कि यह दोस्ती हुई कैसे होगी! शिवकुमारी शिवमूर्ति से उम्र में दो-ंउचयचार साल बड़ी हैं। उन्होंने ही पहले पहचाना होगा इस रिश्ते का चेहरा। उनकी ओर से आकार लेती दोस्ती में संरक्षण का भाव भी शामिल रहा होगा। एक उदाहरण तो शिवमूर्ति ही देते हैं कि जब उन्हें रास्ते में एक बार कुछ लड़के परेशान कर रहेे थे तब शिवकुमारी ने हाथ में पत्थर उठा लिया था। पुराना  समय था, लड़के सवर्ण घरों के थे। क्या शिवकुमारी को भय नहीं लगा होगा कि उन पर कोई संकट आ सकता है! शिवमूर्ति तब हाशिए का जीवन जी रहे थे। कोई सम-हजयदार युवती ऐसे के लिए दबंगों से रार क्यों मोल लेती! न आर्थिक लाभ न सामाजिक! तब यह क्या बात थी जो शिवकुमारी के मन में संवेदना या समानुभूति जगा रही थी।

’हम भी मुसीबतों से घिरे थे और यह भी। यह सम-हजयो कि दुख ने दुख को पहचान लिया था’ -ंउचय-ंउचयबताती हैं शिवकुमारी। यह माना जा सकता है कि शिवकुमारी के पास आर्थिक दुख उतना न रहा होगा जितना शिवमूर्ति के पास। नाच-ंउचयगाकर वे कुछ न कुछ उपार्जन तो कर लेती होंगी। लेकिन एक दुख ऐसा था जिसे वे आज तक नहीं भुला सकी हैं। यह दुख तो गोस्वामी तुलसीदास भी नहीं भुला पाये जीवन भर। ’तिजरा के टोटक’ की तरह माता पिता त्यागे जाना, सालता रहा बाबा को।……बात निकलती है तो शिवकुमारी खिड़की से बाहर…..दूर किसी अतीत में देखने लगती हैं, ’अपनी अम्मा का तो चेहरा भी नहीं देखा। पता नहीं कैसी थीं कौन थीं। ……और बाप का भी क्या पता। हम तो धरती पर मानो अइसे ही आ गये।’ और शिवमूर्ति? वह भी पिता के होते हुए भी जैसे पितृहीन ही थे। यह समानता शिवकुमारी को शिवमूर्ति के निकट लाई होगी। निदा फाजली लिखते हैं, ’दुख ने दुख से बात की बिन चिट्ठी बिन तार।’ शिवकुमारी अनुभव कर रही होंगी कि एक बेबाप जैसा लड़का क्या क्या सह रहा है! वे हीराबाई होतीं तो क्या इस तरह सोच पातीं।

शिवकुमारी ने शिवमूर्ति की गाहे ब गाहे आर्थिक मदद की। हालांकि बताते हुए वे गहरे संकोच में पड़ जाती हैं, ’सोचो तो, इतनी तंगी थी कि दस रुपये में दो तीन लड़कियों को ट्यूशन प-सजय़ाते थे हमारे यहां। कभी कभी दस पांच रुपये से कुछ और मदद भी कर देते थे।’ कुछ तो शिवकुमारी ने देखा ही होगा शिवमूर्ति में। हो सकता है यही देखा हो कि यह लड़का कुछ बनना चाहता है। अपनी अभाव भरी जिन्दगी को -हजयटक देना चाहता है। शिवमूर्ति की महत्वाकांक्षा और आत्मसम्मान की भावना ने उनके मन के किसी कोने को जगमगा दिया हो!

यह एक उदात्त भाव है। स्वयं दुख के गहरे अंधेरे में रहते हुए किसी को उसके दुख से उबारने का संकल्प! यही मित्रभाव है। और आगे ब-सजय़ कर सोचें तो यही है मातृत्व का लक्षण। जिसके चलते भारत में मातृशक्ति की अवधारणा विकसित हुई है। अपवादों की छोड़ दें तो हर स्त्री में मातृत्व की अन्तः सलिला प्रवाहित होती ही है। एक पुराने श्लोक में स्त्री की अनिवार्य विशेषता उसमें निहित संरक्षण की प्रवृत्ति बताई गई है। शिवकुमारी की यही प्रवृत्ति मित्रता के रूप में सामने आई।

इस बात की साक्षी शिवमूर्ति भी देंगे कि शिवकुमारी ने कभी उनसे कुछ मांगा चाहा नहीं। तब भी नहीं जब शिवमूर्ति संघर्षों के भंवर में थे। और तब भी नहीं जब शिवमूर्ति सुविधाओं के रंगमहल में आ गये। उसी दिन जब मैं शिवकुमारी जी से बात कर रहा था उनके परिवार का पड़ोसियों से -हजयगड़ा हो चुका था। अलबत्ता मैं सोच रहा था कि क्या वे शिवमूर्ति से थाना-ंउचयदरोगा से सिफारिश की बाबत कुछ कहेंगी। उन्होंने कुछ नहीं कहा। बस शिवमूर्ति के लॉन में बैठे कुरंग के भूतपूर्व प्रधान को -हजयगड़े को सूचना भर दी। प्रधानजी ने -हजयगड़े को दार्शनिक आयाम दे दिया, ’अरे को की का कब तक मारी। अइसे ही -हजयगड़ते जिन्दगी बीत जाई।’ इसे सुनकर शिवकुमारी थोड़ा सा मुस्कराई थीं।……….मगर यह नहीं कि सिफारिश के लिए शिवमूर्ति से एक शब्द का हो! शिवकुमारी में एक सनातन संतोष का भाव देखा मैंने। शिवमूर्ति से कुछ भौतिक पाने या मांगने का लक्षण तक नहीं। दाता हैं शिवकुमारी!

कहते हैं गौतम सान्याल से शिवमूर्ति, ’पंचतत्वों से बना मेरा घर।’ यानी पांच स्त्रियों ने सिर पर मिट्टी े लगता है कि शिवकुमारी भी पंचतत्व का एक विचित्र रूप है। धरती का धैर्य, जल की सजलता, अग्नि का तेज, गगन की उदात्ता और पवन की गतिशीलता। शिवकुमारी घर का अर्थ जानती थीं, इसलिए अपने मित्र के लिए सिर पर माटी

शिवकुमारी के जीवन में समानान्तर समय चलता रहा। कभी किसी दुबे जी ने सहारा दिया तो घर बनता दिखा……वे छोड़ गये तो संघर्ष फिर से प्रारम्भ! वे बनती रहीं…..

यह सब जान लो तो ’देह’ शब्द की स्मृति भी पाप लगती है। देह से जुड़े संबंध ऐसे होते ही नहीं। शिवकुमारी जी से बात कर लीजिए…….उनकी आंखें प-सजय़ लीजिए तो उनकी निरक्षरता पर गर्व होने लगता है।

शिवकुमारी सचमुच शिवमूर्ति के लिए ’देवि मां सहचरि प्राण’ हैं। बता रहे थे शिवमूर्ति कि इस बार लगभग तीन दशक बाद शिवकुमारी से भेंट हो रही है। शिवकुमाररी हुलास से भर कर कहने लगती हैं, ’ऐसे नहीं मिले तो क्या हुआ। हम तो रोज मिलते हैं। रोज ही बात करते हैं’ यही है प्राण तत्व! इसीलिए जब बिरहा में आए ’मेहरि शब्द का अर्थगर्भ प्रयोग संजीव करते हैं तो मेरा अवधी भाषा मन विमन हो जाता है। मेहरि या मेहरिया अवधी में पत्नी या पत्नीवत् को कहते हैं। कम से कम बिरहा में तो यही अर्थ है। इसलिए कथाकार संजीव जी, रह गईं दिशाएं इसी पार। काश आप उस पार भी कुछ देख सके होते।

यह प्राण तत्व शिवमूर्ति को भी आंदोलित करता है। शिवमूर्ति ने जाने कितनी बार कृतज्ञता व्यक्त की है। लेकिन बात करते समय मैंने जिक्र किया तो बड़ी दृ-सजय़ विनम्रता से शिवकुमारी ने कहा ’ऐसी कोई बड़ी बात नहीं। एक इन्सान जिसे अपना सम-हजये उसके लिए इतना तो करता ही है। हमने कुछ नहीं किया। वक्त जो कहता रहा करते रहे।’ कहा है शिवमूर्ति ने कि समय ही असली स्रष्टा है। इस स्रष्टा ने चाहे जो किया हो, शिवकुमारी को कभी ’गरीब दुखियारिन’ नहीं बनाया। पता नहीं क्यों दिनेश कुशवाह ने शिवकुमारी के लिए ऐसे शब्द लिखे। इन शब्दों से आकार लेता बिम्ब शिवकुमारी के साथ मेल नहीं खाता।

संस्मरणकारों से अधिक सम-हजयदार शिवमूर्ति की पत्नी सरिता जी हैं जिन्हें ’शिवपुरण’ में शिवकुमारी के मिथक का पवित्र महत्व पता है। दोनों ने एक साथ माटी

बातचीत आरोह अवरोह के साथ चल रही है। और भी जाने क्या क्या कहना चाहती हैं शिवकुमारी। अधूरे वाक्य…….छोटे छोटे अंतराल और मौन! अभिव्यक्ति कितनी आत्मीय और अर्थपूर्ण! जो लिख रहा हूं, इसी भाव-ंउचयभाषा का अनुवाद है। कुशल से कुशल अनुवादक हो, अनुवाद करते समय मूल का कुछ न कुछ छूट ही जाती है। यहां भी रह गया होगा। रह ही गया है।

बातचीत के बाद शिवकुमारी अपने घर जाने के लिए तैयार हैं। बात जमाने के व्यवहार की चल रही है। उन्होंने कहा कि ’मैंने तो अपने बच्चों से कहा दिया है कि बु-सजय़ापे में तुम लोग नहीं पूछोगे तो मैं मास्टर साहब के घर चली जाऊंगी। सरिता जी अपनेपन से शिवकुमारी का हाथ थाम लेती हैं।

मास्टर साहब यानी शिवमूर्ति कुछ कदम दूर खड़े यह सब देख सुन रहे हैं। मैं विश्वास के आलोक में नहाया एक ऐसा दृश्य देख रहा हूं जो मेरे लिए समय के रंगमंच पर हमेशा के लिए ठहर गया है।

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