लम्बी कहानी : बानाना रिपब्लिक

लम्बी कहानी                                            24.12.2012

                                                                                                                         बनाना रिपब्लिक  : शिवमूर्ति
 ठाकुर की दालान से निकला तो उसका दिल धाड़-धाड़ कर रहा था। इतनी खुशी वह कैसे संभाले? कहां रखे?
घुप्प अंधेरा। ओस से गीली घास पर चलते हुए पैरों में कीचड़ सने तिनके चिपकने लगे। पहर रात बीते ही इतनी ओस। जाते समय जल्दी में एक पैर की चप्पल
खेतों के बीच पहुंच कर वह रुका। दूर जा रही दसबजिया पसिंजर के इंजन ने लम्बी सीटी मारी। फिर सन्नाटा। धान की फसल कटने से ज्यादातर खेत खाली थे। ऊपर देखा। तारों की चमक कुछ ज्यादा ही लगी। आसमान में तारे कुछ बढ़ गये हैं क्या? इस साल अगहन में ही इतनी ठंड। अपने टोले की ओर बढ़ते हुए वह कानों पर अंगौछा लपेटने लगा।
हैंडपम्प पर पैरांे का कीचड़ धोकर वह मंड़हे में घुसा और जमीन पर बिछे बोरे में पैर रगड़ते हुए चारपायी पर सोये बाप को पुकारा- बप्पा, ए बप्पा।
कथरी में लिपटे बाप की आवाज आयी- हंू ….
सो गया है, सोच कर उसने भी बगल में पड़ी चारपायी पर कथरी बिछाई और लेट गया। लेकिन इतनी बड़ी बात पेट में रखकर लेटा नहीं गया। फिर आवाज दी- बप्पा! सो गये क्या?
– क्या है?
मंुह पास ले जाकर उसने कहा- ठाकुर कहता है, परधानी लड़ जा।
– क्या ऽ-ऽ-ऽ ?
– परधानी लड़ने को कहता है ठाकुर।
बाप कथरी उलट कर बैठ गया। वह बाप के पैताने आ गया।
– इसीलिए बुलाया था?… कहा नहीं कि मुझे पागल कुत्ते ने काटा है जो ठाकुरों-बाभनों के गांव में परधानी लडूंगा। लड़ कर उनकी आंख का कांटा बनना है क्या?
– कांटा क्यों? वे तो लड़ ही नहीं सकते। इस बार अपने गांव की परधानी हरिजन कोटे में आ गयी।
कुछ देर चुप्पी रही।
– इसलिए ठाकुर मुझे लड़ाना चाहता है। कहता है- मैं नहीं बन सकता तो मेरा आदमी बने। लाखों की कुर्सी दूसरे के पास क्यों जाये?
– कहता था, खुल कर मदद करूंगा। रूपये पैसे से भी।
– न बेटा। ए काम ठीक नहीं। परधानी का बवंडर हम नहीं संभाल सकते। उड़ जायेगे।
बाप मुंह
ठाकुर कहता था- सालाना पन्द्रह बीस लाख तक खर्च करने का चान्स रहता है। मनरेगा की मद से तो चाहे जितना निकालो। बस कागज का पेटा पूरा करते रहो। नीचे से ऊपर तक सबका मंुह बंद करने के बाद भी रुपये में चार आना कहीं गया नहीं। पांच साल में पचीस लाख की बचत। एक लाख में सौ हजार होते हैं। एक हजार…. दो हजार…. सौ हजार। पचीस बार। हर महीने हजार रूपये मानदेय अलग। थाना पुलिस में पूछ-पहचान हो जाती है। फौरन बन्दूक का लायसेंस मिलता है। रोज सौ लोगों का सलाम मिलता है। बेटे की शादी में मोटर साइकिल मिलती है। बेटी की शादी में हजारों रुपये न्योता मिलता है।
उसने करवट बदली।
कहता था- दो, तीन तालाबांे का जीर्णोद्धार करने का मौका मिल गया तो तेरी सात पुस्त का जीर्णोद्धार हो जायेगा।
कहता था- ब्लाक प्रमुख का चुनाव आने दे। हर कैन्डिडेट आकर तीन से पांच लाख तक गिनेगा।
कहता था- वृद्धावस्था पेंशन, विधवा पेंशन, विकलांग पेंशन, मिड डे मील और पता नहीं कितनी-कितनी मदों से रुपया पानी की तरह बरसता है। पांच साल में कितनी कमाई होगी उसका क्या कोई हिसाब लगा सकता है?
लेकिन जितना लगा सका, वह रात भर हिसाब लगाता रहा। सबेरे उठते ही उसने एक बार फिर आमदनी और रोब-रुतबे का लेखा-जोखा बाप के सामने रखा। फिर समझाया- हम नहीं लडें़गे तो ठाकुर किसी और को लड़ा देगा। अपना आदमी समझ कर पहले मुझे बुलाया है। समझो लक्ष्मी खुद चल कर आ रही हैं। पचीस लाख!
बाप झुंझला गया- इतने पैसे का हम करेंगे क्या? रखेंगे कहां? वही ठाकुर रात में सब लूट ले जायेगा।
बीड़ी का सुट्टा लगाते, हाथ में पानी भरा लोटा झुलाते बाप खेतों की ओर निकल   गया।
ऐसा घामड़ बाप किसी को न मिले। उसने कपार पीट लिया।अ
ठाकुर ने कहा था- सबेरा होते ही अपनी बिरादरी के बडे़ बुजुर्गों के दरवाजे जाना। पैर छूकर कहना, आशीर्वाद लेने आया हूं। सिर पर हाथ रखिए तो खड़ा होऊं नहीं तो चुपाई मार कर बैठ जाऊं।
सबसे पहले मुरारी मास्टर को पटाना होगा। गांव में बिरादरी के इकलौते मास्टर हैं। मीन-मेख निकालने में आगे।
मास्टर ने देखते ही पूछा- सबेरे-सबेरे कैसे राह भूल गये?
– मास्टर चाचा, सुना है अपने गांव की परधानी अपनी बिरादरी के लिए रिजर्व हो गयी।
– सिर्फ अपनी नहीं, किसी भी दलित बिरादरी के लिए।
– तब आप खडे़ होइये इस बार।
– सरकारी नौकरी वाला नहीं खड़ा हो सकता जग्गू। मास्टर की आह निकली- नौकरी से इस्तीफा देना होगा।
– ऐं। यह तो ठीक नहीं। इस्तीफा क्यों देंगे? लेकिन चान्स आया है तो बिरादरी का कोई आदमी जरूर खड़ा होना चाहिए।
– तो तुम्हीं खडे़ हो जाओ।
– मैं। जग्गू उनकी आंखों में झांकने लगा- आप साथ देंगे?
– अकेले मेरे साथ देने से क्या होगा? सारे गांव का साथ चाहिए।
– नहीं चाचा। आप अकेले एक तरफ। बाकी सारा गांव एक तरफ।
खुशामद रंग लायी। मास्टर
मास्टरवा से इतना मिल गया यही बहुत है। अब यहाँ पल भर भी रुकना खतरे से खाली नहीं। क्या पता बात का रुख किधर मुड़ जाय। जग्गू ने लपक कर मास्टर के पैर छुए- जो आज्ञा! और उंगलियों को माथे से लगाते हुए चल पड़ा।
बिरादरी में सबसे बुजुर्ग पहाड़ी बाबा हैं। मंड़हे के एक कोने में झिलंगा खटिया पर पडे़-पडे़ मौत के दिन गिन रहे हैं। लेकिन बिरादरी उनकी बात से बाहर नहीं हो सकती। जग्गू ने उनका पैर थोड़ा जोर लगा कर छुआ।
पहचानने की कोशिश करते हुए पूछा बू
– मैं हूँ बाबा। तुम्हारा भतीजा, जग्गू।
पहाड़ी ऊंचा सुनते हैं। जग्गू ने ऊंची आवाज में देर तक उन्हें पूरी बात बतायी। बुढ़ऊ खुश हुए। पोपले मुंह में हंसी घोलकर कहा- तुम्हारे कन्धे पर बैठ कर वोट देने चलूंगा।
टोले में चमकट बिरादरी के सात घर हैं। इतनी देर में पूरे टोले में बात फैल गयी।
दसई के दुआरे तक पहुंचते-पहुंचते नौजवानों ने जग्गू को घेर लिया- फिर से पूरी बात बताओ भैया।
अपनी बिरादरी में परधानी की कुर्सी आये, इससे बढ़कर खुशी की बात क्या होगी? पासी, धोबी, खटिक, चमार की बिरादरी के परधान तो आस पास बहुत सुने गये हैं लेकिन अपनी बिरादरी का? एक भी नहीं। हम लोग तुम्हे जिताने के लिए रात दिन एक कर देंगे।
नौजवानों की खुशी देखते बन रही है।
– लेकिन लड़ने में तो बहुत खर्च होगा। कैसे करोगे?
– तीनो घंटे बंेच दूंगा।
– उतने से हो जायेगा?
– ठाकुर ने कहा है कि वह भी कुछ मदद करेगा।
– लेकिन उसको लौटाओगे कहां से?
– जीतने के बाद सब वसूल हो जायेगा।
– और कहीं हार गये तो?
– अरे शुभ-शुभ बोलो भइया। आप सब लोग साथ देंगे तो हार कैसे जाएंगे? यह हम सभी के मान सम्मान की लड़ाई है।
सही बात। सही बात।
– दरअसल ठाकुर भी पूरी ताकत लगाएगा। उसे पदारथ दूबे से अपनी पिछली हार का बदला लेना है। बीच में फायदा हम लोगों को मिल जायेगा।
– सही बात! सही बात! पदारथ किसे खड़ा कर रहे हैं?
– एक दो दिन में पता चल जायेगा।…. चलता हूं….
ठाकुर ने कहा है- दोपहर तक दलित बस्ती को कवर करके शाम तक ब्राह्मणों, खासकर पदारथ के पट्टीदारों के दरवाजे पर पहंुचना है। कह रहा था कि जो पहले पहुंचता है उसका पहला हक बनता है। रात में जाकर बताना है कि किसने क्या कहा?
दोपहर
घर पहुंचा तो दसबजिया पसिंजर आने का समय हो रहा था। दुआर पर अंधेरा और सन्नाटा था। मंड़हे में बप्पा की नाक बज रही थी। दरवाजे को धक्का देकर वह आंगन में पहुंचा। रसोई से शि की पतली फांक आंगन तक आ रही थी। लगता है, खवाई पियायी हो गयी।
पत्नी रसोई से जूठे बर्तन लेकर निकल रही थी।  पूछा-कहां थे दिन भर?
– लाओ, क्या है? बाल्टी टेढ़ी करके हाथ धोते हुए वह बोला। बर्तन नाबदान के पास रखते हुए पत्नी ने बताया- थाली ड्योढ़ी के पास
वह लोटे में पानी लेकर लौटी।
– न कुल्ला न दातून। सबेरे के गये अब घर की सुध आयी?
वह सिर झुकाकर खाने में जुट गया।
– दिहाड़ी कमाने क्यों नहीं गये? सुअर दस बजे तक बाडे़ में बंद घुर्र-घुर्र करते रह गये तो मैने बेटी को उन्हें चराने बजराने भेजा। बेटी कह रही थी कि बप्पा बभनौटी में हाथ जोडे़ घूम रहे थे। ऐसी क्या गलती कर दिए कि बाभनों के आगे हाथ जोड़ने की जरूरत पड़ गयी।
– गलती नहीं, अपनी गरज से….
– अपनी कौन सी गरज?
– सारे गांव में हल्ला हो गया और तुझे कुछ खबर ही नहीं?…. अरे, सहसा वह चौंका- अभी तो मुझे ठाकुर के घर जाना था।
– क्यों?
– अरे, काम से।
– ठाकुर से क्या काम पड़ गया?
– अरे भाई, जैसे पहले बप्पा ठाकुर का खेत जोतने जाते थे, बाद में ठाकुर अपने टैªक्टर से हम लोगों का खेत जोतने लगा। वैसे ही पहले वह परधान बनने के लिए हम लोगों के टोले में वोट मांगने आता था। अब मुझे बनना है तो उसके पास जाना होगा।
– क्या अंड-बंड बोल रहे हो। कहीं से पी पाकर आये हो क्या? इधर आओ। तुम्हारा मंुह सूंघू।
– अरे हट। मुंह में क्या रखा हैं? हां, चुम्मा लेने का मन हो तो साफ-साफ बोल।…. और दौड़ कर तेल गरम कर ला। मालिस करना होगा। पैर दर्द से फटे जा रहे हैं।
पत्नी बाहर जाने के लिए मुड़ भी न पायी थी कि उसने जूठे हाथ ही उसे अंकवार में भरा और लिए-दिए बगल की खटिया पर गिर पड़ा।
खटिया की पाटी टूटी- चर्र-ऽ-ऽ !

गांव में जैसे भूडोल आ गया है।
आज भी यहां ऐसे लोग मिल जायेंगे जिन्होने जिला मुख्यालय का मुंह नहीं देखा। बस घर से खेत तक। बहुत हुआ तो बाजार तक चले गये । साल में एकाध मेला और एक दो बारात।
पिछड़ी या दलित औरतें तो सभा, जुलूस या मेले ठेले में चली भी जाती हैं, सवर्ण औरतों की बड़ी आबादी अभी भी गांव से बाहर नहीं निकलती। मायके से विदा हुईं तो ससुराल में समा गयीं। ससुराल से निकलती हैं तो सीधे श्मशान के लिए। देवी के थान पर लपसी, सोहारी चढ़ाने के लिए जाना ही उनकी तीर्थयात्रा या पिकनिक है। ऐसी एक बड़ी आबादी है जो आज भी जाति व्यवस्था को ब्रह्मा की लकीर मानती है। वह मानती है कि सवर्णाें के गांव में दलित को परधानी की कुर्सी पर बैठाना सवर्णों के सिर पर बैठाना हुआ। लोहिया तो समाजवाद नहीं ला पाये लेकिन आज की सरकारें लगता है ला के रहेंगी। किसी आदमी ने ऐसा किया होता तो उसका मूंड़ फोड़ देते। सरकारों का कोई क्या करे?
ठाकुर अपना दुख किससे कहें? असली रोब रुतबा तो जमींदारी के साथ ही चला गया था। रहा सहा परधानी के साथ चला गया। तीन बार उनके बाप प्रधान रहे। दो बार वे खुद थे। यह नाहरगढ़ गांव उनके पुरखों का बसाया हुआ है। पुराना खंडहर हो चुका घर अभी भी गढ़ी कहलाता है। मास्टराइन राजगढ़ स्टेट की राजकुमारी हैं। किसी गैर की मौजूदगी में वे उन्हे हमेशा रानी साहब ही कह कर पुकारते हैं। पिछली हार से उन्हें इतना झटका लगा कि महीने भर चारपायी पकडे़ रहे। सोचा था कि इस बार सीट निकालकर पिछली हार का बदला ले लेंगे तो इस आरक्षण ने सब मटियामेेट कर दिया।
ट्यूबवेल घर के ओसारे में चारपायी पर बैठे-बैठे वे वोटरलिस्ट के पन्ने पलट रहे हैं। चारपायी के नीचे जातिवार और घरवार गणना कर-करके फेंके गये रद्दी कागजों का अम्बार लग गया है।
उजाला होते ही आने के लिए कहा था जगुआ को। राह देखते-देखते आंखें पक गयीं। अब दिखायी पड़ा है, पहर दिन च
जग्गू ने दोनों हाथ जोड़ कर, झुक कर सलाम किया।
अब तेरे आने का समय हुआ? इसी सहूर से परधानी करेगा?
– क्या करें मालिक। सुअरों को बजराना जरूरी था। बेटी को बुखार है। और कोई है नहीं।
– यह पकड़ कागज कलम और लिख।
जग्गू चारपायी के सामने जमीन पर उकड़ू बैठ कर लिखने लगा।
– जो काम तहसील और ब्लाक से करवाना है उसे ठीक से नोट कर ले। नम्बर एक, जाति प्रमाण पत्र बनवाना। आगे लिख- तहसील में बनेगा। फार्म भर कर जमा करना होगा। पचीस रूपये फीस जमा होगी। पक्की रसीद ले लेना। फोटो भी लगेगा। सौ रूपये अलग खर्च होगा।
– ठीक।
– ठीक नहीं। एक-एक प्वाइंट नोट कर ले नहीं तो वहाँ एक का तीन लेने वाले घात लगाये बैठे हैं।
– फोटो पहले लगेगा कि जिस दिन प्रमाण-पत्र लेने जायेंगे?
– पहले बे। खिंचा कर साथ ले जाना।
जग्गू घुटने पर कागज रख कर जल्दी-जल्दी घसीट रहा है। लिखने की आदत कब की छूट गयी। पढ़ना तो चाय की दुकान पर अखबार के साथ कभी-कभी हो जाता है।
– नम्बर दो लिख, नो ड्यूज सर्टीफिकेट बनवाना। आगे लिख- दो जगह से बनेगा। ब्रेकट में लिख.क। उसके आगे लिख, पंचायत सेक्रेटरी बनाएगा। सौ रूपया लेगा। फिर नयी लाइन से ब्रेकेट में लिख- ख। अमीन की रिपोर्ट पर नायब तहसीलदार की दस्कत से जारी होगा। खर्चा दौ सौ।

रेजर्ब की खबर आते ही उन्होंने अंदाजा लगा लिया था कि पदारथ मुंदर धोबी को खड़ा करेंगे। उससे जम कर पैसा खर्च करायेंगे। उसका बड़ा बेटा सउदिया कमा रहा है। पांच साल में रुपये का पहाड़ खड़ा कर दिया है। खुद छोटे बेटे और बहू के साथ बाजार में लाण्ड्री चलाता है। जितना चाहे खर्च करे। लेकिन धोबियों के वोट हैं कितने? तीन घर तेरह वोट। उन्हांेने डायरी के पन्ने पर विपक्ष वाले कालम में लिखा- धोबी, तीन  घर तेरह वोट। खास अपने पट्टीदार ठाकुर भी उनके कहने से जग्गू को वोट दे देंगे, इसमें सन्देह है। उनके पिता कहते थे- बनिया तो एक जुट रहते ही हैं। ब्राह्मण भी जाति के नाम पर एकमत हो जायेंगे। लेकिन ठाकुर अगर गांव में दो घर हैं तो भी दो गुट बना लेंगे। इस तरह ठाकुरों के साठ वोट में चालीस की उम्मीद कर सकते हैं। उन्होंने पक्ष वाले कालम में लिखा- ठाकुर चालीस वोट।
– बस। इंतजार करता जग्गू पूछता है।
– अबे, बस कैसे? अगला नम्बर डाल। शपथ-पत्र बनवाना कि मेरे खिलाफ कोई मुकदमा कोई एफ.आई.आर नहीं है।
– इसी में आगे लिख, न कभी सजा हुई है न दिवाला निकला है।
मुंशी गरीब नेवाज किसी के खेत से एक गोभी और तीन चार मूलियां लेकर सामने चकरोड से गुजर रहे थे। ठाकुर की बात सुनकर रुक गये। हंसते हुए पूछा- किसका दिवाला निकलवा रहे हैं राजन?
– आइये मुंशी जी, आइये। अपना जगुआ है। इस बार इसी को खड़ा कर रहे हैं परधानी के लिए। उसी के लिए एफिडेविट का मसौदा लिखवा रहे हैं। अभी तक आपके पास आशीर्वाद लेने नहीं पहुंचा? उठ बे….। मुंशी जी के पैर तो छू।
पैर छूते हुए जग्गू ने सफाई दी- गया था। चाची मिली थीं। मुंशी चाचा तब तक कचेहरी से नहीं लौटे थे।
– कोई बात नहीं राजन। मुंशी जी जाते -जाते बोले- जहां आप हैं वहीं हम हैं और वहीं विजय है।
ठाकुर दूर तक मुंशी को जाते देखता रहा फिर जग्गू को सावधान किया- इस मुंशिया के आगे-पीछे घूमते रहना लेकिन अपना भेद हरगिज मत देना। फौरन पदारथ के पास पहुंचाएगा……… आगे लिख, शपथ-पत्र का खर्च दौ सौ रुपये।
बनिया पार्टी का भेद मिलना तो मुश्किल है। अंत तक पता नहीं चल सकता कि किसको देंगे। हां, मुसलमानों के सत्रह घर अपनी तरफ आ जायंेगे, बशर्ते उन्हें कायदे से याद दिला दिया जाय कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय पदारथ महीने भर तक उस मुंड़खोल्ली सधुआइन का हाहाकारी कैसेट गांव के शिवाले पर बजवाये थे। पिछली बार मुस्लिम टोले से बरकत मौलवी न खड़ा होता तो वे किसी हालत में न हारते। पूरे के पूरे एक सौ आठ वोट  बरकत ने काट लिए जो मेरी झोली में गिरने वाले थे। यह तो साल भर बाद पता चला कि खुद पदारथ ने दस हजार देकर खड़ा किया था बरकत को।
– तो अब चलता हूं। ठाकुर को कागजों में खोया देख जग्गू कहता है।
– अरे काहे की हड़बड़ी है?
– दिहाड़ी कमाने जाना है।
– दिहाड़ी कमाने जायेगा कि ए कागज पत्तर दुरूस्त करायेगा?
– दो चार दिन और कमा लूं। आखिर कागज पत्तर बनवाने का खर्च कहां से आयेगा?
– अब कमाने की नहीं खर्च करने की सोच। अभी से रात-दिन एक करना पडे़गा। घेंटे बिके कि नहीं?
– अभी कहां? दाम ही नहीं चढ़ा कायदे का।
– अच्छा दो चीजें और नोट कर ले। पर्चा खरीदने का खर्चा सौ रूपये और रेजर्व की सिक्यूरिटी मनी पांच सौ रूपये।
उन्होंने पक्ष वाले कालम में लिखा- मुसलमान 108 वोट। फिर 108 को काटकर 100 कर दिया।
– अब हाथ पिराने लगा। दायें हाथ की उंगलियों को बाये पंजे में दबाते हुए जग्गू बोला।
– अबे चुप। ठाकुर ने डपट दिया- चार अच्छर लिखने में पिराने लगा?

ब्लाक ऑफिस पर मेला जैसा लगा है।
दाखिल पर्चों की जांच चल रही है। जिसके घर पर साबुत फूस का छप्पर और पैरों में चप्पल तक नहीं है वह भी परधानी का सपना देख रहा है। पांच जातियो में बंटे चालीस घर दलितों के बीच से जग्गू को जोड़ कर तेरह उम्मीदवारों ने पर्चा भरा है।
प्रमाण-पत्र, शपथ-पत्र वगैरह बनवाने के लिए हफ्ते भर की भागदौड़ से ही जग्गू की हिम्मत पस्त हो गयी। सबेरे निकल कर दस ग्यारह बजे रात तक लौटना। तहसील के लिए एक ही बस। ब्लाक के लिए वह भी नहीं। सरकारी अमले से पहली बार पाला पड़ा था। पास के डेढ़-दो हजार कब फुर्र से उड़ गये, पता ही नहीं चला। हार कर उसने ठाकुर के आगे सरेन्डर कर दिया- मेरे मान का नहीं।
तब ठाकुर ने मोटर सायकिल सहित अपने मैनेजर राम सिंह को साथ लगाया। कागजात बनवाना, पर्चा दाखिल कराना। पर्चा दाखिले में ठाकुर खुद अपने चालीस-बयालीस लोगों के साथ शामिल हुआ। तीन बुलेरो, दस मोटर साइकिल। गांव के कई मानिंद लोग। हर बिरादरी के। जग्गू के आगे मुंदर का जुलूस फीका पड़ गया।
दो दिन से राम सिंह उसके साथ ब्लाक पर डटा है। ठाकुर ने कहा है- ब्लाक से हटना नहीं है, जब तक पर्चा पास न हो जाय। कोई लफड़ा हो तो फौरन मेरे मोबाइल पर रिंग करो।
बैठे-बैठे झपकी आने लगी तो जग्गू ने राम सिंह को आवाज दी- मनीजर साहेब, आओ चाय पी लें।
राम सिंह नीम के पेड़ के नीचे मोटर साइकिल की हैंडिल से सीट के पिछले हिस्से तक लम्बा होकर लेटा है। दुबारा आवाज देने पर वह चाभी का छल्ला उंगली में घुमाता जम्हाई लेता आता है। जग्गू उसके बैठने के लिए अपने अंगौछे से बेंच की धूल झाड़ता है।
रामू को अब सभी राम सिंह कह कर बुलाते हैं। ठाकुर खुद राम सिंह कहते हैं। ठाकुर की बाग में लगने वाली बरदाही बाजार की तहबाजारी की वसूली उसी के जिम्मे है। हर हफ्ते हजार बारह सौ वसूल कर देता है। कहता है- बैलों की आमद कम न हुई होती तो ठाकुर के घर में रुपये रखने की जगह न बचती। ठाकुर को धक्का लगा है तो दोनांे बेटों से। बड़ा वाला तो चलो इंजीनियर बन गया। बिदेश में नौकरी लग गयी। जापानी लड़की से ब्याह कर लिया इसलिए गांव छोड़ गया। छोटा वाला तो चीनी मिल में ‘मेट‘ लगा है फिर भी बीबी बच्चों को लेकर चला गया। बताइये भला, जो मजा गांव में ‘राजा‘ की तरह रहने में है वह कभी बाहर मिल सकता है। लेकिन कौन समझाये? बडे़ ने इतना तो अच्छा किया कि जापान में भी अपनी ही बिरादरी में शादी किया। समुराई वहाँ के क्षत्री होते हैं।
अब राम सिंह ही उनका हाथ पैर है।
राम सिंह ठाकुर की ससुराल का आदमी है। पांच छः साल पहले आया तो देंह बांस की कच्ची कइन की तरह लचकती थी। और अब देखिए। एंेठ कर चलने, घुड़क कर बोलने, बैल जैसी बड़ी-बड़ी आंखें और दाढ़ी मंूछ भरे चेहरे को देख कर लगता है जैसे सचमुच ठाकुर का बच्चा हो।
– वह तो मैं हूं ही। राम सिंह कहता है- मेरी जाति के साथ तो ठाकुर जमाने से लगा है।
जग्गू को राम सिंह का सब कुछ अच्छा लगता है। उसका चलना-फिरना, उठना-बैठना, घूरना, अकड़ना। वह भी चाहता है कि राम सिंह की तरह अकड़ कर चले। घुड़क कर बोले। लेकिन इस गांव में रहते हुए यह कब संभव होगा? उसे तो अपना नाम भी पसंद नहीं। जगत नारायण तो फिर भी ठीक था लेकिन लोगों ने उसे भी काट कर बांड़ा कर डाला- जग्गू।  परधानी मिल जाय, हीरो होंडा मिल जाय और नाम बदल जाय, या एक कायदे का ‘सरनेम‘ मिल जाय…… जिससे थोड़ा रूआब झरे। ‘टाइगर‘ कैसा रहेगा?
दो दिन से उसे राम सिंह के नजदीक आने का मौका मिला है। कल भी उसे दो चाय पिलायी। आज भी यह दूसरी है। अगर यह मोटर साइकिल सिखाने को राजी हो जाय….. लेकिन राम सिंह उससे दूरी बनाए हुए है।
जग्गू चाय का कप खुद राम सिंह के हाथों में पकड़ाता है। फिर बातचीत जारी रखने के लिए कहता है- बेकार ही यहां दो दिन से पडे़ हैं। जब पर्चा सही-सही भर दिया है तो खारिज कैसे कर देंगे?
– सब कुछ हो सकता है। पदारथ कितना जालिया है, तुम्हें क्या पता? मैं नहीं होता तो वह कब का ठाकुर की बर्दहिया बाजार पर जिला परिषद का कब्जा करा देता। अभी तुम्हारे पर्चे में बाप के नाम पर एक बंूद स्याही गिर जाय तो वह टंटा खड़ा कर देगा कि तुम्हारे बाप का नाम बदलू राम नहीं बदलू पांडे़ है। तुम्हारा जाति प्रमाण-पत्र फर्जी है। गये बेटा काम से। जेल जाने की नौबत अलग।
बाप रे! लगा, सचमुच जेल जाने की नौबत आ गयी है। नमकीन की प्लेट आगे बढ़ाते हुए उसका हाथ कांप गया।
वह बात बदलने के लिए पूछता है- अच्छा मनीजर साहेब…
– अब जरा कायदे से बोलना सीख। मनीजर नहीं मैनेजर बोल।
हां, हां, मैनेजर साहेब। वह थोड़ा रुकता है- अच्छा मैनेजर साहेब, मोटर सायकिल चलाना कितने दिनों में सीख सकते हैं?
– एक घंटे में। राम सिंह उसके चेहरे की ओर देखकर मुस्कराता है। फिर चाभी का छल्ला उसकी ओर बढ़ाते हुए कहता है- ले, चल उतार स्टैन्ड से।


इसको कहते हैं-लक! लक्क!
सचमुच फुलझरिया की ‘लक्क‘ तेज है। सबसे कैचिंग सिम्बल उसे ही मिला- खुला हुआ छाता।
ठाकुर कहते हैं- ऐसा सिम्बल जो अंधे को भी अंधेरे में दिख जाय। फिर आह भर कर कहते हैं- हमारी ही किस्मत गांड़ू निकली। घंटी भी कोई सिम्बल है। इससे तो अच्छा था, बिगुल बजाता सिपाही या धान ओसाता किसान मिल जाता।
– घंटी तो सबसे शुभ है। पूजा के काम आती है। जग्गू कहता है।
– अबे! शुभ से क्या मतलब? जरूरत है पहचानने की। गांव की औरतें घंटी को भंटा-बैगन समझ लेंगी।
ससुराल की परित्यक्ता फुलझरिया। उसके मायके में शरण लेने पर किसी को क्या एतराज? गांव में एक सस्ता मजदूर बढ़ा। खुशी की बात। वोटर लिस्ट में नाम चढ़ गया। बी.पी.एल. कार्ड बन गया। खुद पदारथ ने बनवा दिया। यह भी ठीक। लेकिन एक दिन परधानी लड़ जायेगी, किसने सोचा था। जीते भले न, अपनी बिरादरी के पचीस-तीस वोट तो काट ही लेगी। पदारथ का मानना है कि उसे ठाकुर ने खडे़ होने के लिए उकसाया। ठाकुर इसे पदारथ का काम मान रहे हैं। पर्चा दाखिले के समय भी भेद नहीं खुला। न कोई भीड़ न जुलूस। भाई-भतीजे साइकिल से जाकर पर्चा दाखिल करा लाये। जांच में पांच पर्चे खारिज हुए लेकिन फुलझरिया उसमें भी पास हो गयी।
ठाकुर को सबसे ज्यादा निराशा मुंदर को ‘हत्थेदार कुर्सी‘ मिलने से हुई है। बाकी में से तीन कैडिडेट तो ऐसे हैं कि दो जोड़ी कुर्ता पजामा के साथ हजार रूपये भी पकड़ा दो तो आपके पीछे-पीछे घूमने लगेंगे। माटी के मोल बिकने को तैयार। इन्तजार में रहेंगे कि कोई आकर खरीद ले तो सुर्ती-तमाखू का खर्च निकल आये।
– अब पहला काम है, प्रचार के लिए पर्चा छपवाना। एक कागज हाथ में लेकर ठाकुर जग्गू को समझा रहे हैं। इधर बायीं तरफ  हाथ जोडे़ तुम्हारी फोटो। दायीं तरफ घंटी का फोटो। मजमून अभी बैठ कर बना लेंगे। तुम जाकर पता करो, मुंदर का पर्चा छपकर आ गया हो तो ले आओ। उसी की टक्कर का छपवाना होगा। घेंटे बिके कि नहीं?
– दो बिक गये। आज पैसा देकर ले जायेगा।

-गुड्ड! एक काम और करो। रजिस्टर में उन लोगों की लिस्ट बना लो जो परदेस में रह रहे हैं। उन सबको चिट्ठी लिखो कि बाइस तारीख को वोट पडे़गा। आप के भरोसे ही खड़े हुए हैं। चिðी पाते ही चले आवैं। चिðी को तार समझें।
– सबको?
– बिल्कुल। जिसका वोट मिलने की उम्मीद न हो उनको भी। भाई, हम अपनी ओर से क्यों मान लें कि कोई हमें वोट नहीं देगा।… यह भी लिखो कि आने जाने का किराया मेरे जिम्मे रहेगा।
– और सुनों। अपनी राइटिंग में मत लिखना। किसी बच्चे से लिखवा दो।
– क्यों?
– क्योंकि तुम्हारी राइटिंग में रहेगी तो वही चिट्ठी मतदाताओं को लालच देने का सबूत हो जायेगी।
– तो फोन क्यों न कर दूं। जग्गू ने जेब से मोबाइल सेट निकाल कर दिखाया- कल ही खरीदा है।
– वेरी गुड्ड! ठाकुर की आंखे खुशी से फैल गयीं। देखें। ठाकुर ने हाथ बढ़ाकर मोबाइल ले लिया।
– अरे, फोटो भी खींचता है? वेरी गुड़! लेकिन अपने सिम से फोन न करना पी.सी.ओ. से करना। कदम-कदम पर सावधान रहना होगा।
घर लौटते हुए सिर हिला-हिला कर सोच रहा है जग्गू- सचमुच अकल की रोटी खाते हैं ए ठाकुर बाभन। कितनी दूर तक सोचते हैं। इनसे पार पाना कठिन है। उसे यह देख कर बड़ी राहत महसूस हुई कि आज उसे ‘इज्जत‘ के साथ बुला रहा था ठाकुर- लिखो, सुनो, बैठो, देखो। पहले की तरह- लिख, सुन, बैठ, देख नहीं। शुरू में एक बार ‘अबे‘ बोला था, बस।

अरे साहेब, अरे साहेब। हम तो हुकुम के ताबेदार हैं साहेब। मुंदर अकेले निकला है प्रचार के लिए। शुरूआत ठाकुर टोले से। वह चन्द्रिका सिंह को सामने पा कर हाथ जोड़ता है- कई पीढ़ी से आपकी मैल धोते आये हैं साहेब। इस बार मन में मैल न रखिये।  जो भी करेंगे, आप की मरजी से करेंगे।
हाथ जोड़ने के तुरंत बाद हाथ मलने की आदत है मुंदर की। जैसे साबुन लगाने के बाद नल के नीचे धो रहा हो।
लम्बे काले अधेड़ शरीर पर सफेद धोती कुर्ता। कुर्ते के ऊपर काली जवाहर जाकिट। बड़ा सा सफेद साफा। पैरों में काले पम्प शू। खिचड़ी लम्बी मूंछों के ऊपर माथे पर लाल रोली का लम्बा टीका। बोलते समय तम्बाकू से काले चितकबरे लम्बे-लम्बे पांच-छः दांत झलक जाते हैं।
– यही कुर्सी निशान मिला है बाबू साहेब। बह जेब से पर्चा निकाल कर दिखाता है।
चन्द्रिका सिंह बैलों की सरिया से गोबर बटोर कर हाथ में फरूही का डंडा पकडे़, घुटने तक लुंगी मोडे़ निकल रहे थे। मुंदर की धजा देखकर मंद-मंद मुस्कराते हैं- ससुरा पूरा एमेले लग रहा है।…. पदारथ चुप्पे और जबान से मिठबोले थे। यही उनकी असली ताकत थी। दुश्मन भी सामने पड़ने पर बगुला भगत का चोला देख ठंडा पड़ जाता था। लेकिन यह तो लगता है पदारथ का भी कान काटेगा?
चन्द्रिका सिंह की बूढ़ी मां पीपल के पेड़ पर जल चढ़ा रही हैं। वह झुक कर हाथ जोड़ता है- ए बड़की माई। आसिरबाद चाही। देखा, इहै कुर्सी निशान मिला है। इही पे हमें बैठावे क है।
– ई तो कुर्सी की छापी है बरेठा। इस पे कैसे बैठोगे?
– मतलब इसी पे मोहर लगाकर जिताओगी तब न असली कुर्सी मिलेगी।
– बरेठा। झुकी कमर के चलते बूढ़ी को सिर ज्यादा उठाना पड़ रहा हैं। पोपले मुंह से मुस्कराती हुई वे कहती हैं- तुम्हे तो असली कुर्सी मिलेगी औ हमें कागज की दिखा रहे हो। असली कहां है?
मुंदर उनका पोपला मुंह देखता रह जाता है।
मुंदर का बेटा बनिया टोले से शुरूआत करता है, बुलेट से- भड़ भड़ भड़ भड़! पर्चा डिग्गी में भर लिया है। लेई की हांडी उसकी लाण्ड्री के हेल्पर लड़के के कंधे से टंगी है। पर्चा चिपकाने का काम भी साथ-साथ।
– कुर्सी तो सरकार ने हमें पहले ही सौंप दिया महाजन, कुर्सी निशान देकर। अब इस पर आप लोगों की मुहर लगने भर की देर हैं……घंटी नहीं, सरकार ने जग्गू को बाबा जी का घंटा थमा दिया। मतलब? गये बेटा कुकरी के सिरका में।
जग्गू का सिरी गणेश ब्राहमण टोले से हो रहा है। सबसे आगे चित्ती कोड़ियों और छोटी-छोटी घंटियों की माला पहने लम्बी सींगों और कजरारी आंखों वाला नंदी। उसके बगल में नंदी का पगहा पकड़े गेरूआ लबादे वाला जटाधारी गोसाईं। बड़ी सी घंटी टुनटुनाता हुआ।
ठाकुर ने दो सौ  रूपये में बुक किया है। प्रचार की शुरुआत शंकर जी के वाहन से। नंदी के पीछे कमर में घंटियों की माला पहन कर नाचते हुए टोले के दो बू
विधवा पेंशन, बुढ़ापा पेंशन चाहिए। राशन कार्ड, जाब कार्ड चाहिए। हर मर्ज की एक दवा- घंटी।  दादी, काकी, भइया, भौजी….घंटी।
औरतें नन्दी को रोटी खिलाती हैं। गोद के बच्चे का माथा नंदी के गूदड़ पर टेकती हैं।
जग्गू को लग रहा है कि अभी उसके मुंह से बात की धार नहीं फूट रही। जिस तरह शहर के कचेहरी गेट पर सांडे़ का तेल बेचने वाला मजमेबाज बोलता है…। अपना चेहरा भी उसे भकुआया सा लग रहा है- भावशून्य। मुस्कराहट का नाम नहीं। ऐसा ही चेहरा देखा था उसने फूलन का। जब वह भदोही में पहली बार  अपना चुनाव प्रचार करने निकली थी। आज की रात वह हंसने, लपक कर मिलने और धुंआधार बोलने का अभ्यास करेगा- भाइयो और बहनो……
फुलझारी देवी अपनी दोनांे भाभियों और तीन भतीजियों के साथ काला छाता लगाकर प्रचार के लिए निकली हैं। कहती हैं- पूत न भतार। बेटी न बेटा। मैं किसके लिए लूट मचाउंगी। भगवान ने अकेला किया है तो कुछ सोच कर किया है। ‘पबलिक‘ की सेवा के लिए। सारा गांव मेरा भाई-बाप है।
यादव टोले की किसी दुलहिन ने पूछा- जीत गई तो परधानी कैसे करोगी बुआ?      -कुर्सी पर बैठ कर करंेगे दुलहिन। सीना ठोक कर करंेगे। सीने पर मुक्का मार कर बुआ ने बताया- मेरे जीते जी गांव का हिस्सा हाकिम लोग खा कर दिखावें जरा! पेट में हाथ डालकर निकाल लाऊँगी।
सब हंसती हैं।
उसका भाषण सुनने के लिए औरतों की भीड़ लग जाती है।
– हिम्मत वाली हैं। जीत गयी तो बडे़-बड़ों की बोलती बंद कर देगी।

ठाकुर अपने ट्यूबबेल घर में जग्गू के साथ बैठ पिछले पांच दिन में हुए भंडारे के खर्च का हिसाब जोड़ रहे हैं।
मुंदर ने एक हफ्ते पहले तम्बू कनात लगवा कर भंडारा शुरू करवा दिया। बाजार का प्रभुदयाल हलवाई अपने तीन शागिर्दाें के साथ तहमत लपेटकर जुट गया है। सबेरे नास्ते मे चने की घुघुनी, समोसा और हलवा। खाने में मांसाहारी और शाकाहारी दोनों के अलग तम्बू और अलग भंडारी। शाम को अंधेरा होते ही पीने पिलाने का दौर। चाय तो किसी गिनती में ही नहीं है। जब चाहो, जितनी चाहो।
लोग पूछने लगे- तुम्हारा भंडारा कब से शुरू हो रहा है जग्गू? ठाकुर से सलाह मशविरे के बाद तीसरे दिन से जग्गू का टेंट भी ठाकुर टोले और यादव टोले के बीच गड़ गया। प्रभुदयाल का भाई शिवदयाल छन्ना कढ़ाई लेकर हाजिर हो गया।
मुंदर और जग्गू अपने-अपने भंडारे का इन्तजाम तम्बू के बाहर रह कर ही कर रहे हैं। बारहों बरन का भंडारा है। चूल्हे चौके में अभी भी सोलहवीं शताब्दी चल रही है।  अंदर घुसने से छुआछूत का सवाल खड़ा हो सकता है। ऐसे नाजुक मौके पर रिस्क लेना…
ठाकुर को लगा कि गांव के मातबर लोगों, खासकर सवर्णों के लिए कुछ खास करना पडे़गा। सब लोग गांव में खुले आम दारू नहीं पी सकते। पत्नी या जवान बेटे से झगडे़ का डर है। छोटे बडे़ का भेद भुला कर एक ही पंगत में बैठने से भी इज्जत घटेगी। इसलिए ऐसे लोगों का इन्तजाम ठाकुर के ट्यूबवेल घर पर। मुर्गा और बकरा।
लेकिन दोनों जगह मिलाकर खर्च बहुत आ रहा है। कितनी-कितनी किस्में है दारू की। महुआ, ठर्रा, बसंती, सौंफी, मसालेदार, लाल परी। जितने पीने वाले उतनी किस्में। जिन लड़को की अभी ठीक से मंूछें भी नहीं निकली वे भी गिलास पकड़कर बैठ जाते हैं। जग्गू के भंडारे से धुत हो कर निकले तो गिरते पड़ते मंुदर के तम्बू में पहुंच गये। जिन लड़कों का वोटर लिस्ट में नाम नही है वे भी… जिन्होंने जिंदगी मं कभी नहीं पी, वे भी कहते हैं- भालू चाहिए। भालू माने बीयर। भालू की गिनती दारू में नहीं। प्रचारित हो गया है कि भालू जाड़े में गठिया से जाम पैरों की जकड़न
डबल क्रास। दोनों तरफ से।
अभी तक तीन लोगों ने अपनी खास ब्रांड की फरमाइस की है। मलेटरी से रिटायर सूबेदार अनोखी सिंह को थ्री एक्स चाहिए। घर ले जायेंगे। गरम पानी के साथ रोज शाम को थोड़ा-थोड़ा लेंगे। इन्टर कालेज में पढ़ाने वाले दोनों टीचर- भवानी बकस सिंह एम0ए0, बी0एड0 और डॉ0 बिकरमा पांड़े को अपने ब्रांड की व्हिस्की चाहिए। टीचर हैं, तो टीचर व्हिस्की।
– मंहगी तो है, नो डाउट। विकरमा मंुंह के पान की गड़गड़ाहट संभालते हुए कहते हैं- लेकिन हमारा वोट भी कम कीमती नहीं है। पी.यच.डी. का वोट है।
‘टीचर्स‘ की कीमत सुनकर पस्त हो रहे जग्गू को दिलासा देता है ठाकुर- ठीक है। ठीक है। जो मुंह खोलकर मांग रहा है, समझो वह झंडे के नीचे आ गया।
.कुल आठ-दस हजार रोज का खर्च बैठ रहा है। राशन वाले के उधार की नौबत आ गयी है। शराब तो ठेकेदार  उधार देगा नहीं।
– खर्चा तो होगा। क्या कर सकते हैं?
– लेकिन आयेगा कहां से? घंेटों का पैसा तो फुर्र हो गया।
– इसी का रास्ता खोजने तो बैठे हैं…
तभी राम सिंह आकर बताता है- मंुदर तो गांव भर में कुर्सी बांट रहा है।
– क्या? दोनों के मुंह से एक साथ निकलता है।
– हां, मुंदर का बेटा और दोनों पोते हर घर को एक-एक कुर्सी दे रहे हैं। रिक्शे पर लादकर निकले हैं। लाल रंग की फाइबर की हत्थेदार कुर्सियां।
सबसे पहले मुंदर ने चन्द्रिका सिंह के दुआर पर जाकर आवाज लगायी- बड़की माई। आ गयी आपके हिस्से की असली कुर्सी। उस दिन आपने कहा था… बाहर आइये। अपने हाथों से आपको विराजमान करेंगे।
आवाज सुनकर बड़की माई के साथ-साथ घर की बहुए बेटियां भी निकल आयीं।
म्ंाुदर का बेटा अपने अंगौछे से कुर्सी की धूल झाड़ता है। फिर घर के मुखिया को उस पर बैठा कर पैर छूता है- दिल खोलकर आशीर्वाद दीजिए।
ठाकुर हिसाब लगाकर देखते हैं। एक कुर्सी डेढ़-दो सौ से कम की नहीं होगी। तीन सौ कुर्सियां। यानी पचास साठ हजार रूपये एक ही झटके में लुटा रहा है हरामजादा।
– इतनी गर्मी होती है सउदिया के पैसे में?
– नहीं रे यह मनरेगा का पैसा होगा। पर्दे के पीछे पदारथ।


खेतांे की ओर जा रहे मुंशी को सबेरे-सबेरे अपनी ट्यूबवेल के सामने रोका ठाकुर ने- आज हमारे खेत की गोभी खाकर देखिए मुंशी जी।
मंुशी जी ट्यूबवेल की ओर मुड़ गये।
– कैसा माहौल है? कुछ पता चल रहा है।
– आपका अकबाल बुलन्द है।
– आप भी जोर लगा दीजिए मंुशी जी। बहुत खर्चा हो रहा है। कुर्सी हाथ से गयी तो समझो हार्टअटैक हो जायेगा।
– हां, सुना सारा खर्च आप ही उठा रहे हैं।
– सारा तो नहीं लेकिन लाख-डेढ़ लाख तो हो ही जायेगा
– तो इसकी वापसी कैसे होगी राजन?
– परधानी हाथ में आ जाय तो वापसी की चिन्ता नहीं रहेगी।
– वह तो ठीक है लेकिन छोटी जाति का कौन विश्वास। जीतने के बाद हाथ से बेहाथ हो जाय। हरामजदगी पर उतर आवै तो? वक्त बदलने के साथ बडे़ बड़ों की आंख का पानी बदलते देखा है। इसको भस्मासुर बनते कितनी देर लगेगी?
यह मुंशिया मुझे डराना चाहता है क्या? वे दहाडे़- क्या बात कर रहे हैं मंुशीजी। साले को खोदकर पोरसा भर नीचे नहीं गाड़ देंगे। भस्मासुर बनेगा तो भस्मासुर की मौत मरेगा।
– न न न! यह तो अपने हाथ से अपने गले में फंदा कसना हो गया राजन!
इसकी नौबत क्यों आये?
ठाकुर सोच नहीं पाते कि क्या बोलंे? इस मंुशिया की असली मंसा क्या है?
मुंशी जी थोड़ा पास आ गये। आवाज फुसफुसाहट में बदल गयी- मैं कहता हूं, रिस्क क्यों लेते हैं? रिस्क तो व्यापारी लेता है, जुआरी लेता है।
– अब तो ले चुके। वह रास्ता तो बंद हो चुका।
– कोई रास्ता कभी बंद नहीं होता । एक बंद होता है तो दस खुलते हैं। मैं कहता हूं रिस्क उसके गले में डालिए जिसे कुर्सी मिलनी है।
– मतलब?
– मतलब, वह जो जगुआ की बाजार वाली जमीन है, जिस पर झोपड़ी डाल कर उसका बाप जूता पालिस करता है, उसका बैनामा करा लीजिए। या रेहन ही लिखवा लीजिए। फिर वही पैसा उसके मुंह पर मार कर उसी के हाथांे जहां चाहें वहां, खर्च कराइये। जमीन नहीं सोना है।… फिर जीतिए चाहे हारिए। भस्मासुर बने या हरिना कश्यप। कुछ दांव पर नहीं रहेगा।
– ओ! ठाकुर का मुंह खुला का खुला रहा गया। क्या खोपड़ी है इस मुंशिया  की। पूरा विषखोपड़ा है। भला और किसी के दिमाग में आ सकती थी यह बात। वह मुंशी की बांह पकड़ कर अंदर ले जाता है- बैठिए। अब तो चाय पिलाने के बाद ही जाने देंगे। …ए राम सिंह। दौड़कर दो कप चाय लाओ। मटर की घुघुनी भी।
– आपने बहुत सही राह सुझायी चाचा। इसी से पता चल जाता है कि आप हमें कितना ‘अपना‘ समझते हैं।… लेकिन एक बात समझ में नही आती। उस समय मेरे बाप जिंदा थे। आप भी थे। आप लोगों के रहते ऐसी प्राईम लोकेशन पर इस ससुरे को चक कैसे मिल गया? आप लोग क्या करते रहे?
– था एक दढ़ियल बकचोद ए.सी.ओ साला। बाजार में क्वाटर लेकर अकेले रहता था। सो गयी होगी जगुआ की अम्मा दो चार रात उसके पास जाकर। तब कितना चमकती थी।
मटर की घुघुनी खिलाने और चाय पिलाने के बाद अपने हाथ से सुपारी काट कर खिलाते हैं ठाकुर फिर राम सिंह से कहते हैं – जाकर यह सब्जी का झोला मुंशीजी के घर तक पहुंचा आओ।
मुंशीजी को याद है- ठाकुर का चक मौके की जमीन पर बैठाने के लिए ही तो जगुआ के बाप को वहां से बेदखल करके सड़क के किनारे गड्ढे में फेका गया था। आज वही गड्ढा कीमती हो गया तो इसको कांटे की तरह गड़ रहा है।
ठाकुर की नजर जाते हुए मंुशाी की पीठ पर है। उन्हें तो मालूम ही था कि आरक्षण के चक्रीय क्रम में देर सबेर इस गांव की परधानी सिड्यूल कास्ट के खाते में जानी है। इसीलिए उन्होंने साल भर पहले ही राम सिंह का सिड्यूल कास्ट का सर्टीफिकेट बनवा  लिया था। पता नहीं कहां गड़बड़ी हुई कि फाइनल वोटर लिस्ट से उसका नाम ही गायब हो गया। वरना एक बार राम सिंह को जिता पाते तो दस साल कोर्ट को यह तय करने में लग जाता कि वह असली सिड्यूल कास्ट है या फर्जी। जग्गू पर दांव लगाने की जरूरत ही न पड़ती। जग्गू तो मजबूरी की पसन्द है।


ट्यूबवेल घर का दरवाजा बंद करके आग तापते दोनो लोग अंदर चिंतित बैठे हैं। ठाकुर की समझ में नहीं आ रहा है कि जग्गू से जमीन बेचने की बात कैसे शुरू करें। वे पहले खांसते हैं, खंखारते हैं फिर कहते हैं-
– अभी कुर्सी बांटे हफ्ते भर ही हुए हैं कि सुनते हैं अब साड़ी बांटने वाला है। कितना पैसा कमाता है इसका बेटा। मुकाबले में खडे़ होकर फंसे गये। अब तो लगता है बेइज्जत हो कर रहेंगे।
– जीतेंगे तो हमीं मालिक।
– लेकिन जीत तक पहुंचेगे कैसे? पर्चा दाखिले से लेकर हफ्ते भर के भंडारे तक साठ सत्तर हजार गल गये। हाथ एक दम खाली हो गया। उसने कुर्सी बांटा है तो कुछ न कुछ तो हम लोगों को भी बांटना होगा- साड़ी या कम्बल। भंडारा चलाना ही पडे़गा। मैंने सोचा रानी साहेब से एक लाख ले लें। जीतने के बाद वापस कर देंगे। मास्टरी की तनखाह का एक पैसा खर्च नहीं करती। जमा करती जा रहीं हैं। लेकिन उन्होंने सिरे से इंकार कर दिया। अब तुम्ही को कोई इंतजाम करना पडे़गा।
– हम कहां से करेंगे मालिक? हमें अपनी औकात पता थी। इसीलिए खडे़  होने से बच रहे थे। बाप भी मना कर रहा था। आपने ललकारा तो खडे़ हो गये।
फिर लम्बा मौन!
– मेरे पास तो तीनों घेंटों के पैसे थे- अट्ठाइस हजार। तीन हजार पर्चा छपाने मंे गल गये। बाकी भंडारे और दारू में। कुछ उधार भी हो गया। मैं तो खुद सोच रहा हूं कि…
– बिल्कुल सोचो भाई। अब तुम्हीं को सोचना है। कम से कम एक लाख फौरन चाहिए।
– लेकिन मालिक मेरे पास है क्या जिसके सहारे सोचूं?
– है तो तुम्हारे पास बहुत कुछ बशर्ते तुम्हारा बाप तैयार हो जाये।
जग्गू का मुंह गोल हो गया। आंखें फैल गयीं।
– देखो, जगह जमीन, गहना गुरिया ऐसे ही गा
थोड़ी देर तक दोनों एक दूसरे का मुंह ताकते रहे।
– हम लोग सारी मुसीबत से उबर जायेंगे। साड़ी, कम्बल जो चाहेंगे वह भी बांट देंगे और भंडारा भी चला ले जायेंगे। सबसे बड़ी बात, जीत पक्की हो जाएगी। जीतने के बाद तो ऐसे-ऐसे रास्ते हैं कि दो महीने के अंदर सूद ब्याज समेत वापस कर देंगे। फिर तो पांच साल तक कमाना ही कमाना है।… नहीं तो ऐसी बेइज्जती होगी, ऐसी बेइज्जती होगी कि कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह जायेंगे।
जग्गू को लगा, दोनों एक दूसरे का कालिख पुता मंुह देख रहे हैं। बोला- ठीक है मालिक। मैं बप्पा को राजी करने की कोशिश करता हूं लेकिन वह मानेगा नहीं।
– जैसे भी हो मनाओ बेटा! इज्जत दांव पर है।
– अच्छा मान लीजिए बप्पा राजी हो गए तो ऐसा है कौन जिसके पास रेहन रखने पर तुरंत लाख डेढ़ लाख मिल सकें।
– खोजा जायेगा। बाजार के अगरवाले से मिल सकता है। नहीं तो मैं अपनी ठकुराइन पर जोर डालूंगा। समझाऊंगा कि लिखा पढ़ी करके, रेहन रख कर दे रही हो तो पैसा कैसे डूब जायेगा? मान जाना चाहिए। बल्कि यही ठीक रहेगा। तब रेहननामे की बात भी पबलिक में नहीं जायेगी।
– ठीक है मालिक।
बाहर ठंडी हवा चल रही है। आसमान में बादल हैं। रास्ते में कुत्तों ने दल बना कर भौंकना शुरू किया। लेकिन जग्गू को कुछ दिखायी सुनायी नहीं पड़ा।


– बप्पा! ऐ बप्पा!
– बोल। बदलू कथरी में कुनमुनाया।
– अब क्या होगा?
– क्या हुआ? पानी बरसने वाला है क्या?
– नहीं वह बात नहीं। वोट वाली बात।
बाप ने मुंह से कथरी हटा ली- अभी तो ठीक चल रहा है?
– वह बात नहीं। लगता है भंडारा बंद करना पडे़गा। आठ दस हजार उधार हो गया।
– तो शुरू क्यांे किया था?
– क्या करता? जब मंुदर ने शुरू कर दिया… उसने तो घर-घर कुर्सी भी बांट दी। अब साड़ी बांटने वाला है।
– उसके घर में तो नोट बरस रहा है। तेरा बाप तो जूता गांठता है। तू उसकी बराबरी क्यों करने चला?
जग्गू का सिर और झुक गया। समझ गया कि शुरूआत ही बिगड़ गयी।
– खर्चा तो ठाकुर कर रहा है?
– अब उसने जवाब दे दिया। कहता है- साठ सत्तर हजार खर्च कर दिए। आगे तू संभाल। दस बारह दिन बचे हैं पोलिंग के। भंडारा बंद हो जायेगा तो बनी बनाई हवा बिगड़ जायेगी। जाडे़ में कम्बल बंट जाता तो….
– तो यह सब मुझे क्यों सुना रहा है?
– अ-अ- अगर, वह हकलाया- ब-ब- बाजार वाली जमीन रेहन रख कर किसी से लाख डेढ़ लाख ले लिया जाय तो इज्जत बच सकती है।
– क्या बकता है? बदलू गरजा- बाप दादों की बनाई हुई ‘परापर्टी‘ तू जुए के दांव पर लगा देगा?
– जुए में क्यों?
– इलेक्शन जुआ नहीं तो क्या है?
– क्या कहते हैं बप्पा। अपनी जीत एकदम पक्की है। कम से कम चार सौ वोट से। जीतते ही हम पचीस-तीस  लाख के आदमी हो जायेंगे। ऐसी-ऐसी दस जमीनें खरीद लेंगे।
– यह बता कि ऐसी सत्यानाशी राह तुझे दिखायी किसने?
– दिखायेगा कौन? और कोई रास्ता ही नहीं है।
-जरूर उसी ठाकुर ने तेरी मति फेरी है। इतनी दूर का निशाना। तभी मैं कहूं कि तुझे परधानी देने के लिए वह क्यों मरा जा रहा है? तू समझ रहा है कि वह तेरा चुम्मा ले रहा है। अरे कुलकलंकी, वह तुझे डस रहा है। उसके काटने से लहर भी नहीं आयेगी।… चल भाग यहां से।
जग्गू बाहर निकल आया। पैर मन-मन भर के हो गये। जब से चुनाव की भाग दौड़ हुई, वह यहीं मंड़हे में सो जाता था। लेकिन इस समय पत्नी के आंचल में मुंह छिपा कर रोने का मन कर रहा है। अगर पत्नी आंचल का टोंक गीला करके उसका मुंह पोछ दे तो कुछ राहत मिल सकती है। लेकिन अब आधी रात में उसके पास तक पहंुचे कैसे?
महुए के पेड़ के नीचे अंधेरे में खड़ा सोच रहा है जग्गू-किसकी बात का विश्वास करे वह? क्या सचमुच डसने के लिए ही परधानी का लालच दिया है ठाकुर ने?


जमीन पर ठाकुर की नजर गड़ी जान कर बदलू की नींद उड़ गई है। इसीलिए कहा गया है कि शूद्र के धन और अरहर की मधु का बहुत दिनों तक बचना मुश्किल। कैसे बचे, जब इलाके के सारे जाली पिचाली लोगों की नजरें चौबीसों घंटे उसी पर गड़ी रहती हैं।

कितनी तपस्या के बाद मिला था सड़क के किनारे यह चक। वह भी गड्
हंसी करते- सिंघाड़ा बोने के लिए दिया है। बिना जोते बोये मुफ्त की फसल काटते रहना सालों साल।
लेकिन एसीओ की बात सही निकली। कच्ची सड़क दस साल में पक्की हो गई और गड्
– बरसाती, साल भर तुमने मेरे जूते चमकाए, बदले में मैं तुम्हारी किस्मत चमकाना चाहता हूं। बोलो, कहां चक काट दें तुम्हारा?
– हुजूर, जहां है ठीक है। बस चौहद्दी नाप कर पत्थर गड़वा दें। बेईमानों ने मेरी आधी जमीन दबा लिया है।
– तो उन्हीं बेईमानों के बीच में क्यों फंसे रहना चाहते हो? वे फिर दबा लेंगे। मौका मिला है तो निकल भागो।
– हुजूर, उंचास की जमीन है। मटर बो देते हैं तो बच्चे महीना भर निमोना खाते हैं।
– निमोना को मारो गोली। थोड़ा नीचे उतरो। बारह आने से उतार कर चार आने की मालियत पर बैठा देते हैं। रकबा तिगुना हो जायेगा।
जग्गू के मन में उम्मीद जगती है। मन की बात बड़बड़ाने की आदत है बाप को। लगता है जमीन के सोच-विचार में ही पड़ा है। वह मड़हे की ओर बढ़ता है। अगर हनुमान जी आज उसके बाप की बुद्धी पलट दें तो वह इसी मंगल को उन्हें ’रोट’ चढ़ायेगा।
– कच्ची सड़क के किनारे चौराहे के पास बैठा देते हैं। सड़क पक्की होते ही यही जमीन सोना हो जायेगी। तुम रहो कि न रहो, तुम्हारा यह बेटा ’लखपती’ हो जायेगा।
बरसाती हाथ जोड़े खड़ा है, मौन!
– अभी मौके पर गड्
अचानक बाप से एक कदम पीछे खड़ा बदलू आगे बढ़ कर कहता है- राजी हैं।
राजी! बाप के मुंह से ’राजी’ सुनकर खटिया के बगल खड़ा जग्गू खुशी से चीख पड़ता है- बापू – ऊ – ऊ !
वह रजाई के ऊपर से बाप की देह को छाप लेता है और बीड़ी तम्बाकू से बस्साते उसके मुंह को ताबड़तोड़ चूमने लगता है।
बदलू रजाई फेंक कर उठ बैठता है- कहां गए ए सी ओ साहब?
– कौन ए सी ओ?
– पल भर अंधेरे में घूर कर वह फिर रजाई तान लेता है।


बदलू का इंकार सुनकर ठाकुर का मुंह लटक गया।
– बहुत ऊंच-नीच समझाया मालिक। उसके पांव पकड़ लिए। लेकिन वह तो एक ही मूरख। जिद कर गया तो कर गया। चाहे तो एक काम हो सकता है।
– क्या?
– रात में उसे पिला कर टुन्न करें। फिर उसका अंगूठा कजरौटे में चपोड़ कर स्टाम्प पेपर पर ठोंक ले।
– अंगूठा तो दो गवाहों के सामने लगना चाहिए।
– गवाहों के दस्कत तो कभी भी हो जायेंगे मालिक।
ठाकुर मुतमइन नहीं दिखा। कुछ देर खड़ा सोचता रहा! फिर बिस्तर के सिरहाने से प्लास्टिक के थैले में रखा स्टाम्प पेपर निकाल कर जग्गू को समझाने लगा- यहां नीचे दाहिनी ओर लगाना- बायां अंगूठा। बायीं तरफ की जगह गवाहों की दस्कत के लिए है।
– ठीक है। जग्गू ने स्टाम्प पेपर स्वेटर के नीचे छाती पर सीधे-सीधे रखते हुए कहा- जैसे भी होगा मैं लगाकर लाता हूं।
खाने के बाद खटिया पर बैठ कर उसने पत्नी को पुकारा- जरा कजरौटा लाना तो।
– कजरौटा? काजल लगाओगे क्या?
– तुम तो लगाओगी नहीं। सोचा, लाओ मैं ही लगा दूं।
– लगा दूं। किसके? मेरे?
– तब क्या पड़ोसन के? लाओ जल्दी।
वह ले आयी। खोलकर देखा- यह तो एकदम सूखा है। एक बूंद कड़वा तेल डाल दे। बस, एक बूंद।
-इतनी रात में काजल लगाने की क्या सूझी?
– अपना अंगूठा इधर कर।
– मेरा? दायां कि बायां?
– अरे कोई भी।…. तेरे अंगूठे तो बडे़ पतले हैं रे। जैसे तेरा मुंह पतला वैसे तेरा अंगूठा। जरा पैर का दिखा।
– धत! क्या हुआ है तुमको आज?
– अरे मेरी लछिमनिया! ला तेरा पैर छू लूं। जानती है, जिस दिन जीत कर लौटूंगा, तेरे लिए क्या लाऊंगा?.. थोड़ा टेढ़ा कर। जरा काजल चुपड़। … अरे अंदर की ओर पगली।
उसने पीशान पर दो तीन फूंक मारी और चल पड़ा।
ण्ण्ण्ण् पहले तो ससुरे ने ललकार कर सूली पर चढ़ा दिया। अब मंझधार में लाकर घटियारी कर रहा है।


मुरारी मास्टर के घर तीन लड़के आये हैं। उनके बेटे के साथ युनिवर्सिटी में पढ़ते हैं। कहते हैं, परधानी के चुनाव में दलित फैक्टर की केस स्टडी करने निकले हैं।
जग्गू और मुंदर का ठाकुर ब्राह्मण की सपोर्ट से चुनाव लड़ना उनको अच्छा नहीं लग रहा है।
मुरारी मास्टर की दालान में दोनों को बुलाया गया है। मुंदर ने तो साफ कहला दिया-वह स्कूली लौंडों के आगे हाजिरी बजाने जायेगा? वह भी अपने से छोटे दलित के दरवाजे पर? हरगिज नहीं। जग्गू दो बार बुलाने पर आया है। दीवार से पीठ टिका कर बैठा है।
वे कहते हैं- हमारा लक्ष्य सिर्फ परधानी की सीट हासिल करना थोडे़ है। परधानी का रिजरवेशन तो लालीपाप है।  हमारा मुंह बंद करने के लिए! हमें तो हर चीज में हिस्सा चाहिए। जगह-जमीन में, ताल-पोखर में, खेती बारी में, महल-अटारी में। हजारों साल से सारी धन धरती पर उनका कब्जा रहा है। अब सौ पचास साल हमारा भी रहे। हम भी जानें कि जगह-जमीन पर मालिकाना हक मिलने का सुख कैसा होता है! यह सवर्णों की बैंकिंग से थोड़े मिलेगा?
– ऐसा कैसे हुआ कि सारी जगह-जमीन, खेती-बारी महल-अटारी पर ठाकुर और पदारथ जैसे लोगों का कब्जा है?
– इसलिए कि जग्गू जैसे कौम के गद्दार और चापलूस सदा से होते आये हैं जो लात जूता खाकर भी उन लोगों का जूठा पत्तल चाटने को तैयार रहते हैं।
– जग्गू या मुंदर के जीतने से जो ’बनाना रिपब्लिक’ गांव को मिलेगा उससे हमारे मिशन को क्या हासिल होगा? उल्टे बदनामी!
बनाना? न समझने के भाव से जग्गू उस लड़के का मुंह ताकता है।
– नहीं समझे? दूसरा लड़का समझाता है-मतलब, मजा मारैं गाजी मियां धक्का सहैं मुजावर। यह भी नहीं समझे? मतलब, कुर्सी मिलेगी दलित को और मजा मारेंगे ठाकुर बाभन।
सिर झुकाए बैठा जग्गू समझ नहीं पा रहा है कि अचानक ये लोग आकर उसके पीछे क्यों पड़ गये हैं? क्या मुरारी मास्टर की शह के बिना ये उसे इस तरह बेइज्जत करने की हिम्मत कर सकते हैं? गद्दार। चापलूस।
– हमारी मदद चाहिए तो ठाकुर की गुलामगीरी छोड़नी पडे़गी।
जग्गू भरसक कोशिश कर रहा है कि बिगाड़ न होने पाये। वह हलीमी से कहता है- सपोर्ट लेने का मतलब गुलामगीरी कैसे हुई भाई? अपने बूते हम कैसे जीत पायेंगे?
– तो जरूरी है कि तुम्ही जीतो। हम दूसरे को जिताएंगे। जिसकी रीढ़ में दम हो। असली स्वतंत्र उम्मीदवार तो फुलझरिया है। हम उनको क्यों न जितायें?
– आपके पास कौन सी ताकत है जो जिताएगें? जग्गू भड़क जाता है-न आप यहां के वोटर हैं न इस गांव में आप की कोई नाते- रिस्तेदारी है तो किसके बल पर जिताने हराने का ठेका ले रहे हैं?
लड़के सन्न! वे एक दूसरे का मुंह देखते हैं।
लेकिन इससे तो बात बिगड़ जायेगी। सोचकर जग्गू गुस्से पर काबू करता है- गुलामगीरी करे ससुरा अंगूठाछाप मुंदर और उसकी आल-औलाद। मैं बीस साल पहले का हाईस्कूल। फस्ट डिवीजन। मार्कशीट दिखाऊं? बाप आगे पढ़ाता तो मैं भी डी.एम., एस.पी. बन जाता। मैं इन्टर फेल ठाकुर की गुलाम गीरी करूंगा? अरे, गरज पड़ने पर गदहे को भी मामा कहना पड़ता है। लाखांे खर्च कर रहा है। भंडारा खोले हुए है तो मामा नहीं कहूंगा? मेरा पैतरा जीतने के बाद देखना। सारा गांव आकर मेरे इसमें तेल न लगाये तो कहना।
लड़के न चाहते हुए भी मुस्करा देते हैं।
जग्गू दीवार के सहारे बैठे मुरारी मास्टर को तिरछी नजर से ताकता है। वे मरी आवाज में कहते हैं- जो भी फैसला हो समझदारी से….
– समझदारी दुनियादारी तो वही कुर्सिया सिखा देती है चाचा। गदहा भी उस पर बैठते ही आलिम फाजिल हो जाता है। वह उठकर मुरारी के पैरों में हाथ लगाता है- आप का आशीर्वाद  लेकर पर्चा भरा है चाचा। जब तक आप साथ हैं, कोई रोंवा भी टेढ़ा नहीं कर सकता।
क्हने के साथ वह बाहर निकल जाता है।
तभी दरवाजे के पास खड़ा जग्गू का फुफेरा भाई चिल्लाता है-अरे ये तीनो फुलझरिया के एजेंट हैं! बीस बीस हजार ले चुके हैं।
सुन कर तीनों लड़कों का चेहरा फक हो जाता है।


खुले आम जग्गू के समर्थन में कोई आया है तो वह है मकबूल। जग्गू का दर्जा आठ तक का क्लासफेलो। बचपन में दोनो ने साथ-साथ बुलबुल फंसाया है। नहर में कटिया लगाया है। गर्मी की दोपहरी में जंगल में खरगोश का शिकार किया है।
वह सीना ठोंक कर कहता है- साथ हैं तो हैं। खुल्लमखुल्ला हैं। किसी साले से डरते हैं?
कहता है- पदारथ जैसे ‘फराडी‘ के कैन्डिडेट को हमारे टोले से एक भी वोट मिल जाये तो कहना। चाहे जितनी कुर्सी कम्बल बांटे।
मकबूल बताता है- पिछले चुनाव की तरह इस बार भी पदारथ कोशिश मंे थे कि मुसलमान टोले से कोई वोटकटवा कैन्डिडेट खड़ा हो जाय। कितनी मुश्किल से रोका गया।
जग्गू को ठाकुर की सीख याद आती है।  वह कहता है- मैं मसजिद के लिए हजार रूपये चंदा देना चाहता हूं। यह भी ऐलान करना चाहता हूं कि परधान बन गया तो मसजिद के सामने का डेढ़ बीघा बंजर मसजिद के नाम पट्टा कर दूंगा।
– तुम शाम को बडे़ मौलवी साहब की सहन में आओ। वहीं सबके सामने ऐलान करो। रसीद कटाओ। बाकी सब मैं संभाल लूंगा।
बडे़ मौलवी साहब के घर जाने की बात पर जग्गू को सहजादी खाला की याद आती है। रास्ते में ही घर पडे़गा। उनसे भी मिलना हो जायेगा। अकेले रहती हैं। बचपन में जाता  था। मां भेजती थी। कभी उनकी टूटी चप्पल मरम्मत के लिए लाने। कभी आम, अमरूद, करौंदा या बेर देने। मां सिखाती थी- कहना, सलाम वालेकुम खाला। खाला खुश होकर अशीसती थीं। खुश रहो। आबाद रहो। हुनरमंद बनो। खाने को लइया, गुड़ या बताशे देती थीं। चप्पल सिलाकर लाने पर चवन्नी देती थीं। न वह हुनरमंद हुआ न आबाद हुआ। अब हो सकता है आबाद हो जाय। घंटी निशान कई बार चिन्हाना होगा। एक वोट पक्का।
वह जैसे ही पक्की से मुस्लिम टोले की
बदले मंे इदरीश  ने चाबुक वाला हाथ थोड़ा ऊपर और सिर थोड़ा नीचे झुकाया। जग्गू को उसकी काली ट्रिम की हुई चमकती दाढ़ी बहुत अच्छी लगी।
साला, सुलतनवा जैसे मोती को रोज चुगता होगा। उसे ईर्ष्या हुई।
सु-ल-ता-ना रे – ऽ-ऽ-ऽ, मेरे दि- ल्ल में तू बसी- ऽ-ऽ है बन के नू-ऽ-ऽ-ऽ र… सु-ल-ता-ना रे-ऽ-ऽ-ऽ
सातवीं क्लास में सुलताना उसके बगल वाले टाट पर दरवाजे के पास बैठती थी। आते जाते वह उसकी समीज के अंदर झांकने की कोशिश करता था। सुलताना को सब पता था। वह सावधान हो जाती थी। समीज को पीछे से थोड़ा नीचे खींच देती थी। फिर उसकी निराशा पर मुस्कराती थी।
आठवीं में पहुंचते-पहुंचते वह उसे रास्ते में देख कर गाने लगा था- सु-ल-ता-ना रे – ऽ – ऽ – ऽ
एक बार वह बाग से गुजर रही थी और वह कच्ची अमिया की लालच में गाना भूल गया था तो उसकी छोटी बहन घर तक ओरहन लेकर आ गयी थी- आपा पूछती हैं, आज उनके नाम वाला गाना क्यों नहीं गाया?
आज वह सुलताना से क्या वादा कर सकता है? कहेगा- जिता दोगी तो तुम्हारी घोड़ी की नांद पक्की करा दूंगा।
वापसी में बहुत खुश है जग्गू। कितनी खिली हुई है सुलताना। चांद के गोले के बराबर है उसकेे चेहरे का गोला। उतना ही गोरा। चारों तरफ से हिजाब के घेरे में। जैसे अंघेरे में चांद। अब भी हंसी में वही खनक है। दांतो में वही चमक। कह रही थी- मतलब पड़ा तब सुलताना की याद आयी? मतलबी कहीं के।
उसका मन कहता है, कहीं अकेले में  बैठ कर देर तक सुलताना के बारे में अच्छी-अच्छी बातें सोचता रहे। सड़क पर छलांग लगाते हुए चलने का मन कर रहा है।


ठाकुर ने दो दिन पहले ‘टीचर्स‘ की बोतल पकड़ाते हुए कहा था- मुंशी को दे आना।
दरवाजे पर सन्नाटा है। चारों तरफ अंधेरा। ओसारे में लम्बी खंूटी में टंगी लालटेन जल रही है जो थोड़ी-थोड़ी देर में भभकती है। जग्गू कंुडी खटकाता है।
मंुशियाइन निकल कर बताती हैं- अभी- अभी आये हैं। बैठो। भेजती हूं।
वह पास पड़ी कुर्सी पर बैठ जाता है।
बेऔलाद हैं मुंशीजी। कहते हैं, कई बच्चे हुए लेकिन कोई जिंदा नहीं बचा। जग्गू को पता है, कचेहरी में बड़ा रूतबा है मुंशी का। सारी बहस और कानूनी प्वाइंट खुद तैयार करते हैं और जिरह वाली तारीख पर किसी बडे़ वकील का वकालतनामा लगवा कर बहस करा देते हैं।
मंुशी जी तौलिया से हाथ पोछते हुए निकलते हैं। वह लपक कर पैर छूता है।
– बस, बस। मुंशी जी आशीर्वाद देने मुद्रा में दोनों हाथ उठा देते हैं।
– कैसा चल रहा है?
– आपका आशीर्वाद लेने आया हूं। वह व्हिस्की की बोतल कुर्ते की जब से निकालकर तिपाई पर रखता है।
– अरे, इसकी क्या जरूरत थी। डाक्टर ने मनाकर दिया है। अभी मुंशियाइन देखेंगी तो बिगडें़गी। कहने के साथ वे खुद बोतल उठाकर तिपाई के नीचे छुपा देते हैं।
– बाजार वाली जमीन रेहन रख दिए?
– आपको कैसे पता चला?
– मेरी गवाही कराने लाये थे।
– क्या करता। खर्च इतना बढ़ गया कि… मुंदर अथाह पैसा खर्च कर रहा है।
– डेढ़ लाख में रखना  दिखाया है?
– हां।
– पूरा पैसा मिल गया?
– अभी तो ठकुराइन के पास पचास हजार ही थे। पचीस ठाकुर ने अपने भंडारे के लिए रख लिए, पचीस मुझे दिया है। बाकी बैंक से निकाल कर देंगी तो कंबल बांटा जायेगा। बस यही डर लग रहा है कि हार गया तो कहां से पटाऊंगा?
– हारोगे तो नहीं। लेकिन अगर तकदीर ही टेढ़ी हो जाय तो बेंच कर पटा देना। आठ लाख से कम न मिलेंगे।
– बेंच कैसे सकते है, जब तक रेहन न छुडा लंे?
– बात तो सही है। मांस बाघ के मुंह में डाल चुके हो। लेकिन जरूरत पडे़गी तो रास्ता निकाला जायेगा।
– कैसे?
– बेचने के पहले रेहन पटाना जरूरी है भी और नहीं भी।
– कैसे?
– पहले पटा सको तब तो ठीक ही है। नहीं तो बेंचकर पैसा अपने खाते में डालो। फिर निकाल कर रेहन पटाओ और खरीददार को मौके पर कब्जा दे दो।
– रेहन रहते बेच सकते हैं?
– रेहन माने कुछ नहीं। सरकार ने रेहन गैरकानूनी कर दिया है। यह तो आपसी समझ से चलता है। तुम उनका पैसा न लौटओ तो वे तुम्हारी जमीन थोडे़ हथिया सकते है।
– ओ! जग्गू की आंखों के कोये फैल गये।
– सच पूछो तो तुम्हें यह जमीन दोनो हालत मंे बेचनी होगी। पूछो क्यों?
जग्गू उनका मुंह ताकने लगा।
– हार गये तब तो रेहन पटाने के लिए बेचना पडे़गा। जीत गये तब भी बेचना होगा। वह इसलिए कि नाहरगढ़ का प्रधान बनने के बाद तुम्हे गड़ही के किनारे की उस झोपड़िया में रहना शोमा नहीं देगा। सड़क के किनारे ग्राम समाज की एकाध बीघा जमीन का बाप के नाम आवासीय पट्टा कराओ और बाजार की जमीन बेच कर पट्टे की जमीन पर आलीशान घर बनवाओ। जमीन बेच दोगे तो कोई यह भी नहीं कहेगा कि परधानी की लूट से बनवाया है और जितना चाहोगे इसमें परधानी की काली कमाई भी खप जायेगी।
बाप रे। थोड़ी देर तक तो जग्गू के मुंह से आवाज ही नहीं निकली। कितना कानून भरा है इस बुड्
– और सुनो, जमीन जब कहोगे, बिकवा दूंगा। मुहमांगे दाम में।
जग्गू झुक कर दोनों हाथों से मुंशी के पैर पकड़ लेता है।
– हमेशा आप की शरण में रहूंगा मंुशीजी। जिस तरह आप सबका भला सोचते हैं, सबको राह दिखाते है, वैसा कौन करता है आज के जमाने में।
बाहर भले मुंशीजी की बुद्धि और कानूनी ज्ञान की तूती बोलती हो लेकिन गांव में तो दांतों के बीच में जीभ की तरह ही रहना पड़ता है। सबसे मिलकर, बना कर चलना उनकी मजबूरी है। सबके भले के लिए एक दो प्वाइंट बताते रहते हैं तो गांव देश में मान सम्मान मिलता है। अपना अपमान और तिरस्कार भी सही मौका आने तक कलेजे में दबा कर रखना पड़ता है।
मुंशीजी को ठाकुर के बाप का तीस पैंतीस साल पुराना गुस्से से फनफनाता चेहरा याद आ रहा है। चकबंदी के दौरान उनके घर के सामने की मतरूक जमीन पर कब्जे को लेकर हुए विवाद में लाल-लाल आंखें निकाल कर दांत पीसते हुए चिल्लाया था- खबरदार जो इस जमीन पर कब्जे की सोचा। गोड़ काट कर हाथ पर रख देंगे। लाला लूली किस खेत की मूली?
वे आंखे और वे बोल मुंशी जी के कलेजे में नासूर बनकर गडे़ हैं। – अब समझ में आयेगा बेटा कि जब मूली अंटकती है तो कितना कल्लाती है।
– जब इतनी ‘किरपा‘ है तो कोई ऐसी दांव बताइये चाचा कि जीत पक्की हो जाय।
– बैजनाथ बाबा से मिले कि नहीं?
– वे तो पदारथ के खानदानी है। वे पदारथ के खिलाफ कैसे जायंेगे?
– खुले आम नहीं जायेंगे लेकिन वोट तो ओंट में दिया जाता है।… फौरन मिलो।
– क्या कहूंगा?
– कुछ कहने की जरूरत नहीं। जो मन में आये सो कहना। बस अकेले में मिलकर हाथ जोड़ लेना।… पदारथ ने उनका आधा रास्ता घेर कर दालान की नींव डाल दिया है। उनका रास्ता घट कर तीन फीट की कोलिया बन गयी है। जीप कार का आना जाना बंद। उनका खूंटा पदारथ के बेटे ने उखाड़ कर मंड़ार में फंेक दिया था। यह बात जीते जी बुड्
घर जाते हुए जग्गू की खोपड़ी भांय-भांय कर रही है। कैसे-कैसे सांप, बिच्छू भरे हैं गांव की खोह में। जब तक काट न लें, पता ही नही चल सकता।
वैजनाथ बाबा दिशा मैदान के लिए मुंह अंधेरे जंगल की ओर जाते हैं। फिर ताल पर आकर लोटा मटियाते है। जग्गू ताल के पास झरबेरी के झाड़ के पीछे मुंह अंधेरे ही आकर खड़ा हो गया है। जैसे ही बाबा मुंह का कुल्ला फेंक कर कान का जनेऊ उतारते हुए आगे बढ़ते हैं वह सामने आकर साष्टांग लेट जाता है- बरदान चाहिए बाबा।
– कौन है रे? जगुआ?  इतने भिनसारे?
जग्गू उठकर हाथ जोड़ता है- अपने कुल खानदान की तरफदारी तो दुनिया करती है बाबा लेकिन आदमी वह है जो न्याय का पक्ष ले। भीखम पितामह जैसे ब्रह्मचारी बलधारी के साथ क्या हुआ? अन्यायी का साथ देने के चलते छः महीने तक न जीने में रहे न मरने में। आप के भतीजे पदारथ भी इस गांव के दुरजोधन हैं। उन्होंने गांव वालों के साथ कम अन्याय नहीं किया है। उनका आदमी जीत गया तो फिर करेंगे। इसलिए अन्यायी का साथ मत दीजिए। इस बार मुझे जिताइये। मै तन-मन धन से आपके साथ रहूंगा। वह सिर झुका देता है।
– तू तो बड़ा चतुर है रे। किसने भेजा मेरे पास?
– गरज ने, बाबा। और कौन भेजेगा?
हा-हा-हा-हा, ठठाकर हंसे बाबा। खांसी आ गयी।
– तू तो खलीफा हो गया रे। जा, मेरा आशीर्वाद तेरे साथ है।


जैसे-जैसे पोलिंग की तारीख नजदीक आ रही है, चुनाव का बुखार तेज हो रहा है। रबी की पहली सिंचाई हो गयी। अब खेती में ज्यादा काम नहीं। गन्ना काट कर तौलाई सेंटर पर भेजने में जितना समय लगे। जानवरों का चारा पानी करके लोग ‘कनविंस‘ करने और ‘कनविंस‘ होने के लिए निकल पड़ते हैं। जिनके खूंटे पर कोई जानवर नही है वे तो परम स्वतंत्र हैं। जिस भंडारे पर पहंुचेंगे वहीं खाना, पीना, इफरात। अब रात ग्यारह-बारह से पहले शायद ही कोई घर वापस लौटे। इतने पर भी  दावे के साथ कौन कह सकता कि किसका वोट किसके खाते में जायेगा।
अस्सी साल की बूढ़ी अन्धी इतवारी लाठी से रास्ता टटोलते हुए चार पांच दिन से भोर में ही आकर जग्गू के दरवाजे पर बैठ जाती है। उसका बेटा अपने मेहरारू लरिका के साथ परदेश रहता है। पिछले साल आया तो मां से कह गया था कि हर महीने सौ रुपये भेजा करेगा। चार महीने तक पैसा मिला फिर बंद हो गया। इतवारी दो बार कोस भर दूर डाकखाने तक गयी। दिन भर बैठी रही लेकिन पैसा नहीं मिला। उसे यकीन है कि बेटा पैसा भेजता है लेकिन चिट्ठीरसा देता नहीं, दबा लेता है। पदारथ से कहने पर वे हंसने लगते हैं। उसका कहना है कि जग्गू चाहे तो उसका वोट अभी ले ले लेकिन डाकखाने चल कर उसका पैसा दिला दे।
फुलझारी के दुआर पर सुबह शाम औरतों का मेला लगता है। किसी को बिधवा पेंशन चाहिए किसी को बुढ़ापा पेंशन। कमर में लाल चुनरी बांधे फुलझरिया बांया हाथ कमर पर रख कर दाहिने हाथ को हवा में चमकाती है- पदारथ ने तेरह औरतों को बिधवा बनाया है। मरद आछत बिधवा! उन्हें फर्जी पेंशन दिला रहे हैं और तो और अपनी सगी पतोहू को बिधवा दिखा दिया है। कोई पूंछे भला कि बिधवा है तो गोद में चार महीने की बेटी किसकी है? जग्गू और मुंदर में इतनी हिम्मत है कि ठाकुर बाभन टोले की फर्जी बिधवाओं की पेंशन रोक सकें? जीतते ही मैं यह जाल बट्टा बंद कराऊंगी।
फुलझरिया का टेम्पो देख कर ठाकुर और पदारथ दोनों की सिट्टी-पिट्टी गुम है।

जग्गू की बिरादरी के चार पांच लड़के डमी बैलेट पेपर लेकर घर-घर घूम रहे हैं।
– चाची। इस पर्चे में अपना चुनाव चिन्ह पहचानिए।
चाची कुछ देर तक शान पहचानिए।
– हमैं का पता? तुम बताओ।
– ई देखौ घंटी। अब न भुलाइउ। ए भौजी तुम पहचानो।
भौजी हंसते शरमाते पर्चा देखती हैं- ई है घंटी।
– हां भौजी, तुम तो पहचान लीं।
– तो हम पास हो गये देवर? हंसती हैं। लड़के हंसते हैं।
मुसलमान टोलें में मकबूल का बारह साल का लड़का और एक भतीजा घूम रहा है। जो भी मिले, बैलेट पेपर दिखाकर पूछते हैं- कहां है घंटी?
घंटी खोजना मुश्किल।
– ए बबलू। ई जगुआ को हाथी काहें नहीं मिला? साफ-साफ दिखाई पड़ता।
– हाथी इस इलेक्शन में नहीं मिलता खाला। हाथी बड़के इलेक्शन में लड़ता है। बड़की लड़ाई।
– नाहीं रे। कंजूस है। पइसा नहीं खर्च किया होगा। देख, मुंदरवा कुर्सी रखि गवा है कि नाही। ऊ कुर्सी पाई गवा।
– ए खाला। कुर्सिया पे बइठो मगर मोहरिया घंटिया पे लगावै का है। इहै बडे़ मियां पास किए हैं।
– बडे़ मियां की नबाबी चल रही है क्या रे?


बाजार के दुलीचंद अगरवाले ने एक बार कहा था- अपने गांव के बदलुआ की जमीन दिलाइये मंुशीजी। आपका कमीशन नहीं मारूंगा।
मुंशीजी जानते है कि यह जमीन मिल जाय तो उसके कोल्डस्टोरेज की लोकेशन   सही हो जायेगी। गले में हड्डी की तरह फंसा है बदलुआ। दुलीचंद की कोठी पर देशी घी से तर सूजी का हलवा चाभते हुए आश्वस्त करते हैं मुंशीजी- अस्सी नहीं सिर्फ पचहत्तर फीट का दाम देना होगा आपको। पूछो कैसे? मैं समझाता हूं। एक तरफ तीन फीट आपने दाब रखा है। दूसरी तरफ दो फीट दूसरे ने। मौके पर बची पचहत्तर फीट। इस पचहत्तर फीट का दाम बदलू के खाते में डालना होगा। जो तीन फीट पहले से आपके कब्जे में है उसका दाम मेरे खाते में जायेगा। पैमाइस कराने के बाद दूसरी साइड का जो दो फीट निकलेगा वह आपको फिरी में मिल जायेगा।
– लम्बाई कितनी है?
– एक सौ दो फीट।
– इतनी तो नहीं लगती।
– हो सकता है पीछे वाले ने भी कुछ दबा लिया हो। मगर आपको जितना खतौनी में दर्ज है पूरा दिलायेंगे। यह देखिए… वे जेब से गोल-गोल मुड़ा हुआ टेªस्ड नक्शा निकाल कर खोलते हैं- पूरा ले आउट मेरी जेब में है। मूल जमीन बारह आने मालियत पर दो बिस्वा से डेढ़ डिसमल ज्यादा थी। सामूहिक कटौती के बाद चार आने मालियत पर बैठने से रकबा बना छः बिस्वा यानी 1361ग6=8166 वर्ग फीट। चौड़ाई अस्सी है तो लम्बाई कितनी होगी, खुद भाग देकर देख लीजिए।
– रेट?
– मेरा कमीशन दो परसेंट। रेट जो आमने सामने बैठ कर तय हो जाय।
– रेट कायदे का लगवाइये तो सोचें।… एक बात और। हरिजन की जमीन खरीदने पर तो रोक है। परमीशन का लफड़ा होगा।
– जमीन पर रोक है न। आप मकान लिखवाइये।
– जमीन को मकान कैसे लिखा लंेगें?
– अरे भाई, खंडहर लिखाया जायेगा।
दुलीचंद मुंशी जी का मुंह ताकने लगा।
– हां भाई। जो उसकी झोपड़ी है, समझो वह पुराने मकान का खंडहर हैं। आपने खंड़हर की रजिस्ट्री करायी और कब्जा लेकर उसे जमींदोज कर दिया। मौके पर जमीन बची रह गयी। जो चाहे आकर देख ले।
– खारिज दाखिल हो जायेगा?
– न भी हो तो क्या? उसके खाते में पैसा चला गया। बाप बेटे ने मौके पर कब्जा दे दिया। जमीन आपकी बाउन्ड्री के अंदर हो गयी। खेल खत्म।… आप भी अगरवाल साहब, दुनिया चरा कर बैठे हैं और हमसे पहाड़ा पूछ रहे हैं। अरे, परमीशन के लफडे़ से डराया जायेगा तभी तो मन माफिक रेट पर मिलेगी।


पैसा हाथ में आ जाने से जग्गू के भंडारे की रौनक बढ़ गयी है। चार-पांच नचनिया रिस्तेदार आ गये हैं। खाने पीने के बाद नाच जमी है। औरतों बच्चों का मेला जुट आया है। अलाव में मोटी-मोटी लकड़ियां डाल दी गयी हैं। आग की लाल-पीली लपटें घटती बढ़ती रोशनी का पैटर्न बना रही हैं। मृदंग की थाप और झांझ की झैंयक-झैंयक। बीच में सिंघा बाजा की धू-तू, धू-तू। आधे दर्जन नर्तक नर्तकियों की दायें बायें हिलती कमर सिर के झूमने के साथ ताल मिला रही है। आज होश में रहने का क्या काम? नाचते-नाचते लेट जा रहे हैं। कुछ लेटे हुए उठने की नाकाम कोशिश कर रहे है। बदलू और उसका उससे भी बूढ़ा साला एक दूसरे से सिर जोडे़ पंजे मिलाये नाचते-नाचते झुके जा रहे हैं-
कटै द्या गोस रोटी कटै द्या गोस रोटी
आवै द्या शराब कटै द्या गोस रोटी
(आती रहे शराब। कटती रहे गोस्त रोटी।)

कहिलौ महिलौ… हुड़ुक दहितवा…
कहिलौ महिलौ… हुड़ुक दहितवा…
बदलू को नशे में कमर मटकाता देख जग्गू की बूढ़ी मां पोपले मुंह से हंस रही है।

पोलिंग के चंद दिन बचे हैं। गांव का माहौल पूरी तरह गरम हो गया है। ठाकुर ने आज पूरी ठकुरइया को न्योता है। केवल बिरादरी भोज। गढ़ी का जंग लगा जर्जर फाटक बंद कर दिया गया। बीच में अलाव जलाया गया है। दोनों तरफ दो गैस बत्तियां। दो मेजों पर मीट और मुर्गे देग और चिखना। एक चौकी पर दारू का क्रेट और पानी की बाल्टी।
रामसिंह लपक-लपक कर सबके गिलास भर रहा है। हड्डियां कड़कड़ा रही हैं। गिलास टकरा रहे हैं। खोपड़ी सनक रही है। जबान बमक रही है। बात चलती है कहां से और पहुंच जाती है कहां?
-…….वाह बहादुर वाह…. जमीन भी लिया परधानी भी लेंगे। बजावे बैटा ठन ठन गोपाल….
-…….सरकार बुजरी करती रहे वहां बैठकर रिजरवेशन। यहां उसकी इस्कीम में पलीता लगाने वाले हम लोग कम हैं क्यों?
-……..अच्छा बाबू भवानी बकस सिंह, आप तो पालिटिक्स पढ़ाते हैं, ऐसा नहीं हो सकता कि जीते कोई भी साला, उसे पकड़कर अपने नाम मुख्तारनामा लिखाओ….. क्या कहते हैं उसे अंगरेजी में?
– पावर आफ एटार्नी….
– हां, वही। फिर ठाँस के परधानी करो।
-…..उससे अच्छा कि बेचीनामा लिखा लो। पकड़ बेटा एक लाख और लिख परधानी मेरे नाम। बस्ता मोहर रख कर फूट….
– ठाकुर होकर बेची खरीदी क्यों करेंगे? दो लाठी मार कर छीन नहीं लेंगे?
– आप लोगों पर ज्यादा चढ़ गयी है। ऐसा कहीं हो सकता है?
– क्यों नहीं हो सकता? क्या नहीं हो सकता? बुलाओ मुंशिया को। ससुरा सांझ से ही मुंशियाइन के लहंगे में घुस जाता है। बु
लहंगे में घुसना कब का छूट गया लेकिन घुसने की कल्पना करके अधगंजे सर के सफेद बल भी परपरा कर खड़े हो जाते हैं।
– कैसा जमाना आ गया? एक डूबी हुई आवाज उभरती है- राजशाही के साथ ठकुरई भी चली गई।
– फिर राजशाही आने वाली है बाबा। एक बहुत लम्बी दाढ़ी वाले ज्योतिषी ने भविष्यवाणी किया है।
– क्या-या-या……?
– हां कलजुग के आखिरी चरन में एक दिन ऐसा आयेगा जब एमपी, एमेले की सारी सीटों पर खूनी कतली लोगों का कब्जा हो जायेगा। तब सब मिल कर ‘देसवा‘ का बंटवारा करेंगे। उस बंटवारे में हम लोगों को भी हिस्सा मिलेगा…….
– वाह बाबू झल्लर सिंह। ’बिलायती’ की झोंक में कितनी ऊंची बात बोल गये। भवानी बकस सिंह की लड़खड़ाती आवाज अचरज में डूबी है- क्लेप्टोक्रेसी-ई-ई! क्लेप्टोक्रेसी-ई-ई-ई!
– ए रमुआ…. पुचुर-पुचुर दो-दो घंूट क्या डालता है बे…. भर पूरा गिलास ऊपर तक…..और डाल….और…. बहता है तो बहने दे….. तू डालता रह…..
ठाकुर डर रहे हैं कि चंडूखाने की यह गप्प बाहर गयी तो हुआ बंटा
-…अंय, बोटी खतम? प्याज भी? का बाबू दलगंजन सिंह, इसी सहूर से परधानी करोगे?
– धात्त! नीम के पक्के चबूतरे से टकराकर गिलास के सौ टुकडे़ हो जाते हैं।


पोलिंग से तीन दिन पहले पदारथ ने इन्द्रजाल फंेका। चुनाव घोषित होने से कुछ दिन पहले तालाब का जीर्णोद्वार हुआ था। तीस पैंतीस लोगों की बीस बाइस दिन की मजदूरी बकाया है। पदारथ का कहना है कि ‘हाजिरी‘ बना कर ‘ऊपर‘ भेज दी गयी है। पास होकर आती इसके पहले चुनाव घोषित हो गया इसलिए पेमेंट फंस गया। अगर नया प्रधान जीत गया तो पूरा पेमेंट कैंसिल करा सकता है। पेमेंट लेना है तो मेरे आदमी को जिताइये। जिताने पर पेमेंट की गांरटी है। हारने पर कोई गारंटी नहीं।
पदारथ के आदमी मजदूरों को अलग-अलग समझा रहे हैं- एक वोट की ही तो बात है। उसके चलते दो
ऐन मौके पर तुरूप चाल। सुन कर ठाकुर घबराये। दोपहर से ही अपनी कोठरी की सांकल अंदर से बंद करके जाने कहां-कहां मोबाइल मिलाते रहे। अंधेरा होने पर बाहर निकले तो रामसिंह को बुलाकर कहा- ब्लाक आफिस जाकर जनार्दन बाबू से मिलो, अभी तुरंत। कहना, नाहर गढ़ के दलगंजन सिंह ने भेजा है। उन्हें यह लिफाफा दे देना। वे कुछ पेपर देंगे। उनकी पन्द्रह बीस फोटो कापियों का सेट बनवाकर लाना है। आज ही चाहिए।
रात ग्यारह बजे शाल लपेटे, कान बांधे नाक से पानी  चुआते रामसिंह की मोटर साइकिल ट्यूबवेल घर की ओर मुड़ती है तो उसकी हेड लाइट में ठाकुर मंकी टोपी लगाये ओसारे की चारपाई पर बैठे इन्तजार करते दिखाई पड़ते हैं।
रामसिंह ठंड से अकड़ी उंगलियों पर फंूक मारते हुए सफाई देता है- जनार्दन बाबू ने कागज बहुत देर से दिया। फिर शहर जाने, दुकान खुलवाने, जनरेटर चलवाने में बड़ा समय लग गया।
ठाकुर को कुछ सुनाई नहीं पड़ता। वे टार्च की रोशनी में देर तक पेपर पढ़ते हैं- गुड्ड। तुरूप का जवाब तुरूप का इक्का।
सबेरे ठाकुर खुद, रामसिंह, जग्गू और जग्गू के टोले के दो लड़के फोटोस्टेट कागजों का सेट लेकर गांव भर में फैल गये। जग्गू ने एक सेट मकबूल के पास भेजवाया और ठाकुर से उसकी बात करा दी।
घंटे भर में पूरे गांव को पता चल गया कि पक्की सड़क से मुसलमान टोले तक के करीब आधा कि0मी0 और हरिजन टोले के करीब
– लीजिए अपनी आंख से पढ़ लीजिए आप लोग। यही हैं भुगतान किए गये बिलों की फोटो कापियां।… और मौके पर? एक भी ईंट लगी हो तो बताइये। चार लाख सत्तर हजार रूपये पूरे के पूरे हजम। लोग दस-बीस परसेंट खाते हैं। चग्घड़ विधायक भी विधायक निधि का पचास परसेंट से ज्यादा नहीं खा पाता। लेकिन आपका परधान सौ का सौ परसेंट हजम कर गया। अब आप लोग खुद फैसला करें…
परदेस रहने वाले वोटरों को कई उम्मीदवारों ने चिðी लिख कर बुलाया है। सबने लिखा था- आने जाने का खर्चा मेरे जिम्मे। सभी जानते हैं कि गुजरे गवाह और लौटे बराती का कोई पुछत्तर नहीं होता। गुजरा वोटर भी इसी श्रेणी में आता है। इसलिए पोलिंग के पहले वे अपना किराया-भाड़ा वसूल पाना चाहते हैं। किसी एक से नहीं। हर चिðी लिखने वाले से।
इतने लम्बे जनसम्पर्क से हर उम्मीदवार जान गया है कि वह कितने पानी मंे है। मुंदर ने तो अपनी ओर से पूछ कर, जिसने जो रकम बतायी उसमें सौ रूपया जोड़ कर दे दिया। जग्गू से भी जिसने जितना बताया पा गया। लेकिन जिन्हें जीतने की कोई आशा नहीं है वे टाल मटोल कर रहे हैं। जो कुछ जेब में बचा रह जाय वही अच्छा।


पोलिंग से एक दिन पहले मुंह अंधेरे हल्ला मचा-फुलझरिया दल्लू के बेटे शंकर के साथ बंसवारी में पकड़ी गयी।
दिशा मैदान का समय। सारा गांव ही बाहर था। लोग दौड़े- क्या हुआ? क्या हुआ?
फुलझरिया ने कस कर एक तमाचा शंकरवा के गाल पर जड़ा और गांव के पिचालियों को ललकारती अपनी राह चली गयी। किसी की हिम्मत उसके सामने पड़ने की नहीं हुयी। लेकिन भागते हुए शंकर को लोगों ने दौड़ा कर पकड़ लिया। लगे पिटायी करने।
पांच सौ रुपये के बदले शंकर केवल इतना करने को तैयार हुआ था कि वह बंसवारी से लौटती फुलझारी बुआ के सामने पल भर के लिए खड़ा हो जायेगा। तभी पहले से ’सधे बधे’ लोग दोनों को घेर कर हल्ला मचा देंगे।
पदारथ को यह जान कर बड़ी राहत मिली कि पिटने के बावजूद शंकर ने उनका नाम नहीं लिया। नहीं तो बड़ा अनर्थ हो जाता।
– बड़ी छतीसी औरत निकली गुइयां। औरतों का झुण्ड दांतों तले उंगली दबा रहा है।
– कब से है यह आशनाई? किसी को भनक तक नहीं लगी।
– कहां चालीस पैंतालीस की फुलझरिया, कहां बीस-बाईस का शंकरवा! दूने की चोट। माई रे!
– इसीलिये मूसल जैसा मनसेधू छोड़ कर नैहर में डेरा डाले पड़ी है।
इस्कीम भले पदारथ ने बनाई लेकिन बदनामी फैलाने में ठाकुर के आदमी भी जुट गए हैं।
फुलझरिया के दोनों भतीजे लाठी लेकर शंकरवा को खोज रहे हैं।


पोलिंग पार्टी आ गयी। बिना खिड़की दरवाजे वाले प्राइमरी स्कूल के खुरदरे फर्श पर प्लास्टिक की सीट बिछा कर सबने डेरा डाल दिया। घंटे भर के अंदर ठाकुर और पदारथ के घर से चाय, विस्कुट और पकौड़ियां आ गयीं। पीठासीन अफसर कहता है- नहीं, नहीं। चुनाव आयोग का सख्त निर्देश है। मतदान कर्मी किसी उम्मीदवार से खाने-पीने की कोई चीज नहीं ले सकते।
– लेकिन साहब, हमारा भी तो कोई फर्ज बनता है। आप हमारे गांव के मेहमान है। मेहमान भूखे रहेंगे क्या?
पार्टी में साल भर के बच्चे वाली एक सुन्दर महिला भी है। बहुत उदास है। लाख जतन के बाद भी वह अपनी ड्यूटी नहीं कटवा सकी। सभी महिला को देख-देख कर बच्चे से प्यार जता रहे हैं। उसके पीने के लिए दूध आ गया है।
-ए, टेंट उखाड़ो। बर्तन भांडे़ हटाओ। भंडारा खत्म। सेक्टर मजिस्टेªट राउन्ड पर आने वाले हैं।… हिसाब किताब परसों होगा। पोलिंग के बाद। कहीं भागे जा रहे हैं क्या?…
– पीठासीन अधिकारी का ‘सरनेम‘ नहीं पता लग रहा है। कैसे पटाया जाय? सात बजे के करीब ठाकुर और पदारथ के घर से पूड़ी सब्जी के टिफिन आ जाते हैं। रामसिंह पीठासीन अधिकारी के कान में धीरे से पूंछता है- साहब ’लालपरी’ चलेगी?
रात दस बजे के बाद पदारथ की दालान से तीन लोगों की दो टोलियां निकलती हैं। पहली टोली के हाथ में छानबे चउवा के जनेऊ और दूसरी के हाथ में बानबे चउआ के। एक ब्राह्मण टोले में घुसती है दूसरी बनिया टोले में। युद्ध के अंतिम पहर में ब्रह्मास्त्र का प्रयोग। एक-एक घर के मुखिया को जगा कर जनेऊ अर्पण और गुहार- अब तक पदारथ ने जो भी सही गलत, स्याह सफेद किया उसे भूल जाइये। शिकवा शिकायत भूल जाइये। जोड़ा जनेऊ की इज्जत दांव पर है। इसकी इज्जत बचाइए।
बनिया टोले में एक पद और- ब्राह्मणों की महिमा इस कलजुग में महाजनों के बल पर ही टिकी है आज तक। इस बार भी इसकी रक्षा कीजिये।


बादल हैं। रात से ठंडी हवा चल रही है। फिर भी सबेरे आठ बजे ही बूथ पर लम्बी लाइन लग गयी। जग्गू अपनी जोरू और मुंदर अपने बेटे के साथ सात बजे से ही एक-एक वोटर को घर से निकालने में लगा है।
अंदर सारे एजेन्ट चौकन्ने हैं। जरा सा सन्देह होते ही चैलेन्ज करो। बाहर बच्चा-बच्चा सतर्क है- विरोधी पार्टी कोई फर्जी वोटिंग न करा दे। साथ ही अपने पक्ष में फर्जी वोटिंग के लीकप्रूफ तरीके खोजे जा रहे हैं। फर्जी वोटिंग सबेरे-सबेरे हो जाती है या शाम को सबके थक जाने के बाद।
औरतों का झुंड लाइन में लगा है। ज्यादातर घूंघट वाली दुलहिनंे। एक एजेन्ट ने टांका भिड़ा लिया है। वह कहता है- साहेब जरा जल्दी करा दीजिए। दुलहिन बलहिन हैं। घर पर छोटे बच्चे रो रहे होंगे।
इस झुंड में कुछ महिलाएं घूंघट निकाल कर दूसरे के नाम पर वोट देने आयी हैं। उन औरतों के बोलने से पहले एजेंट ही उनका नाम बता देता है। थोड़ी देर तक एजेंटों में कांव-कांव होती है फिर शांति छा जाती है।
महिला पोलिंग अफसर थोड़ा मेहरबान लगती है। वह भरसक ऐसी दुलहिनों की उंगली पर अमिट स्याही का निशान नहीं लगायेगी। लगायेगी भी तो जरा-मरा। दोपहर बाद जब साड़ी बदल कर अपने असली नाम से वोट देने आयेगी तब लगायेगी।
़ ़ ़गांव की जो लड़कियां ससुराल में हैं, जो बहुएं मायके में हैं, जो लोग परदेश में हैं, किसी का वोट छूटना नहीं चाहिए।
दूसरी पार्टी ने दूसरा रास्ता निकाला है। पर्ची बांटने वाले टेंट से थोड़ा पहले गली के मोड़ पर एक किशोर अपने खास वोटरों की पहली उंगली पर गूलर का दूध पोत रहा है। इसी पर पोलिंग के समय स्याही लगेगी। गूलर के दूध के ऊपर लगाने पर अमिट स्याही ‘अमिट‘ नहीं रह जायेगी। जरा सा रगड़ते ही दूध की परत के साथ निकल आयेगी। अब यह उंगली दुबारा वोट देने के लिए ‘रेडी‘ है।
वोटर लिस्ट से खाला का नाम ही गायब है। पीठासीन अधिकारी को अपना वोटर आई डी कार्ड दिखा कर देर तक चिरौरी की, फिर लड़ीं।  वह बार-बार हाथ जोड़ता रहा। बूथ के बाहर घंटे भर तक अदृश्य को सरापने के बाद लाठी टेकती लौट गयीं।
सफेद दाढ़ी मंूछ की खूटियों और सन जैसे सफेद बिखरे बालों वाले पहाड़ी बाबा झिलंगा खटिया पर बैठे धूप संेकते मुंह में बचे आखिरी तीन लम्बे पीले दांत दिखाते रिरिया रहे हैं- ए भइया। कोई हम्मै भी लै चलो। हम भी दे आवें।
जग्गू सबेरे-सबेरे आया था। कह गया कि अभी ले चलेंगे। लेकिन लगता है भूल गया। बूढ़ा उधर से गुजरने वाले हर आदमी को टेर रहा है- ए भइया…
बू
कंधे पर बैठकर वोट डालने जाने की ‘इच्छा‘ खाली चली जायेगी क्या?
लड़ते झगड़ते चैलेन्ज करते एजेन्टों ओर ‘स्टान्च सपोर्टरों‘ के मुंह से तीन चार बजते-बजते फिचकुर निकल आया है। सारी चिक-चिक, झांय-झांय ठंडी। कहां तक जान देंगे? होने दो जो हो रहा है।
आखिरी वक्त में फिर कोलाहल। सील होते बैलेट बाक्स के मुंह पर सब अपनी अपनी सील लगाने को आतुर।
दोनों बक्सों को संभालती पोलिंग पार्टी ट्रक पर लद गयी। धुंए का काला गुबार गांव के मुंह पर मारता ट्रक गड़गडाता हुआ चल पड़ा।
खटिक टोले का गोलू साइकिल नचाते गाते हुए जा रहा है-
प्रजातंत्र को चोट दे गये।
मुर्दे आकर वोट दे गये।।
पहले तो लोग ध्यान नही देते। तुक्कड़ जोड़ता है। कवि सम्मेलनों में जाता है। कहीं सुन लिया होगा, गा रहा है। लेकिन फिर लोग चौकन्ने होते हैं। खुसर पुसर होती है। थोड़ी देर में बात फैलती है कि साल भर पहले दिवंगत हुई पदारथ की अम्मा वोट डाल गयीं। मुसलमान टोले की तीन ‘मरहूमाएं‘ भी डाल गयी। गजब।


काउन्टिंग आठ बजे से है।
पन्द्रह बीस दिन से रात दिन दौड़ते-दौड़ते ठाकुर को हरारत आ गयी है। ठण्ड से बचाव भी हो जाय और हनक भी बढ़ जाय इसलिए काउंटिंग में चलने के लिए बोलेरो बुक की गयी है।
अगर शुभ समाचार रहा तो वापसी मंे चौराहे से जुलूस बना कर गांव में प्रवेश का मंसूबा बनाया गया है। बहुत दिनों बाद गढ़ी में जश्न मनाने का मौका आने वाला है।
जग्गू ठाकुर के दरवाजे पर नहा धोकर पहुंचा तो बोलेरो आ गयी थी लेकिन रामसिंह ने बताया- अभी तो बाबू साहेब उठे ही नहीं।
– क्यों? दालान में जाकर खिड़की से झांक कर देखा- रजाई से सिर
-लम्मरदार। उसने पुकारा।
ठाकुर ने मुंह खोला। लेकिन जग्गू का चेहरा देख कर उनकी देंह में सिहरन दौड़ गयी। जूड़ी आयेगी क्या?
– मेरी तबियत ठीक नहीं है। वे कमजोर आवाज में कहते हैं- तुम रामसिंह के साथ चले जाओ।
रात के सपने ने उनकी आवाज में कम्पन पैदा कर दिया है। सपना देखा कि  जग्गू हाथी की नंगी पीठ पर बैठा उन्हीं की ओर आ रहा है। उसके हाथ में लम्बा अंकुश है। उनको देख कर  अट्टहास करता है- तुम्हीं को खोज रहा हूं ठाकुर। और हाथी उनकी तरफ दौड़ा देता है। निचाट मैदान में वे अकेले भागे जा रहे हैं  लेकिन पैर ही नहीं उठते। पीछे हाथी की चिग्घाड़। राम सिंह पहले ही भाग खड़ा हुआ।
उनकी धोती खुल गयी है। धोती की लांग लम्बी होकर पूंछ की तरह घिसट रही है। पैरों में लिपट रही है।
जगने के बाद भी उनकी सांस देर तक धौंकनी की तरह चल रही थी। वे राम सिंह को इस बात के लिए डांटने जा रहे थे कि वह उन्हें अकेला छोड़कर भागा क्यों? लेकिन समझ गए।
वे बोलेरो वापस कर देते हैं। राम सिंह जग्गू को लेकर मोटर साइकिल से चला जाता है। वे फिर लेट जाते हैं लेकिन सपने का असर डेढ़ दो घंटे में समाप्त होता है तो पछताने लगते हैं- चले जाना चाहिए था।
ग्यारह बजते-बजते बेचैनी बढ़ जाती है- काउन्टिंग में भी बेईमानी हो सकती है। मौके पर जो पार्टी कमजोर होती है उसी के वोट सबसे ज्यादा ‘इनवैलिड‘ होते हैं।
वे राम सिंह को फोन मिला कर सचेत करते हैं- इनवैलिड होने वाले अपने हर वोट पर हल्ला-गुल्ला करना और जब तक बैलेट पेपर फिर सील न हो जाय वहां से हटना नहीं।
फिर हर आधे घंटे बाद रामसिंह को फोन मिलाते हैं- क्या पोजीशन है?
दोपहर बीतते-बीतते उन्हें ठकुराइन पर तेज गुस्सा आता है- पता नहीं अंदर घुसी अकेले क्या सिंगार-पटार कर रही हैं। यह नही आकर थोड़ी देर पास बैठें।
चार बजे रामसिंह बताता है- फुलझरिया आठ वोट से आगे चल रही है। उनका जी धक् से हो जाता है। फिर बड़ी देर तक राम सिंह का फोन नहीं मिलता।
अंधेरा होते-होते रामसिंह बताता है- मंुदर पन्द्रह वोट से आगे है।
– बाप रे। उनकी धड़कन बढ़ जाती है- हार जायेगें क्या? फिर पूछते हैं- मुस्लिम टोले के बक्से की गिनती हो गयी?
– नहीं, अब शुरू हुई है।
वे ठकुराइन को आवाज देते है- जरा एक गिलास और प्याज, दालमोठ दे जाओ।
रामसिंह का मोबाइल स्विच आफ आ रहा है। जग्गू का मोबाइल नम्बर उन्होने फीड नहीं किया। किया होता तो भी अब मिलाने की हिम्मत नहीं है। लगता है, जो नहीं होना था वही हो गया। अच्छा किया जो जमीन कब्जे में कर लिया।
सात बजे के करीब जग्गू का फोन आता है- सात वोट से जीत गये, लम्मरदार।
अरे वाह!… अब यह दूसरी तरह की धड़कन है- धाड़-धाड़…
वे मास्टराइन को गले लगाने के लिए दौड़कर आंगन में जाते हैं लेकिन उनके पास जमीन में बैठ कर कर महरिन की बेटी सब्जी काट रही है। उनके कदम थम जाते हैं। वहीं से बताते है- तुम्हारी विजय हो गयी रानी। जरा नहाने के लिए पानी गरम करवाइये।
फिर लौट कर अपनी ‘शेविंग किट‘
जग्गू का फोन फिर आया- पदारथ चिल्ला रहे हैं कि बेईमानी हो गयी। रिकाउन्टिंग के लिए हाईकोर्ट तक जायेंगे।
– सुप्रीम कोर्ट तक जायंे। कौन रोकता है? पदा-पदा कर झिलंगा कर देंगे। उनकी भुजाएं फड़कने लगी हैं- किस प्वाइंट पर कोर्ट जायेंगे सरऊ।
– उनके चौंतीस वोट इनवैलिड हुए हैं अपने इक्कीसण्चिल्ला रहे हैं कि फर्जी इनवैलिड करके हराया गया।
– चिल्लाने दो। पांच साल तक चिल्लाते रहें। तुम प्रमाण पत्र लेने के बाद ही हटना। और राम सिंह के मोबाइल का क्या हुआ?
– उसकी बैटरी डिस्चार्ज हो गयी।
वे कुछ और पूंछना चाहते थे कि… कट गया।
जीत का प्रमाण पत्र पकड़ते हुए जग्गू के हाथ कांप रहे हैं। वह छोटे से बेरंग कागज को सिर से लगाता है फिर ट्यूबलाइट के पास आकर पढ़ता है- प्रमाणित किया जाता है कि श्री जगत नारायण पुत्र श्री बदलू राम साकिन…. नाहर गढ़…..

जग्गू का विजय जुलूस पक्की सड़क से गांव की ओर मुड़ा तो वे नहा धोकर प्रेस किया हुआ कुरता, धोती, जाकिट, मोजा ओर काला पम्प शू पहन कर तैयार हो चुके थे। कन्ट्रोल में रहने की अंदर से मिल रही चेतावनी के तहत दो पेग के बाद गिलास तखत के नीचे रख चुके थे।
विजय जुलूस दरवाजे पर आये तो उन्हें खुद माला पहना कर जग्गू का स्वागत करना चाहिए।
– अरे, वे ठकुराइन को आवाज देते हैं- भाई, राम सिंह तो है नहीं।  किसे कहें। जरा सामने से दस-बारह गेंदे के फूल तोड़ कर एक माला बना दो, प्लीज।
जब से उन्हे ‘प्लीज‘ की ताकत पता चली है, ठकुराइन से कोई अप्रिय कार्य कराने के लिए वे इसी का सहारा लेते हैं-प्ली-ई-ई-ज।
राजगढ़ स्टेट की राजकुमारी ठकुराइन  शिवराज कुंवरि आंखे तरेर कर देखती है। यानी मैं माला गूथूंगी? जगुआ के लिए?
– गूंथना पडे़गा रानी। ठाकुर आजिजी से कहते हैं- जमाने के साथ चलना पडे़गा। समझो वह नहीं, मै जीता हूं। असल में तो परधानी मुझे ही करनी है। वह ससुरा तो चिड़ी का गुलाम है।
ठाकुर उनके पास जाकर उनकी लम्बी केश राशि पर हाथ फेरने लगते हैं- वह जीत का जुलूस लेकर तुम्हारे दरवाजे पर आ रहा है।
कंधे से पकड़ कर वे ठकुराइन को पलंग से नीचे उतारते हैं।
उन्हें राम सिंह पर गुस्सा आ रहा हैं जुलूस में शामिल होने के बजाय उसे सीधे घर आना चाहिए था। अभी आधा गांव उनके दरवाजे पर बधाई देने जुटेगा। दो चार डिब्बे मिठाई मंगवा लेते। कुछ पान, बीड़ी, सिगरेट। दस-बीस कुर्सियां…
वे खुद गैसबत्ती जलाने लगते हैं।
कितनी देर कर रहे हैं ससुरे? वहीं नाचते रहेंगे कि आगे भी ब
… अरे, जुलूस तो लगता है सीधे जग्गू के घर की ओर मुड गया।
वे बेचैन हो जाते हैं। रात का सपना याद आ जाता है- हाथी की चिग्घाड़!
शिवराज कुंवरि हाथ में माला लिये उनसे एक कदम पीछे बगल में खड़ी हैं। वे उनकी ओर देखते हैं। उनका चेहरा भी झांवा हो गया है। वे उनका हाथ पकड़ कर खींचते हुए कहती हैं- जाने दीजिए हरामजादे को। दोगला निकला। आप अंदर चलिए।
वे गुस्से में हाथ की माला सामने चौकी के नीचे फेक देतीं हैं।
लेकिन थोडे़ असमंजस के बाद तय करते हैं कि वे खुद जायेंगे। जाना ही होगा। एक लाख से ज्यादा ‘इनवेस्ट‘ कर चुके हैं। बात बिगड़नी नहीं चाहिए।
चौकी के नीचे से माला निकाल कर वे कुर्ते की बगल वाली जेब में डालते हैं। मंकी टोपी उतार कर फेंकते हैं और कुबरी लेकर निकल पड़ते हैं।
गोले दग रहें हैं। छुरछुरिया छूट रही हैं। सरगबान आकाश में छेद कर रहे हैं। दो पेट्रोमेक्स की रोशनी नाचने वालों के लिए कम पड़ रही है।
जग्गू को बीच में करके हाथ की बोतल नचा नचा कर वही लड़के मटक रहे हैं जिनकी सूरत ठाकुर को पसंद नहीं। प्रचार के दौरान ये लड़के एक बार भी उनके दरवाजे पर नही आये।
लंगड़ और बिदेशी टोले के पुराने नचनिया हैं। इनकी टक्कर आज भी कोई नौजवान नहीं ले सकता। लंगड़ के सिर पर लाल अंगौछा डाल कर किसी ने घूंघट बना दिया है। एक पैर की भचक अलग समां बांधती है। दोनों हाथ फेंक कर मटक-मटक कर गा रहे हैं- जग्गू जांबाज ने जग जीत लिया, दइया रे….
नहीं- ई-ई…….. एक लड़का चीखता है- जग्गू नहीं, टाईगर। जीत गया भई जीत गया। जे0 एन0 टाईगर जीत गया।
ठाकुर बड़ी देर तक उपेक्षित से भीड़ के बाहर खडे़ रह जाते हैं। कोई उनकी तरफ देख नहीं रहा। मन करता है कुबरी उठा कर सीधे जग्गू की खोपड़ी पर….
नहीं। गाली और गुस्सा दोनों उनके खानदानी दुश्मन रहे हैं। इन पर काबू पाना होगा। पिताजी कहते थे- जब सब साथ छोड़ जाते हैं तो धीरज साथ देता है।
वे भीड़ को चीरते हुए सीधे जग्गू के सामने आ जाते हैं। जेब से माला निकाल कर उसके गले में डालते हैं और उसे अपनी भुजाओं में भर लेते हैं। देर तक भरे रहते हैं। जकड़ से छूटते ही जग्गू अपने गले की माला निकाल कर ठाकुर के गले में डाल देता है।
बाजे की लय थोड़ी भंग होती है फिर तेज हो जाती है। एक लड़का लड्डू का डिब्बा उनकी ओर बढ़ाता है। वे एक लड्डू उठा कर मुंह में डाल लेते हैं। दूसरा लड़का उन्हें पानी का गिलास पकड़ाना चाहता है लेकिन वे टाल जाते हैं।
– पानी नहीं पियेंगे? पीजिए।
ठाकुर अनसुना करके मुंह घुमा लेते हैं। लेकिन वह बदमाश फिर आगे आ जाता है। ठाकुर उसे घूरते हैं। हाथ से मना करते हैं।
– जब आप हम लोगों के गिलास का पानी नहीं पी सकते, हम को अभी भी ‘वही‘ समझते हैं तो हमारा आपका साथ कितने दिन निभेगा?
ठाकुर की भृकुटि पल भर के लिए टेढ़ी होती है फिर सामान्य हो जाती है। कहते हैं- पानी पीने से ही साथ पक्का होता हो तो कहो बाल्टी भर पी जाऊं।
कहने के साथ वे लड़के के हाथ से गिलास लेकर गट-गट पी जाते हैं।
एक लड़का उन्हें नाचने के लिए लड़कों की गोल की ओर खींचता है। दूसरा उनके पंजे मे पंजा फंसाकर दाये बाये हिलाते हुए कहता है- जरा कमरिया भी लचकाइये ठाकुर।
नाचते हुए लड़कों के बीच कुबरी वाला हाथ उठाकर वे मटकने लचकने लगते हैं।

-ः0ः-
शिवमूर्ति २ध्३२५ विकास खंड गोमती नगर लखनऊ .२२६०१०
ई मेल – ेीपअउनतजपेींइंक/हउंपसण्बवउ
ठसवह. ेीपअउनतजपण्इसवहेचवजण्बवउ

 

                                

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *